-अशोक “प्रवृद्ध”
वर्तमान में मांसाहारी होना, राम, कृष्ण, साईं जैसे मनुष्यों को भगवान मानकर पूजन करना, जाति, घूंघट व पर्दा प्रथा का प्रचलन आदि को सनातन वैदिक हिन्दू धर्म का वास्तविक स्वरूप माना जाने लगा है, जो कि हिन्दू धर्म का वास्तविक सनातन स्वरूप नहीं है। आदि काल में सनातन धर्म का ऐसा स्वरूप कदापि नहीं था, लोग वैदिक मतानुसार जीवन यापन करते थे और वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गये ज्ञान से प्रेरित हो अपने सभी कर्मों को निर्धारित करते थे, परन्तु महाभारत युद्ध के पश्चात शनैः – शनैः वैदिक ज्ञान से दूर होते जाने के कारण सनातन वैदिक धर्म में व्यापक बदलाव आ गया और यह सब परिवर्तन वर्तमान में हिन्दू कहे जाने वाले जीव के धर्म के हिस्सा बन गये।
यह सत्य है कि हिन्दू धर्म की बुनियाद वेद है, परन्तु आज का हिन्दू सनातन वैदिक धर्म के प्रमुख ग्रन्थ वेद से दूर हो गया है। समाज को दिशा निर्देश देने वाले विद्वानों अर्थात ब्राह्मणों के घर में भी वैदिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं, और हैं तो उन्हें पढने वाला कोई नहीं। इसका प्रमुख कारण भारतवर्ष के समस्त प्राचीन ग्रन्थों की भाषा देवभाषा संस्कृत के प्रचलन को राजनैतिक उद्देश्यों और मजहबीय साम्राज्य कायम करने के लिए समाप्त कर दिया जाना है। इस्लाम के आगमन के पश्चात सभी सरकारी व गैर सरकारी कार्य अरबी अथवा फारसी भाषा में किये जाने का प्रावधान किये जाने से भारतीयों में धीरे-धीरे संस्कृत भाषा का प्रचलन कम होने लगा, और हिन्दी व उर्दू जैसे नए भाषा का उदय होने लगा। फारसी, अरबी तथा हिन्दी, उर्दू की शिक्षा को सरकारी सुविधा दिए जाने और संस्कृत भाषा के शिक्षा केंद्र गुरुकुलों को शासकीय प्रयासों से बंद कर दिए जाने के कारण संस्कृत भाषा का शिक्षण भारतवर्ष में नगण्य हो गया। ऐसे में हिन्दुओं के लिए संस्कृत में लिखे धर्म ग्रन्थों को पढ़ कर समझ पाना भी मुश्किल होने लगा।
समाज के नीति निर्धारक विद्वान वर्ग अर्थात ब्राह्मण समुदाय भी अपने श्रेष्ठ वैदिक कर्मों को त्याग निजी स्वार्थ व लोभ के वशीभूत हो आदि सनातन वैदिक धर्म के मूल वेदों के अध्ययन- अध्यापन से वंचित होकर भारतवर्ष में आदि सनातन काल से देवभाषा संस्कृत में व्याप्त पूजा पद्धति को छोड़ कर अपने बोल-चाल की भाषा में धर्म ग्रन्थों का निर्माण शुरू कर दिया।
आदिकाल से जहाँ एकमात्र ओ३म नामधारी परमात्मा के नाम, गुण, स्मरण करने अर्थात एकेश्वरवाद की परिपाटी कायम थी, उसके स्थान पर पृथक- पृथक अनेक देवताओं के शरीर की कल्पना कर उनकी पूजा- अर्चा की जाने लगी। परमात्मा के अनेक नामों में से एक संसार के पालक विष्णु पूजन की प्रक्रिया जहाँ संस्कृत में थी, तो उनकी नाम , गुण स्मरण अर्थात उनकी पूजा के स्थान पर राम और कृष्ण को विष्णु अवतार मान कर दोनों से जुड़े लोकप्रिय कथाओं क्रमशः रामायण और महाभारत को धर्मग्रन्थ का रूप दिया जाने लगा।
महाभारत काल में ही भारतीय विद्वत्व अर्थात ब्राह्मणत्व में ह्रास आने लगा था, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे विद्वान् अभ्यारण्यों में गुरुकुल चलाने की प्रवृत्ति त्याग आज के ट्यूशन पढ़ाने की भांति घरों में जाकर बच्चों को शिक्षा देने लगे थे, और अपने स्वार्थ के लिए अपने शैक्षणिक और समाज को मार्ग दिखाने सम्बन्धी अपने कर्तव्यों को परिवर्तित करने लगे थे।
महाभारत युद्ध के पश्चात वैदिक ज्ञान से दूर होकर लोग जैनियों और बौद्धों के फेर में पड़ वेदों में बताये परमात्मा की उपासना के इतर विभिन्न पूजा पद्धतियों में फंसकर आदिकाल से प्रचलित उपासना पद्धतियों का त्याग कर पूजा विधि को आसान बनाने में लग गये। सम्पूर्ण भक्ति आंदोलन का उद्देश्य भी पूजा विधि को आसान बनाये जाने का ही रहा है। इसी काल में रामायण को संस्कृत से सामान्य बोलचाल की भाषा अवधी में अनुवाद किया गया। समाज के विद्वान कहे जाने वाले ब्राह्मण वर्ग तो स्वयं वैदिक ज्ञान से वंचित एकमात्र परमात्मा की उपासना के स्थान अनेक शरीरधारी देवताओं का स्थापना कर उनकी पूजा से अपनी आजीविका चलाने में संलग्न हो गया, वह समाज को क्या दिशा देता? ऐसे में यज्ञ, आहुति, वैदिक प्रवचनों के स्थान पर पूजा विधि को अज्ञानी लोगों के लिए आसान बनाने के लिए नाम जाप और कीर्तन को प्रचलित किया जाने लगा। ऐसा प्रतिष्ठापित किया गया कि कलियुग केवल नाम अधारा, अर्थात कलियुग में भगवान के नाम लेने मात्र से मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी। इस प्रकार लोग अपने मूल वेद से हट कर राम, कृष्ण के नाम का जाप और कीर्तन करने लगे और यहीं से अंधविश्वासों की शुरुआत हुई, और फिर गली-गली में नए-नए भगवान का जन्म, छुआछूत व सतीप्रथा जैसे कुप्रथाओं का चलन हुआ।
उल्लेखनीय है कि आदि सनातन काल से भारतवर्ष में मनुष्यों की पूजा नहीं वरन एकमात्र परमात्मा के ही नाम, गुण, स्मरण, उपासना की परिपाटी थी, और एकमात्र परमात्मा के असंख्य दिव्य गुण होने से ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, वरुण आदि अनेकानेक नाम होने के कारण तदनुरूप नामों के नाम, गुण, स्मरण, उपासना, यज्ञ, हवन, आहुति, आचमन, पूर्णाहुति का प्रचलन था। मनुष्यों की पूजा तो कदापि नहीं होती थी, हाँ, उनका आदर-सत्कार, सम्मान हर दृष्टि से किया जाता था। परमात्मा के असंख्य नामों में प्रकृत्ति के प्रमुख घटकों के संचालनकर्ता स्वयं परमात्मा होने के कारण प्रकृत्ति के घटकों का संकेत मिलता है। एकमात्र परमात्मा के ही ये सब प्रकृत्ति द्रष्टव्य दिव्य गुण आधारित नाम होने के कारण इन घटकों का भी नाम, गुण, स्मरण, उपासना और इनके लिए यज्ञाहुति दिया जाता था। जन्म देने वाले ब्रह्म, पालन करने वाले विष्णु और दुष्टों को दंड देकर रूलाने अर्थात मारने वाले रूद्र अर्थात शिव क्रमशः जन्म, जीवन और मरण के सांकेतिक रूप देव माने जाते हैं। विभिन्न प्राकृतिक घटकों जैसे सूर्य के लिए सूर्यदेव, वर्षा के लिए इंद्रदेव, काम के लिए कामदेव, सोमरस के लिए सोमदेव, अग्नि के लिए अग्निदेव, वायु के लिए पवनदेव आदि की पूजा होती थी। वैदिक मतानुसार परमात्मा के असंख्य नामों में से प्रकृत्तिदृष्ट नामधारी ये सभी मनुष्य नहीं वरन प्रकृत्ति के ही घटक हैं, और सत्य को स्वीकार कर सन्मार्ग पर चलने के अधिकारी इस सच को सहज ही देख सकते हैं। सच तो यह भी है कि आदिकाल से लेकर जैनियों से पूर्व तक सनातन वैदिक पूजा विधि में नाम जप अथवा कीर्तन कतई शामिल नहीं था, बल्कि यज्ञाहुति, मंत्रोच्चारण ही उपासना का मुख्य अंग था। वेदों में अंकित मन्त्र उच्चारण और यज्ञ के विज्ञानं पर आधारित हैं । मन्त्र के माध्यम से किसी विशेष सकारात्मक बात को बार-बार दुहराते रहने से मनुष्य का शरीर और मस्तिष्क अर्थात दिमाग उसके अनुकूल कार्य करना शुरू कर देता है, परन्तु आदिकाल में ही परमात्मा द्वारा वेदों में दी गई सत्य ज्ञान से वंचित मनुष्य इस रहस्य से अन्जान इन्हें शरीर नामधारी भगवान और देवता से जोड़ उनकी प्रतिमा स्थापन कर पूजा करने में लग गया ।
लोक कल्याण के कार्य को यज्ञमय कार्य कहा जाता है, और यज्ञायोजन के पीछे भी त्याग का विज्ञानं व त्याग भावना छिपी हुई है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति के अधिकाधिक धन संग्रह में रत्त होने के कारण समाज के संतुलन के बिगड़ने की सम्भावना रहती है । सामान्य जन के लोभी हो जाने के कारण समाज में अशांति व्याप्त हो जायेगी। इसलिए समाज में शांति और सुख सामृध्य स्थापन हेतु लोगों में त्याग वृत्ति का होना भी आवश्यक है। यज्ञ में समान्य जनों के द्वारा भी अपनी सम्पति का महत्वपूर्ण अंग समाज कल्याण हेतु त्याग अर्थात दान कर दिए जाने की भावना थी और धन- सम्पति, अनाज, पशु, भूमि आदि यज्ञार्थ दान कर देने वाले दानवीरों की ऐसी अनेक कथाएं आज भी भारतवर्ष में प्रचलित हैं। दान से प्राप्त ऐसे धन व वस्तुओं का उपयोग सम्पूर्ण समाज के कल्याणार्थ व्यय करने की परिपाटी थी ।
बौद्धों और जैनियों के शासनकाल में अहिंसा के नियम को कठोरता पूर्वक लागू किये जाने के कारण धीरे-धीरे लोगों को उस नियम के अनुकूल ढलना पड़ा और विधर्मियों के द्वारा हमला किये जाने के काल में भीरुता दिखलाकर स्वयं को सुरक्षित करना हिन्दू धर्म का एक प्रमुख हिस्सा बन गया। वेदों में जिस अहिंसा की बात की गई है उसका अर्थ किसी भी जीव को अनावश्यक सिर्फ मनोरंजनार्थ मारना कदापि ठीक नहीं, लेकिन धर्म रक्षार्थ युद्ध अथवा किसी की हत्या धर्म युद्ध ही है। परन्तु भारतीय पुरातन ग्रन्थों में वर्णित इस सत्य को छुपाकर विधर्मी व विदेशी तत्व अपनी श्रेष्ठता कायम करने के लिए महाभारत और कुछ शब्दों के हेर फेर के साथ श्रीमद्भागवतगीता में आये श्लोक- अहिंसा परमो धर्म:,धर्म हिंसा तथैव च , में सिर्फ आधे श्लोक अर्थात अहिंसा के महत्व को प्रतिपादित कर धर्म के लिए मरने – मारने को उद्यत भारतीयों को भीरूता का पाठ पढ़ा बैठे हैं। वेदों के सत्य ज्ञान से वंचित होकर एकमात्र परमात्मा के स्थान अनेक देवी- देवताओं, मजार, कब्रगाहों के पूजन के कारण लोग मत- मतान्तरों में विभाजित होते गए और स्वार्थी तत्वों के द्वारा अपने को श्रेष्ठ साबित कर अधिकाधिक धन व पद पाने के लिए एक दूसरे पर कीचड़ उछालना और निम्नों को अछूत घोषित कर दिया गया, जो भारतवर्ष में छुआछूत के विकसित होने का अहम कारण बना ।
वैदिक ग्रन्थों में अंकित वर्ण व्यवस्था संसार के उत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था का उदाहरण है । इससे परिपालित भारतीय समाज ही संसार के सर्वोत्तम सभ्यता- संस्कृति में गिनी जाती थी । अमेरिका और यूरोप जैसे आज के साधन सम्पन्न देशों में गिने जाने वाले देशों में जब गुलाम प्रथा व्याप्त थी, उस समय भी भारतवर्ष में लोगों को कार्य उसके क्षमतानुसार अर्थात बांटकर दिया जाता था। खान -पान और सामूहिक सामाजिक उत्सवों में भागीदारी में स्वतंत्रता व सबके लिए समान थी । जिसके कारण सामान्य जन प्रसन्नतापूर्वक अपने कार्यों को निष्पादित किया करते थे, जो देश को विकास के मार्ग पर बढने और भारतवर्ष की गौरवमयी इतिहास का कारण बनी। जिसके कारण आज भी भारतवर्ष को विश्व गुरु के रूप में देखा जाता है। परन्तु कालान्तर में सत्य ज्ञान से वंचित होकर विभिन्न मतों के आग्रही होने आदि कारणों से उत्कृष्ट सामाजिक व्यवस्था अर्थात वैदिक वर्णव्यवस्था छुआछूत के विकास तथा जातियों में दूरी, जातिवाद का कारण बन गया। वेदों में पशु बध अथवा मांसाहार के प्रचलन का कोई वर्णन अंकित नहीं, लेकिन विधर्मी तत्व वेदों के कुछ मन्त्रों का उल्लेख कर हिन्दुओं में प्राचीन काल में पशु बध प्रचलित होने और मांसाहार करने का आरोप लगाते हैं, लेकिन यह सरासर झूठा व मनगढ़ंत आरोप है और सत्य तो यह है कि विदेशी – विधर्मियों के भारतवर्ष आगमन के पश्चात ही मांसाहार भी भारतवासियों का भोजन का मुख्य अंग बना।
सनातन धर्म शरीर से ऊपर की चीजें, यथा, मन, आत्मा और बुद्धि पर केंद्रित है। वेदों में आत्मा के तृप्ति, मन के शांति, बुद्धि के विकास, समाज की शांति, लोगों की प्रसन्नता आदि का वर्णन अंकित है। इस्लाम या ईसाई धर्मों में शरीर से संबंधित अधिक कानून देखने को मिलते हैं। शरीर तो जन्म लेता है, जवान होता है और बूढ़ा हो कर खत्म हो जाता। अतः इसमें छिपाने तथा धर्म के हस्तक्षेप की क्या जरूरत है ? मनुष्य तो सर्दी-गर्मी, बरसात आदि से बचाव हेतु कपड़े पहनता है, परन्तु बाद में लोगों ने इसे शारीरिक अंगों को छिपाने एवं लाज जैसे बंधन में बांधने वाली मानसिक कमजोरी से जोड़ दिया। इसीलिए सनातन धर्म में शरीर को ढकने, लाज करने, पर्दा करने जैसी बातें देखने को नहीं मिलती। स्त्री- पुरुष साथ खाते-पीते, नाचते-गाते थे। लेकिन शासक बनकर इस्लाम जब भारत आया, तो वह अपने क्रूर व नृशंस कारवाइयों से यहाँ के समाज को अपने अनुसार ढाल दिया। पर्दा प्रथा और लाज जैसी चीजें हिन्दू धर्म में इस्लाम की हीं देन है।भले ही मध्यकाल में हिन्दू शिव लिंग की पूजा करने वाला, कामदेव की आराधना करने वाला, खुले में शौच करने वाला, खुल्लेआम बगीचों में मदनोत्सव मनाने वाला और होली जैसे स्पर्श के त्योहार को मनाने वाला बन गया था, लेकिन इससे पूर्व ऐसा न था। इसमें कोई शक नहीं कि बाहरी धर्मों ने भारत के सनातन धर्म पर अपना प्रभाव छोड़ कर इसे आज के हिन्दू धर्म का रूप दिया।