ऐसे वैभवपूर्ण खण्डहरों को खोजकर हर अन्वेषणकत्र्ता इतिहासकार अथवा इतिहास के जिज्ञासु पाठक के मानस में मीठी-मीठी गुदगुदी होना स्वाभाविक है।
कुतुबुद्दीन की शक्ति का विस्तार
मौहम्मद गोरी के समय में भारत में उसके गवर्नर कुतुबुद्दीन की शक्ति में विशेष प्रभाव उत्पन्न हो गया था। उसने कई स्थानों पर देशी राजाओं पर जिस प्रकार अत्याचार ढहाए थे उससे इस्लामिक जगत में उसे इस्लाम का सच्चा सेवक होने का प्रमाणपत्र तो मिल गया था परंतु भारत में लोग उसे घृणा से ही देखते थे। क्योंकि उसने भारतीयों के साथ अत्याचार, दमन और शोषण का ही दृष्टिकोण अपनाया था।
राजा भीम का पराक्रम
1179 ई. में गुजरात के शासक भीम ने मुस्लिम आक्रांताओं को अच्छी प्रकार से धोया था। उस पराजय को विदेशी तुर्क आक्रांता देर तक सहलाते रहे। उनका साहस भारत के इस गुर्जर प्रदेश की ओर देखने तक के लिए अगले बीस वर्ष तक नही हुआ। परंतु धन, पद, प्रतिष्ठा यदि लूट में ही मिलती हों तो ये किसी तुर्क को बुरी नही लगने वाली थीं। इसलिए लालच बढ़ा और स्वयं को गाजी कहलानेे की उनकी इच्छा बलवती हुई तो हिंदू काफिरों को मारकाट कर उनकी धन संपदा लूटने की इच्छा के साथ कुतुबुद्दीन ने 1197 में भारत के इस गुर्जर प्रदेश पर पुन: आक्रमण कर दिया।
वीर मेडज़ाति
इससे पूर्व मेडज़ाति के कुछ वीर हिंदू देशभक्तों ने कुतुबुद्दीन को देश से बाहर कर देने की योजना पर काम करते हुए नाहरवाला के शासक से मिलकर उस पर चढ़ाई करनी चाही तो उनकी इस योजना को असफल करने के उद्देश्य से कुतुबुद्दीन ने स्वयं ही उनपर 1195 ई. में चढ़ाई कर दी। फिरिश्ता हमें बताता है कि कुतुबुद्दीन ने चढ़ाई तो कर दी परंतु वह इन हिंदू वीरों का सामना नही कर सका। युद्घ में हिंदू वीरों ने अपूर्व शौर्य और वीरता का प्रदर्शन किया। फलस्वरूप (ब्रिग्स जिल्द 1 पृष्ठ 180 फिरिश्ता के अनुसार) मुसलमानों की सेना में भगदड़ मच गयी। भगदड़ में कुतुबुद्दीन का घोड़ा घायल होकर गिर गया था, तब उसे बड़ी कठिनता से उसके सैनिकों ने दूसरे घोड़े पर बैठाया और कुतुबुद्दीन ने भागकर अपनी जान बचाई। हिंदू वीरों ने अजमेर तक कुतुबुद्दीन का पीछा किया और उसे नगर में भीतर ही छिप जाने के लिए बाध्य कर दिया। मारे भय के कई माह तक कुतुबुद्दीन घर से बाहर नही निकल सका था।
कुतुबुद्दीन ने मांगी सहायता
अपनी असहाय अवस्था देखकर कुतुबुद्दीन ने गजनी सूचना भेजी कि उसे भारतीय हिंदू वीरों की अपने देश से बाहर निकालने की प्रतिशोधात्मक गतिविधियां कितने बड़े स्तर पर कार्य कर रही हैं, और इन परिस्थितियों में उसका भारत में रूकना कठिन होता जा रहा है। हिंदू वीरों की इस प्रतिशोधात्मक युद्घनीति को समझकर गजनी से एक विशाल सेना कुतुबुद्दीन की सहायतार्थ भेजी गयी। कुतुबुद्दीन नाहरवाला (अन्हिल वाड़) के छोटे से ‘राय’ के इस साहस से जला भुना बैठा था कि वह मुट्ठी भर हिंदू वीरों को लेकर ही कुतुबुद्दीन को ‘नानी याद’ दिला गया था।
हिंदू वीर रामकरण और धारावर्ष की वीरता
अत: गजनी से विशाल सेना के पहुंचते ही कुतुबुद्दीन ने नाहरवाला को ध्वस्त करने के उद्देश्य से उस पर 1197 में चढ़ाई कर दी। बताया जाता है कि कुतुबुद्दीन का सामना करने के लिए गुजरात की हिंदू सेनाएं रामकरण और धारावर्ष नाम के दो हिंदूवीरों के नेतृत्व में आबू के नीचे एक दर्रे के मुंह पर युद्घ के लिए आ खड़ी हुईं। संयोग की बात थी कि जहां ये हिंदू वीर अपनी सेना को लिए खड़े थे, ये वही काशहद का मैदान था जहां 1178 ई. में मुहम्मद गोरी को हिंदुओं ने अपमान जनक पराजय दी थी।
पुरानी पराजय की स्मृतियों से घबरा गयी थी तुर्क सेना
तुर्क सेना जब इस युद्घ क्षेत्र में पहुंची तो उसे अपनी पुरानी पराजय की कटु स्मृतियों ने आकर घेर लिया था। तुर्क सेना का मनोबल दूर गया था, उसका साहस हिंदू सेना से लडऩे का नही हो रहा था। ‘तबकाते नाशिरी’ का मुस्लिम लेखक इस घटना का निराशाजनक वर्णन प्रस्तुत करता है कि ‘मुसलमान उस समय अत्यंत भयभीत थे’। 1178 ई. और 1195 ई. के दो उदाहरण तुर्क सेना के सामने थे जिनमें हिंदू वीरता ने तुर्कों के छक्के छुड़ाए थे। 1178 ई. के युद्घ की हिंदू वीरता का वर्णन करने वाले बहुत से तुर्क सैनिक अभी भी जीवित रहे होंगे, जो तुर्कों को हिंदुओं की वीरता के किस्से कहानी बता रहे होंगे। इसलिए तुर्क सेना युद्घ के लिए आकर खड़ी तो हो गयी, पर वह युद्घ करने के लिए हिंदू सेना पर पहले आक्रमण करने का साहस नही कर पा रही थी।
हम आदर्शों में बंध गये
उधर हिंदू सेना अपने आदर्शों की रस्सी में अपने हाथ में बांधे खड़ी थी। वह दरवाजे पर युद्घ के लिए पहुंची मुस्लिम सेना प पहले आक्रमण करना ‘पाप’ मानती थी। दूसरे यह भी पता चलता है कि मुस्लिम तुर्क सेना के भयभीत होने की सूचना का ज्ञान भी हमारे हिंदू वीरों को हो गया था। इसलिए देश का दुर्भाग्य रहा कि हमारे वीरों ने अपने आदर्शों की रक्षार्थ तुर्क सेना पर पहले आक्रमण करना उचित नही माना। फलस्वरूप उन्हें आलस्य और प्रमाद ने घेर लिया। समय बीतता गया और तुर्क सेना हमारे लोगों के आदर्श को समझती गयी कि ये पहले आक्रमण नही करेंगे, इसलिए वह ऐसे अवसर की प्रतीक्षा में रहने लगी कि जब ये हिंदू लोग सर्वाधिक प्रमाद में होंगे, तब इन पर अचानक आक्रमण कर दिया जाएगा। इस प्रतीक्षा में उनका डर धीरे-धीरे निकलता जा रहा था और हमारे लोगों का अद्वितीय शौर्य धीरे-धीरे प्रमाद के घेरे में घिरता जा रहा था।
अंत में एक दिन ऐसा समय आ गया कि जब हम पर तुर्क सेना ने अचानक धावा बोल दिया। हमारे सैनिक संभले भी नही थे कि उन्हें आकर मुस्लिम तुर्क सेना ने चारों ओर से घेर कर मारना, काटना आरंभ कर दिया। ‘तबकाते नासिरी’ का लेखक हमें बताता है कि मुसलमान सेनाएं हिंदुओं पर टूट पड़ीं। हिंदू सेना कुछ देर तक तो लड़ी पर बाद में भागने लगी। वह हमें बताता है कि इस युद्घ में पचास हजार सैनिक मारे गये और बीस हजार हिंदू कैद कर गुलाम बना लिये गये।
दो बातें चिंतनीय
इस युद्घ में हम दो बातों पर विचार करें। एक तो ये कि यदि हमारा प्रमाद या पहले आक्रमण न करने का आदर्श हमारे आड़े न आता और मुस्लिम तुर्क सेना छल करते हुए आक्रमण न करती तो परिणाम क्या होता? निश्चित रूप से युद्घ का मैदान हिंदू वीरों के हाथ होता। दूसरे पराजित होने पर भी जो पचास हजार लोग मरे या जो बीस हजार लोग कैदकर गुलाम बनाये गये, उन्होंने अपना बलिदान किसके लिए दिया? क्या वह बलिदान देशधर्म के लिए नही था? निश्चित रूप से था। इसलिए इस बलिदान को वीरता का एक स्मारक मानकर ही पूजित करना अपेक्षित है।
पर इस युद्घ की चर्चा जयसिंह सूरिकृत ‘हमीरमदमर्दन’ में कुछ दूसरे ढंग से मिलती है। वहां इस आक्रमण में मुस्लिम सेना केा पीछे हटाने का श्रेय वीरधवल नामक हिंदूवीर को दिया गया है। इससे तो यह लगता है कि अंतत: इस युद्घ में भी मुस्लिम सेना को पीछे हटना पड़ा था। यह संदेह तब और भी बढ़ जाता है, जब इस युद्घ के विषय में फिरिश्ता और तबकाते नासिरी के वर्णनों में पर्याप्त अंतर मिलता है।
ऐसी परिस्थिति में सत्य का अनुसंधान कर वास्तविक तथ्य का मंडन किया जाना भी आवश्यक हो जाता है। साक्ष्यों से यह स्पष्टहोता है कि अन्हिलवाड पर मुसलमानों ने थोड़े समय के लिए अधिकार कर भीम की सेनाओं का सोमनाथ और खम्भात की ओर दूर तक पीछा किया, किंतु उसमें उन्हें मुंह की खानी पड़ी और अन्हिलवाड़ भी छोडऩा पड़ा। यह तथ्य सोमेश्वर की दभोय प्रशस्ति से स्पष्टहोता है।
जिसमें यह भी बताया गया है कि अन्हिलवाड़ पर 1201 ई. में ही भीम ने अपना अधिकार कर लिया था। भीम के इस प्रयास से अगले सौ वर्षों तक गुजरात पर आक्रमण करने का साहस किसी भी मुस्लिम आक्रांता का नही हुआ।
यदि युद्घ की ‘लूट’ के लिए कोई आक्रांता बार-बार भारत की ओर आ रहा था और उसके उस दुस्साहस को कितनी ही बार की पराजय के उपरांत भी साहसिक सिद्घ करने का प्रयास किया जाना भारतीय इतिहास में उचित माना गया है, तो परास्त होकर फिर विजय के लिए उठ खड़ा होना या विजय के लिए सतत संघर्ष करते रहने वाले ‘भीमों’ या उनके द्वारा देश की सीमाओं की ऐसी सुरक्षा करना कि उधर को सौ-सौ वर्ष तक विदेशी झांककर देखने का भी साहस न जुटा पाए-ये कृत्य वीरता पूर्ण देशभक्ति में क्यों नही गिना जाना चाहिए?
इतिहास के एक दो नही, अपितु अनेकों उदाहरण हैं कि जब हमारी सेना चाहे किसी भी परिस्थिति में परास्त हो गयीं, तो पराजय से उपजे उस राष्ट्रीय अपमान भाव को धोने के लिए लोगों ने प्राणपण से कार्य किया और तब तक चैन की सांस नही ली जब तक कि उस राष्ट्रीय अपमान भाव को मिटा नही दिया। संघर्ष की इस अदभुत और अतुलनीय वीर परंपरा को अपनी कार्यरता नही वीरता के रूप में ही पूजित करना हम सब भारतीयों का परम कत्र्तव्य है।
मुख्य संपादक, उगता भारत