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तिब्बत : चीखते अक्षर, भाग- 1

तिब्बत भूमि
तिब्बत क्षेत्र तीन प्रांतों आम्दो (Amdo), खाम (Kham) और सांग (U-Tsang) से मिल कर बनता है। यह तिब्बती भाषा बोलने वाले और अपनी पारम्परिक संस्कृति को जीने वाले लोगों का देश है। इसका क्षेत्रफल लगभग 25 लाख वर्ग किलोमीटर है जो भारत के क्षेत्रफल के दो तिहाई से भी अधिक है। समुद्र तल से इसकी औसत ऊँचाई 3650 मीटर है और यह चार पर्वतमालाओं हिमालय, काराकोरम, कुनलुन और अल्त्या-ताघ (Altya-tagh) से घिरा हुआ है। पूर्व से पश्चिम की ओर इसकी लम्बाई 2500 किलोमीटर है। यह एशिया की कई महान नदियों जैसे यांग्त्सी, मीकोंग, ब्रह्मपुत्र और सालवीन का उद्गम क्षेत्र है। तिब्बत का बहुलांश निर्जन पर्वतीय और मैदानी जंगली क्षेत्र है जब कि अधिक उपजाऊ दक्षिणी क्षेत्र में खेती बाड़ी होती है जिसकी औसत ऊँचाई 4500 मीटर से घटती हुई 2700 मीटर तक आती है।


दूरवर्ती और अलहदा से क्षेत्र होने के कारण तिब्बत के पूर्वी और उत्तरी भागों में मुख्यत: चरवाहा और घुमंतू अर्थव्यवस्था विकसित हुई लेकिन नदी घाटियों और ऊष्णतर दक्षिणी क्षेत्रों में एक व्यवस्थित और व्यापक आधार वाली खेतिहर अर्थव्यवस्था का चलन हुआ।
तिब्बती जन
तिब्बती लोगों का मूल अज्ञात है लेकिन एच.ई. रिचर्डसन के अनुसार वैज्ञानिक तौर पर इन्हें चीनी नहीं कहा जा सकता और पिछ्ले दो हजार या उससे अधिक वर्षों से चीनी इन्हें अलग नृवंश का मानते आये हैं। सम्भवत: तिब्बती लोग ग़ैर-चीनी घुमंतू जनजाति चियांग (chiang) के वंशज हैं या पूर्ववर्ती यूराल-अल्ताइक (Ural-Altaic) जनजाति के। यह ध्यान देने योग्य है कि चीनी के विपरीत तिब्बती भाषा चित्रलिपिहीन भाषा है जो कि चीनी-थाई भाषा परिवार के बजाय तिब्बत-बर्मी भाषा परिवार से सम्बद्ध है।

भू-उपयोग
1949 में चीनी आक्रमण के पहले तक तिब्बत में खेती और अन्न उत्पादन की विधियाँ संतुलन और सहज बुद्धि पर आधारित थीं। पाश्चात्य सोच आधारित प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध शोषण नहीं था और हाल के वर्षों तक तिब्बत में अकाल अज्ञात था। पहाड़ी क्षेत्रों में वनस्पतियाँ अत्यल्प हैं लेकिन तिब्बत के दक्षिण स्थित नदी घाटियों में तिब्बतियों के मुख्य भोजन जौ के अलावा मटर, बीन्स और फाफरा की अधिकायत में उपज होती है जहाँ भूमि के बड़े भाग उसकी उपज क्षमता बढ़ाने के लिये परती छोड़ दिये जाते थे।
तिब्बती समाज मूलत: घुमंतू था लेकिन शनै: शनै: एक ऐसी व्यवस्था में परिवर्तित होता गया जिसमें सकल भूमि तो राज्य की थी लेकिन टुकड़ों में इसका स्वामित्त्व सरकार, मठों और संभ्रांत वर्ग के पास बँटा था। किरायेदार किसान उन पर खेती करते थे जिनमें बहुतेरों की निष्ठा भूस्वामी से बँधी होती थी लेकिन उनकी भूस्वामी-करदाता सम्बन्ध की अनगिनत परिपाटियाँ कहीं से भी ‘भू-दासत्त्व’ या ‘दासत्त्व’ की अवधारणाओं से नहीं जुड़ती थीं। अन्य बहुत सी जीवन शैलियाँ प्रचलित थीं जैसे – घुमंतू होना, व्यापार करना, अर्ध-घुमंतू होना, शिल्पकारी। खाम और अम्दो (पूर्वी तिब्बत) प्रांतों में जहाँ कुछ बड़े भू-एस्टेट पाये जाते थे और जहाँ कृषक स्वामित्त्व वाले बड़े खेत भी थे, व्यक्तिगत भूस्वामित्त्व वाले जन अधिक थे जो सीधे सरकार को कर देते थे।
कुछ का कहना है कि भूदासत्त्व और दासता जैसे शब्द चीनियों द्वारा तिब्बत पर 1949 से शुरू किये गये उनके सशस्त्र आक्रमणों और आधिपत्य को न्यायसंगत ठहराने के लिये गढ़े गये। चीनियों द्वारा भूदास बताई गई तिब्बती महिला डी चूडॉन, अपने स्वयं के लेखन से चीनियों के दावे को सन्दिग्ध बनाती हैं। उनके लेखन से एक कमोबेश आत्मनिर्भर और आसान जीवनशैली का चित्र उभरता है। उन्हों ने लिखा है कि हमें अपने जीवनयापन में किसी कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता था और हमारे इलाके में एक भी भिखारी नहीं था।
बहुतेरों द्वारा तिब्बत पर चीनी शासन के प्रति सहानुभूति रखने वाला बताये गये सम्वाददाता क्रिस मुलिन द्वारा भी चूडॉन का लेखन पूर्णत: विश्वसनीय बताया गया है। तिब्बत गये विभिन्न यात्रियों जैसे मे, डेविड नील, जॉर्ज एन पेटरसन और हेनरिक हर्रेर ने भी चूडॉन के प्रेक्षण का सामान्यत: समर्थन किया है।

तिब्बत-चीन सम्बन्ध:
तिब्बत और चीन का सम्बन्ध दो हजार से भी अधिक वर्षों से है। लोगों को सामान्यत: यह पता नहीं है कि सातवीं सदी के तिब्बती सम्राट सोंग-त्सेन गाम्पो के शासनकाल में तिब्बतियों ने एक बहुत बड़ा साम्राज्य विकसित कर लिया था। यह साम्राज्य उत्तर में चीनी तुर्किस्तान तक एवं पश्चिम में मध्य एशिया तक और स्वयं चीन में भी फैला हुआ था। 763 ई. में तिब्बतियों ने तत्कालीन चीनी राजधानी सियान पर अधिकार कर लिया लेकिन दसवीं शताब्दी तक तिब्बती साम्राज्य ढह गया। फलत: तिब्बत की राजनैतिक सीमाओं के बाहर भी बहुत से तिब्बती बचे रह गये। अगले लगभग तीन सौ वर्षों तक चीन के साथ तिब्बत का सम्बन्ध अत्यल्प ही रहा।
चीनियों का यह दावा कि तिब्बत हमेशा से चीन का भाग रहा है, उस काल से उपजता है जब तिब्बत और चीन दोनों मंगोल साम्राज्य के अंग थे। बारहवीं शताब्दी में मंगोलों ने अपना प्रभाव बढ़ाना प्रारम्भ किया और अविजित रहते हुये भी तिब्बत ने 1207 में समर्पण कर दिया जब कि 1280 के आसपास चीन मंगोलों द्वारा रौंद दिया गया। मंगोल शासनकाल एकमात्र समय था जब चीन और तिब्बत दोनों एक ही राजनीतिक सत्ता के अधीन थे। तिब्बतियों ने स्वयं को 1358 में मंगोल आधिपत्य से मुक्त कर लिया। जब एक आंतरिक संघर्ष में चांगचुब ग्याल्तसेन ने साक्य मंत्री वांग्त्सन वांग्त्सेन से सत्ता छीन ली तो उसने मंगोलों से सारे सम्बन्ध समाप्त कर दिये और एक नये वंश फाग्मो द्रूपा की नींव डाली।
इस घटना के दस वर्ष बाद 1368 में चीनी मंगोलों को भगा पाये और उन्हों ने देसी ‘मिंग वंश’ की स्थापना की। ऐसा प्रतीत होता है कि तिब्बत पर अपना अधिकार जताते चीनियों ने उसी विस्तारवादी और साम्राज्यवादी मंगोल शासन से सीख ली जिसे उन्हों ने अंतत: उखाड़ फेंका था। कभी कभी यह कहा जाता है कि चीनियों के तर्क से तो भारत को भी बर्मा पर अपना दावा जताना चाहिये क्यों कि भारत और बर्मा दोनों कभी ब्रिटिश सत्ता के अधीन थे!
इतिहास के विरूपण की प्रवृत्ति परवर्ती मिंग और चंग वंश के समकालीन चीनी इतिहासकारों के लेखन में पाई जाती है जिन्हों ने तिब्बत को चीन का एक ‘अधीनस्थ सामन्त राज्य’ बताया है। ऐसे दावे इन तथ्यों के प्रकाश में परखे जाने चाहिये कि चीनियों ने समय समय पर हॉलैंड, पुर्तगाल, रूस, पोप तंत्र और ब्रिटेन पर भी उन्हें सहयोगी राज्य बताते हुये दावे जताये हैं।

तिब्बत : चीखते अक्षर (2)
सम्राट कांग ह्सी (K’ang Hsi), जो कि चीनी न होकर एक मध्य एशियाई था, द्वारा सन् 1720 में तिब्बती मामलों में किये गये हस्तक्षेप के आधार पर चीन द्वारा तिब्बत पर आगे के दावे किये गये हैं। तिब्बत पर तथाकथित दो सौ वर्षों का चीनी आधिपत्य इसी शासक की देन है। सैन्य विजयों और बलात कूटनीति के द्वारा इसी काल में चीनियों ने पूर्वी तिब्बत विशेषकर खाम और आम्दो पर मामूली नियंत्रण कर लिया। इन क्षेत्रों लगभग पूरी तरह से तिब्बती मूल निवासी ही रह रहे थे। इन क्षेत्रों के बड़े भागओं पर तिब्बतियों ने 1865 में पुन: अधिकार कर लिया। ये क्षेत्र 1911/12 में पुन: चीनी आधिपत्य के शिकार हुये लेकिन लम्बे और अति वीभत्स लड़ाई के बाद तिब्बतियों ने उन्हें फिर से कुछ ही वर्षों में वापस भगा दिया। इसके पहले सन् 1790 में चीनियों ने पुन: हस्तक्षेप किया था जब चीनी राजप्रतिनिधियों (अम्बान) ने तिब्बती राजधानी ल्हासा में अपना निवास बनाया। लेकिन उनकी शक्ति बहुत तेजी से समाप्त हो गई।
प्रख्यात तिब्बती विद्वान प्रोफेसर डेविड स्नेल्लग्रोव ने वैज्ञानिक बौद्ध संगठन को प्रेषित अपनी समीक्षा यह में लिखा:
पुराने अधिकार के तर्क के आधार पर तो ब्रिटिश सत्ता को कभी भारत एवं दक्षिणी आयरलैंड से नहीं जाना चाहिये था और फ्रांसीसियों को उत्तरी अफ्रीका को कभी नहीं छोड़ना चाहिये था।
प्रोफेसर ने तिब्बत-चीन और आयरलैंड-ब्रिटेन सम्बन्धों में कई असाधारण समानतायें भी दर्शाईं। तिब्बती मामलों के ऐतिहासिक तथ्य एक नैराश्यपूर्ण लेकिन परिचित सचाई को स्पष्ट करते हैं, वह है बड़ी सत्ता का छोटी सत्ता के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप।
तिब्बती मामलों में जिस एक और साम्राज्यवादी शक्ति ने हस्तक्षेप किये, वह थी – ब्रिटिश सत्ता। अट्ठारहवीं सदी के दूसरे अर्धांश में हिमालय से लगे क्षेत्रों में ब्रिटिश प्रभुत्त्व फैलने लगा। 1904 के यंगहसबैंड अभियान के अलावा 3200 किमी. लम्बी भारत-तिब्बत सीमा कमोबेश शांत रही। सीमा के दोनों ओर सेनाओं की तैनाती बहुत कम थी। ऐसा लगता है कि ब्रिटिश साम्राज्य के कई अफसरों ने तिब्बत पर चीनी दावे की किंकर्तव्यविमूढ़ अभिस्वीकृतियाँ दी हैं। हालाँकि 19 वीं सदी के अंत में चीन के साथ विभिन्न सामरिक और व्यापारिक समझौतों के दौरान उन्हें लग गया कि तिब्बती विरोध के कारण ऐसे समझौते लागू नहीं किये जा सकते। उन्हें इसका पता लग गया कि चीन चाहे जो कहे, उसका तिब्बत में प्रभाव बहुत ही सीमित था।
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में चीन और तिब्बत के सम्बन्ध खराब होते गये। आशिंक रूप से ऐसा सम्भावित रूसी प्रभाव को रोकने के मद्देनजर 1904 में ल्हासा भेजे गये ब्रिटिश साम्राज्यवादी अभियान के कारण हुआ। ब्रिटिश अभियान ने वह असन्तुलनकारी प्रभाव छोड़ा जिसका एक मुख्य परिणाम तिब्बत और चीन के बीच बढ़ी शत्रुता के रूप में आया। चीनियों द्वारा 1909 में अधिकृत किये गये पूर्वी तिब्बती क्षेत्रों खाम और आम्दो में जब जनसामान्य विद्रोह उठ खड़ा हुआ तो 1910 के फरवरी में चीनी जनरल चाओ ह्र-फंग की सेनाओं ने ल्हासा में प्रवेश किया और विद्रोह का बर्बर दमन किया। चीनी जनरल स्वयं चाम्दो में ही रहा। उसकी सेना में चीनी और मंचू सैनिकों के बीच गहरे तनाव थे जो 1911 में मंचू वंश के पतन के पश्चात खुले आपसी संघर्ष में परिणत हो गये। कोई सैन्य सहायता न होने पर भी तिब्बतियों ने चीनियों को उखाड़ फेंका और चीनी जनरल द्वारा अधिकृत अधिकांश क्षेत्र वापस ले लिये।
भारत में अपने संक्षिप्त निर्वासन के पश्चात जब तेरहवें दलाई लामा ल्हासा लौटे तो उन्हों ने और तिब्बती राष्ट्रीय असेम्बली ने चीन से तिब्बत की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। घुसपैठी चीनी सेनाओं को पूर्वी तिब्बतियों ने 1919 और 1930 में मार भगाया।
3 जुलाई 1914 के शिमला समझौते में तिब्बती स्वतंत्रता की पुष्टि हुई जिसे चीनियों ने तुरंत नकार दिया क्यों कि वे लोग पूर्वी तिब्बत के सद्य: विजित बहुलांश को छोड़ना नहीं चाहते थे। दोनों बचे हुये पक्षों, तिब्बत और ब्रिटिश भारत, ने तिब्बत में चीनियों के अधिकार और विशेषाधिकारी दावों को निरस्त कर दिया। अगले 38 वर्षों तक तिब्बत चीन से पूरी तरह से स्वतंत्र रहा।

तिब्बत पर चीनी हमला – 1949:
7 अक्टूबर 1950 को नवस्थापित पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की सेनाओं ने तिब्बत पर दुतरफा आक्रमण कर दिया। कम्युनिस्टों के चीन में सत्ता में आने से पहले ही इसकी सशस्त्र सेनाओं ने पूर्वी तिब्बत के बड़े भूभाग में घुसपैठ कर लिया था। खाम और आम्दो के समस्त सीमा क्षेत्र में चीनी सेनाओं के साथ भारी लड़ाई जारी थी और भूभाग का ज्ञान न होने के कारण चीनी सेनायें विराट तबाही झेल रही थीं। उन्हें तिब्बती प्रतिरोध दलों ने जहाँ के तहाँ रोक रखा था।
लेकिन जब कम्युनिस्ट सत्ता में आये तो उन्हों ने लड़ाई में सैन्य बलों, शस्त्रास्त्र और साजो सामान की भारी बढ़ोत्तरी की। तिब्बत की तथाकथित ‘मुक्ति’ – जैसा कि वे साम्राज्यवादी कहते आये थे – उनकी प्राथमिकता सूची में उच्च स्थान पर थी। चीनी कम्युनिस्टों ने घोषित किया कि तिब्बत चीन का अविभाज्य भाग था और ‘प्रतिक्रियावादी दलाई गुट’ और विदेशी ‘साम्राज्यवादी’ शक्तियों के चंगुल से उसे ‘मुक्त’ किया जायेगा।
जो इतिहास से नहीं सीखते वे इतिहास बन जाने को अभिशप्त होते हैं। क्या आप को अरुणांचल प्रदेश में गाहे बगाहे होती चीनी घुसपैठों की तिब्बत में चीन की प्रारम्भिक हरकतों से साम्यता नहीं दिखती? चीनी एजेंडा क्या है – इसकी भनक लगी कि नहीं? कम्युनिस्टों ने अपने से अलग तंत्रों और व्यक्तियों को श्रेणीबद्ध करने के लिये अनेक शब्द गढ़े हैं जिनमें ‘प्रतिक्रियावादी’ भी एक है। उल्लेखनीय है कि भारतीय लोकतंत्र को माओवादी ‘प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी तंत्र’ भी कहते हैं। दलाई लामा के शासन को वे क्या कहते थे? ‘प्रतिक्रियावादी दलाई गुट’। दिमाग में घंटियाँ बजी कि नहीं?
…….क्रमशः
✍🏻गिरिजेश राव

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