तिब्बत, चीखते अक्षर : अपनी बात
मार्क्सवाद चिंतन की एक द्वन्द्ववादी, भौतिकवादी पद्धति है जिसका उद्देश्य सामंतवाद-पूँजीवाद-समाजवाद से आगे साम्यवादी समाज की स्थापना है जहाँ ‘सब बराबर’ होते हैं। अपनी सुव्यवस्थित, निर्मम और बराबरी की रोमान्टिक अवधारणा के कारण मार्क्सवाद सदा से ही युवा वर्ग को आकर्षित करता रहा है और रहेगा। भाववादी चिंतन के विपरीत यह मनुष्य के विकास और कल्याण के लिये मनुष्य को ही पर्याप्त मानता है, ईश्वर को नकारता है और धर्म को अफीम की संज्ञा देता है जो सोचने की तार्किक क्षमता को कुन्द कर देता है। वर्गसंघर्ष और क्रांति मार्क्सवाद के उद्देश्यप्राप्ति हेतु अस्त्र हैं।
मार्क्स के अलावा ऐसे चिंतन के और भी ‘वैरियेंट’ रहे हैं, जैसे – ‘बन्दूक की बैरल से क्रांति उगलता’ माओवाद, उत्तर कोरिया में किम-इल-सुंग की ‘चुच्चे (juche)’ चिन्तन पद्धति आदि। कुछ लोग पहली क्रांति (रूस, सोवियत संघ) के जनक के नाम से लेनिनवाद को भी कुछ अंतरों के कारण अलग मानते हैं। सर्वहारा(उत्पादन के स्रोतों से वंचित और श्रम को बेच कर जीने वाला वर्ग) की निरंकुशता का प्रतिपादन करने वाले इस चिन्तन ने इतिहास में दो बड़ी क्रांतियाँ कीं – रूस की क्रांति और चीन की क्रांति। राज्य के शोषण, दमन और निरंकुशता के विरुद्ध खड़ा यह स्वघोषित ‘लोकतांत्रिक’ आन्दोलन जब सत्ता में आया तो कई गुना दमनकारी हो गया। सोवियत संघ में स्टालिन ने हिटलर से भी अधिक लोगों को लम्बी यातनायें देकर मरवा दिया। चीन के साम्राज्यवादी कारनामें और दमन तो जग जाहिर हैं ही।
ईश्वर को पूर्णत: नकारने वाले और मानव मेधा की वकालत करने वाले मार्क्सवादियों के लिये मार्क्स या माओवादियों के लिये माओ स्वयं किसी ईश्वर से कम नहीं। अन्धानुसरण से वैचारिक असहिष्णुता आती है जिसकी चरम परिणति उसी जन के दमन में होती है जिसके कल्याण के लिये क्रांतियाँ की जाती हैं। वैचारिक अतिवाद कितना घातक हो सकता है, इसका ज्वलंत उदाहरण है – तिब्बत। माओ के लालों ने तिब्बत में यातना, दमन, विनाश और हत्याओं का जो नंगा नाच किया वह छिपा नहीं है। फिर भी अन्धसमर्थक और मस्तिष्क को मार्क्स/माओ जैसे ‘ईश्वरों’ के यहाँ गिरवी रखे लोग चीन के तंत्र को ‘राज्य नियंत्रित पूँजीवाद’ और सोवियत तंत्र को ‘सुविधाभोगी समझौतावादियों का तंत्र’ बता कर जनता को उन क्षेत्रों में मूर्ख बनाते रहे हैं जहाँ तथाकथित ‘क्रांतियाँ’ नहीं हुई हैं लेकिन उसकी सम्भावनायें पूँजीवादी शोषण तंत्र के कारण परिपक्व हैं। इनके हर तंत्र जनविरोधी साबित हुये हैं फिर भी ये बराबरी के ‘स्वर्णयुग’ के सब्जबाग दिखाने में लगे हुये हैं। वे इस तथ्य को भुला चुके हैं कि प्रगति की मौलिक शर्त है – वैचारिक कार्मिक स्वतंत्रता। व्यक्ति, समाज और परिवेश के आपसी आदान प्रदान और द्वन्द्व की स्थिति में विचार स्थैतिक नहीं रह सकते। अगर रहेंगे तो अन्तत: निरंकुश क्रूर दमन को ही जन्म देंगे चाहे उनके कारक सामंतवादी हों, पूँजीवादी हों या साम्यवादी हों। पिसेगा मनुष्य ही।
तिब्बत केन्द्रित प्रस्तुत अनुवाद अलग किस्म के इन मठाधीशों की करनी को उजागर करता है। एक पूरी सभ्यता को माओवादियों ने न केवल नष्ट भ्रष्ट कर दिया बल्कि अपार जनहानियाँ भी कीं। ‘स्वर्णिम युग’ के लिये भारत के जंगलों और गाँवों में क्रांति के नाम पर लूट और भयदोहन करने वाले मानवता के अपराधी सत्ता हाथ में आने पर कितने नीचे गिर सकते हैं, यह दस्तावेज उसकी झाँकी है।
चीनी कम्युनिस्ट शक्तियों द्वारा तिब्बत पर सशस्त्र क़ब्जा और एक प्राचीन बौद्ध संस्कृति का विनाश आधुनिक समय की सबसे भयानक त्रासदियों में से एक है। पिछ्ले कुछ वर्षों में विभिन्न क्षेत्रों से तिब्बत समस्या को पर्याप्त प्रचार प्रसार मिला है और यह समस्या बहुत तेजी से अंतरराष्ट्रीय समस्या बनती जा रही है। इसे जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग के आगे प्रस्तुत किया गया है।
तिब्बत की समस्या तत्काल ध्यान माँगती है क्यों कि हजार के हजार चीनी तिब्बत में प्रवेश कर रहे हैं और तिब्बतियों की विशिष्ट ‘जन, संस्कृति और धर्म समूह’ पहचान के ऊपर विलीन होने और पूर्णत: नष्ट हो जाने का अभूतपूर्व खतरा मँडरा रहा है।
बहुत पहले 1959 में ही, विधिवेत्ताओं के अंतरराष्ट्रीय आयोग ने अपनी रिपोर्ट ‘तिब्बत और विधि-शासन के प्रश्न’ में उल्लिखित किया कि वहाँ जातिसंहार (genocide) के आपराधिक वृत्ति प्रयोजन ( mens rea) और आपराधिक कदाचार (actus reus), दोनों प्रमाण पाये गये। इस रिपोर्ट के अनुभाग ‘जातिसंहार का प्रश्न’ के अंतिम अनुच्छेद में यह लिखा गया: “… इसलिये यह आयोग आग्रहपूर्ण आशा करता है कि यह मामला संयुक्त राष्ट्र संगठन द्वारा तत्काल उठाया जायेगा। क्यों कि इस समय जो जातिसंहार के प्रयास की तरह लग रहा है वह तत्काल और पर्याप्त कार्यवाही के अभाव में पूर्ण जातिसंहार के कृत्य में बदल जायेगा। तिब्बत का अस्तित्त्व और तिब्बतियों का जीवन दोनों दाँव पर लगे हैं और विश्व के सर्वोच्च अंतर्राष्ट्रीय संगठन के मार्फत सच का खुलासा करने योग्य पर्याप्त नैतिक शक्ति शक्ति संसार में कहीं न कहीं अवश्य बची होगी।“
यह दुखद है कि तिब्बती लोगों के लिये आयोग द्वारा व्यक्त की गई आशंका लगभग भविष्यवाणी ही साबित हुई क्यों कि चीन ने एक क्रूर और सुनियोजित कार्यक्रम के तहत पूरे तिब्बत में फैले हजारो बौद्ध मठों को लूटा और नष्ट कर दिया, छोटे बच्चों को जबरन चीन की ओर निर्वासित किया, बोदे बहाने बना कर अंधाधुन्ध बड़े नरसंहार किये और स्त्रियों पुरुषों दोनों के जबरन बन्ध्याकरण किये। इस अभियान में मुख्य निशाना धार्मिक व्यक्तित्त्वों जैसे भिक्षु, भिक्षुणी और नाग्पा (तांत्रिक) आदि पर था। जिनकी हत्या कर दी गई उनमें सर्वोत्तम विद्वान भी सम्मिलित थे और छ्ठे और प्रारम्भिक सातवें दशक में एक समय ऐसा आया कि पूरे तिब्बत में कहीं एक भी भिक्षु नहीं दिखता था। तिब्बत के धार्मिक समुदाय का विनाश कम्पूचिया के पोल पॉट शासन की याद दिलाने वाली क्रूरता और सम्पूर्णता के साथ किया गया।
हालाँकि तीन अलग अलग अवसरों पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने तिब्बत में मानवाधिकार हनन के बारे में अपनी गहरी चिंता जताई लेकिन उस समय इसके आगे जाने में असमर्थ रहा। फिर भी, हम यह तर्कसंगत विश्वास रखते हैं कि चूँकि तिब्बत का प्रश्न एक बार पुन: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण हो रहा है और चीनी तिब्बतियों का सांस्कृतिक जातिसंहार कर रहे हैं; इसके सदस्य राष्ट्र चीन के ऊपर प्रतिबन्ध को लेकर सामने आयेंगे जैसा कि दक्षिण अफ्रीका के साथ अक्सर किया गया है।
जातिसंहार के रोकथाम और दण्ड के लिये सम्मेलन (9 दिसम्बर 1948) में, जो कि संयुक्त राष्ट्र की आम महासभा के संकल्प 96(1) दिनांक 11 दिसम्बर 1946 के अनुसरण में हुआ था, जातिसंहार को समस्त राष्ट्रों के क़ानून के विरुद्ध अपराध की संज्ञा दी गई है। जिन राष्ट्रों ने वहाँ हस्ताक्षर किये उन्हों ने जातिसंहार के रोकथाम और उसे दंडित करने का प्रण लिया। इसलिये, प्रत्येक उस राष्ट्र का जिसने कि हस्ताक्षर किये, यह नैतिक दायित्त्व बनता है कि वह जातिसंहारक कृत्यों के विरुद्ध कार्यवाही करे।
तिब्बत में चीनी रहवासियों के विशाल पैमाने पर हो रहे घुसपैठ के कारण तिब्बतियों द्वारा अपनी राष्ट्रीय पहचान खो देने का खतरा पहले के मुकाबले आज कहीं अधिक है। संयुक्त राष्ट्र इससे अनजान नहीं रह सकता। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के लिये एक अराजनैतिक संस्था वैज्ञानिक बौद्ध संगठन (Scientific Buddhist Association) द्वारा एक वृहद रिपोर्ट ‘Tibet : The Facts’ तैयार की गई। यह रिपोर्ट तिब्बत की परिस्थिति का सम्पूर्ण और वस्तुनिष्ठ आकलन प्रस्तुत करती है। यह रिपोर्ट चीन से तिब्बत की स्वतंत्रता के पक्ष या विपक्ष में तर्क नहीं रखती और अपनी वस्तुनिष्ठता और तथ्यगत परिशुद्धता के लिये व्यापक रूप से सराही गयी है। यह रिपोर्ट तिब्बत समस्या को समझने के लिये स्पष्ट खाका प्रदान करती है और चीनी अधिकारियों द्वारा तिब्बत में सन् 1950 से किये गये भीषण मानवाधिकार हननों का लेखा जोखा प्रस्तुत करती है।
तिब्बत के बारे में हाल ही में उपलब्ध हुये नये तथ्यों और सामग्रियों के उपयोग द्वारा वैज्ञानिक बौद्ध संगठन ने इस रिपोर्ट को अद्यतन किया है और हम उन्हें इस रिपोर्ट की पुनर्प्रस्तुति के लिये दी गई अनुमति के लिये धन्यवाद देते हैं। हम अद्यतन रिपोर्ट का पाठ उपलब्ध कराने के लिये श्री पॉल इंग्राम को विशेष रूप से धन्यवाद देते हैं।
7 अक्टूबर 1986 सोनाम नोर्बु दैग्पो
चेयरमैन
तिब्बती युवा बौद्ध संगठन
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मूल (Original) : TIBET : THE FACTS
Copy Right : Scientific Buddhist Association, London, 1984
First Revised Edition : The Tibet Young Buddhist Association, Dharamsala, India with Permission of SBA.
प्रस्तुत हिन्दी अनुवाद ऊपर उल्लिखित अंग्रेजी मूल से किया गया है। इसका उद्देश्य मात्र चेतना और ज्ञान प्रसार है, किसी भी तरह का व्यवसायिक या आर्थिक लाभ नहीं। विभेद की स्थिति में अंग्रेजी पाठ ही मान्य होगा।
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✍🏻गिरिजेश राव
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