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इराक नरसंहार इंसानियत को शर्मसार करता है

संजय तिवारी

iraq narsanhar

इराक के प्रधानमंत्री नूर अल मलीकी। सद्दाम शासन के खात्मे के बाद जब उन्हें दो हजार छह में इराक का प्रधानमंत्री बनाया गया था, तब भी वे इराक की पसंद कम, अमेरिका की पसंद ज्यादा थे। इसका कारण शायद यह रहा होगा कि वे व्यक्तिगत रूप से एक कमजोर राजनीतिज्ञ थे। सद्दाम हुसैन जैसे तेज तर्रार और कद्दावर शासक की मौत के बाद अल मलीकी जैसे कमजोर शासक का चुनाव शायद अमेरिका ने इसलिए किया होगा कि भविष्य में अमेरिकी मर्जी के अनुसार काम करते रहेंगे। वे शायद कर भी रहे होंगे लेकिन आखिरकार अमेरिका का यही कमजोर चुनाव न केवल इराक को भारी पड़ गया बल्कि उस अमेरिका के लिए भी मुश्किल पैदा हो गई जिसने अल मलीकी का चुनाव करवाया था। बीते दो सालोंं से जारी भीषण आतंकी हमलों के बाद एक हफ्ते के भीतर आधा इराक विद्रोहियों और चरमपंथियों के कब्जे में चला गया और काउंटर टेररिज्म का भरा पुरा मैकेनिज्म और आठ लाख इराकी सैनिकों पर हाथ धरे बैठे मलीकी तमाशा देखते रह गये।

इराक पर जारी आइसिस के कब्जे के सातवें दिन उसी पश्चिमी मीडिया ने अल मलीकी पर सवाल उठाना शुरू कर दिया जिसने कभी इराक में लोकतंत्र की तरफदारी की थी। पश्चिमी मीडिया के सवाल नाजायज नहीं है। यह प्रधानमंत्री मलीकी ही हैं जिन्हें इराक का एन्टी टेररिस्ट डिपार्टमेन्ट रिपोर्ट करता है। 2007 से लेकर आज तक लगातार आतंकी हमले होते रहे लेकिन मलीकी इन हमलों को रोकने के लिए कुछ खास न कर पाये। बीते दो सालों में तो इराक में आतंकी हमलों की बाढ़ ही आ गई। न्यूयार्क टाइम्स के अनुसार जो आइसिस आज इराक पर कब्जा कर रहा है उसी आतंकी संगठन ने 2012 में इराक में 603 और 2013 में 419 आतंकी हमले किये फिर भी इराक की सरकार उनके मंसूबों को भांप न सकी। मलीकी ने जो किया वह यह कि उत्तरी इराक के सुन्नी और अरब मुस्लिम बहुल इलाकोंं में मुसलमानों का दमनचक्र शुरू करवा दिया। इराक के बहुसंख्यक शिया समुदाय से ताल्लुक रखनेवाले मलीकी की इस गलती का असर यह हुआ कि सीरिया में सक्रिय इराक के आतंकी समूह इस्लामिक स्टेट आफ इराक एण्ड सीरिया (आईसिस) को मौका मिल गया कि वह सुन्नी मुस्लिमों के दमन का बदला ले सके। सद्दाम के खात्मे से खार खाये कुर्द और अरब मुस्लिम समुदाय ने अबू बकर अल-बगदादी के नेतृत्व को अपना समर्थन दे दिया। असर वह हुआ जिसके अबूझ फांस में आज इराक फंस गया है।

इसी दस जून को मोहसुल वह पहला शहर था जहां बगदादी की सेना ने कब्जा करने का दावा किया। सीरिया के एक छोर अलप्पो से लेकर तिगरिस नदी के किनारे किनारे बगदाद के करीब तक ज्यादातर सुन्नी और अरब बहुल आबादी निवास करती है। खुद अल बगदादी समारा का रहनेवाला है जो उसी तिगरिस नदी के किनारे है जिसके किनारे के तिकरित में कभी सद्दाम हुसैन पैदा हुआ था। सिया और सुन्नी की मिश्रित आबादी वाले समारा का शिया मुसलमानों के लिए खास महत्व है क्योंकि उनके धर्मगुरूओं से जुड़ी ऐतिहासिक मस्जिदें हैं। लेकिन इराक में सत्ता परिवर्तन के बाद समारा लगातार आतंकी हमलों का शिकार होता रहा और शिया समुदाय के मुस्लिम शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते रहे। इन हमलों में मिली सफलता ने अल बगदादी के हौसले बुलंद किये और 2011 में ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद तो इस्लामिक स्टेट का सपना पूरा करने का जिम्मा उसने अपने ऊपर ले लिया। इसकी शुरूआत इराक से नहीं बल्कि सीरिया से हुई और सीरिया में जारी जेहाद से एक ऐसे सूर्योदय (लिवेन्ट) की शुरूआत की गई जिसकी रोशनी आखिरकार बगदाद तक पहुंचनी थी।

इराक के ताजा हालात उसे फिर से एक नये गृहयुद्ध की तरफ धकेल रहे हैं। सुन्नी चरमपंथियोंं ने जिन इलाकोंं और शहरों पर कब्जा कर लिया है, उससे उन्हें बाहर निकालने के लिए इराक को एक लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। इस बार शायद अमेरिका इस हकीकत को समझ रहा है इसलिए इराक में आसन्न संकट के बावजूद बहुत फूंकफूंककर कदम रख रहा है।

भले ही ‘सूर्योदय’ की रोशनी अभी बगदाद तक न पहुंच पाई हो लेकिन करीब आधा इराक अब आइसिस के कब्जे में है। कुर्द बहुल किरकुक और एराबिल की बात छोड़ भी दें तो अब तक इराक के 22 शहर आइसिस के कब्जे में जा चुके हैं और 13 शहरों पर आतंकियोंं के हमले जारी हैं। इन 35 (22+13) शहरों में इरान के करीब बसा सादिया और जलवला भी शामिल है तो इराक के आसपास के अधिकांश शहरों पर अब आइसिस का कब्जा है। एक तरफ जब आइसिस के कुछ हजार विद्रोही लगातार एक के बाद एक शहर कब्जा करते जा रहे हैं तब भी इराक कुछ खास नहीं कर पा रहा है। दो दिन पहले तक इराक के भीतर ही राजनीतिक दलों में इस बात को लेकर घमासान मचा हुआ था कि उन्हें अमेरिका की मदद लेनी चाहिए या नहीं। इराक में संयुक्त दलों के मुखिया ने शनिवार को बयान जारी करके कह दिया था, कि वे इस चुनौती से निपटने में सक्षम हैं। अमेरिकी राजनीतिक दलों के इस गतिरोध का स्वर अमेरिका को भी सुनाई दे रहा था, इसलिए एकदम से युद्ध के लिए तैयार खड़े अमेरिका ने भी शर्तों के साथ मदद करने की बात शुरू कर दी। लेकिन शनिवार को शिया समुदाय के सर्वोच्च इराकी धर्मगुरू अयातुल्ला अल सिस्तानी को भी शिया समुदाय से अपील करनी पड़ी कि वे अपनी जमीन की रक्षा के लिए हथियार उठा ले। शिया धर्मगुरू ने अब तक हथियार उठाने की ऐसी अपील कभी नहीं थी। जाहिर था, खतरा इतना बड़ा था कि उसे सिर्फ प्रधानमंत्री अल मलीकी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता था। लेकिन हथियार उठाने की इस अपील के बाद शिया समुदाय से जुड़े लोग हथियार लेकर सड़कों पर गश्त ही करते रह गये और उधर सुन्नी चरमपंथियों की तरफ से कार्रवाई जारी रही। 15 जून को दो बड़ी कार्रवाई करते हुए सुन्नी चरमपंथियोंं ने जहां कथित तौर पर 1700 शिया सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया वहीं मोहसुल में सभी चर्चों को तत्काल गिराने का आदेश जारी कर दिया।

आइसिस के आतंकवादी जिस प्रकार आधुनिक सैन्य साजो सामान, संचार प्रणाली का इस्तेमाल करते हुए क्रमबद्ध तरीके से शहर कब्जा कर रहे हैं, शिया नरसंहार कर रहे हैं और शिया समुदाय को पलायन पर मजबूर कर रहे हैं, उससे पश्चिमी मीडिया ने आशंका व्यक्त करना शुरू कर दिया है कि इराक में आइसिस अकेला नहीं है। उसके पीछे जरूर कोई ऐसी ताकत काम कर रही है जिसकी ‘मदद’ के बिना इराक में इतना बड़ा असैन्य अभियान संचालित नहीं किया जा सकता।

इस बीच 16 जून को जरूर जमीनी और कूटनीतिक स्तर पर हालात में सुधार दिखाई दे रहे हैं। कल इराक ने अपने रुख में नर्मी का संकेत दिया था तो अब अमेरिका ने कहा है कि वह इराक समस्या के समाधान में इरान से बातचीत करने को तैयार है। जाहिर है, ईरान में अब अहमदीनेजाद का युग नहीं है और ईरान के वर्तमान राष्ट्रपति हसन रुहानी को पहले ही इरान में एक वर्ग अमेरिका का एजंट कहता आ रहा है। इसलिए इराक में नये सिरे से हस्तक्षेप के वक्त ईरान रास्ते का रोड़ा शायद नहीं बनेगा। अमेरिका का विदेश मंत्री जॉन केरी का अरब नेताओं से संपर्क और ब्रिटिश विदेश मंत्री का इराक के विदेश मंत्री को किया गया फोन पश्चिमी सहायता को इराक के और करीब ला रहा है। अमेरिका भले ही इराक में सैनिक हस्तक्षेप के पहले राजनीतिक समर्थन की मांग कर रहा है लेकिन हकीकत यह है कि अमेरिका जंगी बेड़ा यूएसएस जार्ज डब्लू बुश और 800 मैरिन सैनिकोंं की क्षमता वाला यूएसएस मेसा वेर्द गल्फ की खाड़ी में पहुंच चुके हैं। इराकी सैनिक भी नयी तैयारी के साथ चरमपंथियों से निपटने के लिए मैदान में उतर रहे हैं। इराक की एक स्थानीय वेबसाइट का दावा है कि जिस मोहसुल पर सबसे पहले आइसिस ने कब्जा किया था उसके एक जिले को जेहादियों से मुक्त करवा लिया गया है। इराक में सैनिकों और आतंकवादियों के बीच युद्ध जारी है और इसी वेबसाइट का कहना है कि अब तक अलग अलग मुटभेड़ में दियाला, फजुल्ला, अनबार और मोहसुल में कम से पांच सौ आतंकवादी मार गिराये गये हैं।

जाहिर है, इराक को बचाने के लिए देर से ही सही इराक ने निर्णायक कोशिश शुरू कर दी है और अमेरिका भी देर सबेर इस जंग में कूदने की तैयारी कर रहा है। ईरान के लिए भी इस वक्त पहली प्राथमिकता इराक की सार्वभौमिक सरकार को बचानने की होगी जो कि शिया बहुल होगी। इसलिए वह भी अमेरिका से अपनी रंजिश को बहुत आड़े नहीं आने देगा। लेकिन केवल इतना करने से खतरा खत्म हो जाएगा इसकी उम्मीद कम है। सीरिया और उत्तरी इराक को जोड़कर इस्लामिक राज्य स्थापित करने की जिस मुहिम पर आइसिस दिखाई दे रहा है उसकी गतिविधियां इतनी भी नादान नहीं है कि सिर्फ उन्हें आतंकी हमला मानकर उसे निपटा दिया जाएगा। आनेवाले वक्त में निश्चित रूप से कुछ कूटनीतिक रुकावटें भी पैदा होंगी और जिन कुर्द और अरब मुस्लिम बहुल इलाकोंं में पहले ही इराक का कोई प्रशासन नहीं था, वहां अब शिया बहुल इराक अपना झंडा गाड़ देगा, यह कहना थोड़ा जल्दबाजी होगी। इराबिल पर कुर्दों का कब्जा है और इराबिल ही समूचे आइसिस अभियान की राजधानी बना हुआ है। तो क्या अमेरिका, इराक, ईरान और ब्रिटेन मिलकर इराबिल को आजाद कराने जा रहे हैं? फिलहाल तो इसकी कोई गुंजाइश निकट भविष्य में नहीं है। जो है, वह यह कि आइसिस की बढ़त को रोककर धीरे धीरे उसके कब्जे में गये वे शहर वापस लिये जाएं जहां कुर्द या अरब मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी में हैं। इसमें सीधे तौर पर अमेरिकी सैनिक बड़ी संख्या में जमीन पर उतरेंगे इसकी संभावना भी कम है। इराकी फौज से लड़ना अमेरिका के लिए जितना आसान था, विद्रोहियों और चरमपंथियों से लड़ना उतना ही मुश्किल होगा। लेकिन कुर्द और अरब बहुल इलाकों पर दोबारा इराकी दावा इतना आसान नहीं होगा। कम से कम अल मलीकी के दावे जितना तो बिल्कुल नहीं जिन्होंने मोहसुल पर कब्जे के दिन दावा किया था कि उसे चौबीस घण्टे में आजाद करा लिया जाएगा। चौबीस घण्टे बीत जाने के बाद भी मोहसुल तो आजाद नहीं हुआ, इराक के चौबीस नये शहर जरूर इस्लामिक कट्टरपंथियों के कब्जे में चले गये।

लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं।

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