ओ३म्
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मनुष्य के जीवन व कार्यों पर दृष्टि डालते हैं तो वह अनेकानेक प्रकार के कार्य करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। वह जो कार्य करते हैं, उन कार्यों से यदि उनके जीवन उच्च व श्रेष्ठ बनते हैं, तो वह कार्य उन्हें अवश्य ही करने भी चाहियें। परन्तु हम पाते हैं कि मनुष्य बिना किसी योजना के ही अपनी दिनचर्या को पूरा करते हुए दिखाई देते हैं। वह बहुत से ऐसे कार्य भी करते हैं जिनको करने की आवश्यकता नहीं होती है। ऐसा करने से समय व साधनों का अपव्यय होता है। मनुष्य को अपनी श्रेष्ठ दिनचर्या की योजना बनानी चाहिये और उसमें इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि वह जीवन में सत्य व श्रेष्ठ गुणों का धारण करें तथा यदि जीवन में कोई दुर्गुण व दुव्र्यसन हो तो उसे दूर करने का प्रतिदिन प्रयत्न किया करें।
हमें महान पुरुषों के जीवन का भी अध्ययन करना चाहिये। महापुरुषों के जीवन में मुख्य बात यही दृष्टिगोचर होती है कि उनके जीवन में दुर्गुण व दुव्र्यसन न्यूनतम तथा सद्गुण अधिकतम होते हैं। जिस महापुरुष के जीवन में जितने अधिक सद्गुण होते हैं वह उतना ही महान व बड़ा होता है। हम ऋषि व मुनियों के जीवन पर दृष्टि डालते हैं तो ज्ञात होता है कि वह ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, तपस्वी, ईश्वर की सत्ता व उसकी व्यवस्थाओं में पूर्ण विश्वास करने वाले होते थे। यही नहीं, वह अपना जीवन वेद आदि सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय तथा ईश्वरोपासना सहित परोपकार व यज्ञीय कार्यों में व्यतीत करते थे। ऐसा करते हुए उनके जीवन से दुर्गुण दूर हो जाते थे और वह दिव्य गुणों के धारक व पोषक होते थे। उनका सान्निध्य प्राप्त किये हुए मनुष्य भी सुख व शान्ति का अनुभव करते थे तथा उनको भी अपना जीवन ऊंचा उठाने की प्रेरणा मिलती थी। वह ऋषि मुनि सब मनुष्यों को बुराईयों को छोड़ने तथा श्रेष्ठ गुणों को धारण करने का ही सन्देश देते थे। जो मनुष्य इस नियम व वैदिक शिक्षाओं का पालन करते हैं वह निश्चय ही प्रशंसनीय एवं अपने जीवन को श्रेष्ठ गुणों से युक्त करने वाले बनते हैं और ऐसे मनुष्यों का जीवन ही सुखी व सफलता को प्राप्त होता है।
स्वाध्याय करते हुए हमने स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती जी का जीवन चरित्र पढ़ा है। स्वामी जी ने देश व समाज हित के अनेक कार्य किये। शिक्षा जगत व गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली के उद्धार के प्रति उनका कार्य महान व स्तुत्य है। उनका जीवन अत्यन्त उज्जवल व महान गुणों से युक्त था। स्वामी जी के अतीत व युवावस्था के जीवन पर जब दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि पहले वह पौराणिक विचारों से युक्त थे। भिन्न भिन्न जड़ देवताओं की पूजा करते थे। विचारशील व अध्ययनशील भी थे। ईसाई शिक्षकों के सम्पर्क में आने तथा मन्दिरों में अकारण पक्षपात व उपेक्षा की घटनाओं सहित अपने शिक्षकों के दुश्चरित्रता सम्बन्धी कृत्यों के कारण वह नास्तिक हो गये थे। उनकी इस स्थिति से उनके पौराणिक पिता नानकचन्द जी दुःखी थे। उन्हीं दिनों स्वामी दयानन्द जी का बरेली में वेद प्रचारार्थ आना हुआ था। अपने पिता की प्रेरणा से मुंशीराम जी (स्वामी श्रद्धानन्द जी के पूर्व आश्रम का नाम) ने स्वामी दयानन्द जी के उपदेशों का श्रवण किया और उनसे ईश्वर के अस्तित्व विषयक प्रश्नोत्तर किये। ऋषि दयानन्द ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के सभी प्रश्नों का उत्तर देकर निरुत्तर कर दिया था। इसी से उनके जीवन में आस्तिक भावों का सृजन हुआ था। श्रद्धानन्द जी में युवावस्था मदिरापान व मांसाहार आदि अनेक दुर्गुण आ गये थे। कालान्तर में यह सभी दुर्गुण ऋषि दयानन्द व वेदों की शिक्षा के प्रभाव से दूर हुए और वह एक गिरी हुई अवस्था से सच्चा आत्मिक जीवन जीने के पात्र बने तथा उन्होंने देश, समाज व जाति हित के अनेकानेक काम किये जिससे उनका नाम आज भी आदर से लिया जाता है। वैदिक धर्म एवं संस्कृति की उन्नति व प्रचार में उनका अविसमरणीय योगदान है। उनका जीवन दुर्गुण व दुव्र्यसनों का त्याग करने तथा सभी वैदिक श्रेष्ठ गुणों को जीवन में अपनाने का एक आदर्श उदाहरण है। अन्य महापुरुषों के जीवन में भी मुख्यतः असत्य व बुराईयों का त्याग एवं सत्य व सद्गुणों को धारण करने की तीव्र भावना दृष्टिगोचर होती है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य को स्वाध्याय व वैदिक सत्संगों के माध्यम सहित ईश्वरोपासना आदि कार्यों को करते हुए निरन्तर अपने दुर्गुणों को दूर करते रहना चाहिये और वेद विहित जो सद्कर्म व उपासना आदि कार्य हैं, उनका आचरण एवं पालन करना चाहिये।
सृष्टि के आरम्भ काल में ही ऋषि मुनियों ने मनुष्य जीवन की सर्वांगीण उन्नति को ध्यान में रखकर गृहस्थियों के लिए पांच नित्यकर्मों का विधान किया था। यह पांच नित्य कर्म पंचमहायज्ञ कहलाते हैं। इनका नित्य प्रति सेवन करना होता है। इससे मनुष्य ईश्वर के प्रति तो अपने कर्तव्यों को पूरा करता ही है, अग्निहोत्र यज्ञ द्वारा प्रातः व सायं वायु व जल की शुद्धि कर स्वयं निरोग रहकर दूसरों को भी निरोग रखता है। पितृयज्ञ को करके माता-पिता तथा वृद्धों का सम्मान कर उनका आशीर्वाद प्राप्त कर उन्नति करता है। वहीं अतिथियों की सेवा से भी सद् उपदेशों को प्राप्त होकर आत्मिक, शारीरिक तथा सामाजिक उन्नति करता है। मनुष्य के पशु-पक्षी आदि प्राणियों के प्रति भी कर्तव्य होते हैं। उसके लिए ऋषियों ने बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान किया है। वैदिक गृहस्थी इस पंचम दैनिक यज्ञ को करके भी पालतू पशु-पक्षियों सहित इतर प्राणियों को भी अपनी सहयोग व प्रेम की भावना का परिचय देते हैं और उनको कुछ मात्रा में हितकर खाद्य पदार्थ भेंट करते हैं। वैदिक जीवन पद्धति में जीवन के प्रथम भाग में पच्चीस वर्ष तक बालक व युवा सभी विषयों का ज्ञान व विज्ञान आदि का अध्ययन कर योग्य मनुष्य बनते थे और सुख व शान्ति से अपना जीवन व्यतीत करते थे।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मनुष्य को सत्य मार्ग पर चलते हुए सद्गुणों से युक्त रहने व दुर्गुणों से रहित होने की प्रेरणा दी जाती है। ऐसा करने से ही मनुष्य का जीवन उच्च बनता है तथा समाज व देश भी उन्नति करते हुए उसके सभी नागरिक स्वस्थ व सुखी तथा उन्नति करते हैं। देश की सरकारों का भी कर्तव्य है कि वह अपनी योजनाओं को बनाते समय यह ध्यान रखे कि उसके सभी नागरिक सत्य गुणों से युक्त तथा असत्य दुर्गुणों से पृथक रहें। ऐसा देश व समाज ही उत्तम, कल्याणकारी एवं आदर्श होता है। इसकी प्राप्ति ही हमें प्राचीन काल में वेद व वैदिक ऋषि कराते थे तथा आधुनिक युग में भी डेढ़ शताब्दी पूर्व ऋषि दयानन्द ने भी वेद के लक्ष्यों को प्राप्त कराने के लिये ही अपना जीवन समर्पित करते हुए उसका बलिदान किया था। जोधपुर में वेदों के प्रचार के लिए जाते समय अपने अनुयायियों को उन्होंने कहा था कि यदि वहां लोग उनकी उंगलियों को दीपक की बाती के समान जला भी देंगे तो भी वह भयभीत हुए बिना सत्य का ही प्रचार करेंगे। एक अन्य प्रसंग में उन्होंने कहा था कि यदि तोप के मुंह पर रखकर भी उनसे कोई असत्य कहलाना चाहेगा तो उस स्थिति में भी वह सत्य बोलेंगे और अपनी मृत्यु की परवाह नहीं करेंगे। ऐसे सत्य के पालक व रक्षक तथा सभी सद्गुणों से युक्त ऋषि दयानन्द को सादर नमन है, उन्होंने इस देश को पराभव की स्थिति से हटाकर सच्चा वेद ज्ञान देकर मानव जाति को सर्वांगीण पथ पर अग्रसर किया। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य