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पर्यावरण

प्रकृति का सानिध्य भरता है जीवन में सफलता के रंग

करतार सिंह धीमान

(लेखक भारतीय आयुर्वेद अनुसंधान परिषद के महानिदेशक हैं।)

आयुर्वेद का सिद्धांत है कि जैसा हम इस प्रकृति में देखते हैं, ठीक वैसा ही हमारे शरीर में भी घटित होता रहता है। बाह्य प्रकृति के साथ हमारे शरीर की पूरी संबंद्धता है। इससे ही मानव प्रकृति का विषय प्रारंभ होता है। जैसे संसार में प्रकृति की स्थिति होती है, वैसे ही मनुष्य की प्रकृति होती है। प्रकृति में परिवर्तन से संसार में और संसार में परिवर्तन से प्रकृति में परिवर्तन होता परिलक्षित होता है। ठीक इसी प्रकार मनुष्य के शरीर में जो परिवर्तन होते हैं, उनसे मानव की प्रकृति प्रभावित होती है और प्रकृति में जो परिवर्तन आते हैं उससे मानव का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है।


स्वास्थ्य में मानव प्रकृति के महत्व को आज केवल चिकित्सक जगत ही नहीं, बल्कि बीमा जगत भी स्वीकार करने लगा है। अनेक बीमा कंपनियां मानव प्रकृति के ज्ञान और उसके आधार पर स्वास्थ्य बीमा को निश्चित करने में रुचि रख रही हैं। उन्होंने कम से कम सैद्धांतिक रूप से मानव स्वास्थ्य में मानव प्रकृति की भूमिका को स्वीकार कर लिया है। जब मानव प्रकृति के परीक्षण का एक मानक निर्धारित हो जाएगा तो वे इसे व्यवहार में भी ले ही आएंगी। इस प्रकार प्रकृति के ज्ञान का महत्व काफी बढ़ा है।
इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि केवल अस्वस्थ या रोगी व्यक्ति को ही अपनी प्रकृति की जाँच करवाना चाहिए। प्रकृति का ज्ञान रोगी से कहीं अधिक स्वस्थ व्यक्ति के लिए लाभकारी है। इसके ज्ञान से वह अपनी पूरे जीवन को एक नई दिशा दे सकता है। हरेक स्वस्थ व्यक्ति को अपनी प्रकृति की जानकारी रखनी चाहिए और प्रत्येक बार मौसम बदलने पर अपनी प्रकृति के अनुसार आहार-विहार सुनिश्चित करे। इससे न केवल वह स्वस्थ बना रहेगा, बल्कि उसकी क्षमता काफी बढ़ जाएगी। इसका ज्ञान उसके व्यावसायिक जीवन में भी उसको सफलता दिलाने में सहायक है। यदि किसी व्यक्ति को उसकी मानव प्रकृति का ज्ञान हो तो उसे यह पता चल सकता है कि किस प्रकार के कार्यों में वह अधिक सफल हो सकता है, उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमता के योग्य कौन से काम ठीक होंगे, आदि आदि। इससे वह अपने लिए बेहतर कॅरियर का चुनाव कर सकता है।
इतना ही नहीं, जो लोग किसी खास क्षेत्रा में काम कर रहे हैं और उन्हें यदि पता चल जाए कि उनकी प्रकृति क्या है तो भले ही वह काम उनके प्रकृति के अनुकूल न हो, परंतु वे अपनी प्रकृति के अनुसार कुछेक सावधानियां रखेंगे तो अपने कॅरियर में अधिक सफलता प्राप्त कर पाएंगे। उदाहरण के लिए यदि कोई कफ प्रकृति का व्यक्ति हो और उसे दौड़-भाग का काम मिला हुआ हो तो वह अपनी धीमी गति के अनुसार काम की योजना बना सकता है। साथ ही इससे उसका कफ दोष भी संतुलित होता है, यह ज्ञान उसे और अधिक परिश्रम करने के लिए प्रेरित भी करेगा। इसी प्रकार यदि किसी नियोक्ता को यह पता हो कि उसके कर्मचारी किस प्रकृति के हैं तो वह उनसे बेहतर कार्य ले सकता है। कई बार वात प्रकृति के व्यक्ति को डेस्क पर बैठ करने वाला काम दिया होता है। यदि नियोक्ता को उसकी प्रकृति का ज्ञान हो तो वह उसका काम बदल कर उसका क्षमता का अधिकतम लाभ ले सकता है।
मानव प्रकृति हमारे संबंधों को भी प्रभावित करती है। उदाहरण के लिए किसी दंपत्ति में अगर बारंबार झगड़े होते हों तो उन्हें प्रकृति के ज्ञान से समझा और सुलझाया जा सकता है। यदि पति या पत्नी में से कोई एक वात प्रधान हो तो स्वाभाविक रूप से वह शीघ्र क्रोध में आ जाता/जाती होगा/होगी। यदि दूसरे को इसकी जानकारी हो तो वह क्रोध के शांत होने का प्रतीक्षा करेगा/करेगी जिससे झगड़ा बढ़ेगा ही नहीं। परिवार परामर्शदाता (फैमिली काउंसेलर) भी मनुष्य प्रकृति के ज्ञान का उपयोग संबंधों को बचाने और उन्हें बेहतर बनाने में कर सकते हैं। वे पति-पत्नी को प्रकृति के आधार एक दूसरे के स्वाभावगत गुण-दोषों को बता सकते हैं, जिससे वे ऐसी स्थिति में बेहतर व्यवहार कर सकें और एक-दूसरे को समझ सकें। इस प्रकार हम बाकी पारिवारिक संबंधों को भी समझ सकते हैं। भाइयों, बहनों, सास-बहु, ननद-भाभी आदि आपसी संबंधों को इस प्रकार ठीक रख सकते हैं।
इस प्रकार मानव प्रकृति के ज्ञान का जीवन के विविध आयामों में उपयोग किया जा सकता है। इसमें एक ही समस्या है और वह है प्रकृति परीक्षण की एक मानक प्रारूप का अभाव। देश भर में अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग ढंग से प्रकृति परीक्षण किया जाता है। परंतु उनमें कोई सामंजस्य नहीं है। इसलिए हम यहाँ इसका एक मानक प्रारूप विकसित कर रहे हैं। देश भर के सभी आयुर्वेद संस्थानों के प्रतिनिधियों को इसमें सहभागी बनाया गया है। पर्याप्त चिंतन मंथन के बाद लगभग ढाई सौ प्रश्न और कुछ परीक्षणों का एक क्रम तैयार किया गया है। इस प्रारूप को प्रायोगिक परीक्षण के लिए सौ स्थानों पर भेजा गया है। इन सौ स्थानों पर दो-दो वैद्यों की टोली एक ही व्यक्ति का स्वतंत्रा रूप से इस प्रारूप के आधार पर प्रकृति परीक्षण करेगी। यदि हमें 90 प्रतिशत साम्यता मिलेगी, तो इस प्रारूप को सामान्य लोगों के लिए उपलब्ध करा दिया जाएगा। यदि उसमें कुछ कमी रहेगी तो फिर उसे पहले दूर किया जाएगा।
प्रारूप के प्रमाणित हो जाने के बाद इसे आयुर्वेद शिक्षण में शामिल कर दिया जाएगा। जो लोग पहले से ही वैद्यक का अभ्यास कर रहे हैं तथा विस्तृत अध्ययन नहीं किया है, उनके लिए क्षेत्राीय स्तर पर कार्यशालाओं का आयोजन करके उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाएगी। उनके लिए एक ऑनलाइन जाँच परीक्षा भी रखी जाएगी जिसे उत्तीर्ण करने पर उन्हें एक प्रमाणपत्रा भी दिया जाएगा कि वे प्रमाणित प्रकृति परीक्षक हैं। उसके द्वारा किया गया प्रकृति परीक्षण प्रामाणिक माना जाएगा। उन लोगों का काम रहेगा कि वे लोगों को जागरूक करें। इसमें मीडिया की भी भूमिका रहेगी कि वे लोगों को प्रकृति परीक्षण के महत्व से अवगत कराएं।
व्यक्ति की प्रकृति का निर्धारण वैसे तो जन्म के समय ही हो जाता है, परंतु उसे व्यस्क होने पर अपनी प्रकृति का परीक्षण कराना चाहिए ताकि वह सभी प्रश्नों को समझ कर सही उत्तर दे सके। बच्चों का यदि हम प्रकृति परीक्षण करा लेते हैं ताकि उनके रोग-निदान आदि में सहायता मिल सके, तो भी वयस्क होने के बाद उन्हें दोबारा अपना प्रकृति परीक्षण कराना चाहिए। इससे उनकी प्रकृति परीक्षण में स्थायित्व आ सकेगा। प्रकृति परीक्षण कराने में यह भी ध्यान रखें कि बीमार या रोगग्रस्त अवस्था में परीक्षण न करवाएं। स्वस्थ अवस्था में सही उत्तर सामने आ पाएंगे और सही प्रकृति का ज्ञान हो पाएगा। रोग के समय दोषों की स्थिति बदली हुई होती है। इसलिए अच्छा यह रहेगा कि एक बार पाँच वर्ष की आयु में बच्चे का परीक्षण करवा लिया जाए ताकि उसके स्वभाव, शारीरिक स्वास्थ्य आदि के बारे में एक सही आंकलन किया जा सके। फिर बाद में 18 वर्ष की आयु में दोबारा परीक्षण करवा लिया जाए ताकि एक स्थायी प्रकृति का निर्धारण किया जा सके। यदि हम प्रकृति परीक्षण के प्रति लोगों को जागरूक कर सकें तो मेरा मानना है कि यह एक बड़ी समाज सेवा होगी। जिस प्रकार भारत ने दुनिया को योग दिया, यह भारत की वैसी ही एक बड़ी देन होगी।

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