भारत में यदि निष्पक्ष रूप से साम्प्रदायिक दंगों का इतिहास लिखा जाए तो यह तथ्य स्थापित हो जाएगा कि भारत में साम्प्रदायिक दंगे उतने ही पुराने हैं जितना पुराना इस्लाम है। मुस्लिम बादशाहों या सुल्तानों के काल में सुनियोजित ढंग से होने वाले नरसंहार इन सांप्रदायिक दंगों का वह वीभत्स स्वरूप था जब हिंदू केवल और केवल एक असहाय और निरीह प्राणी के रूप में इनकी तलवार का शिकार बनता था , परन्तु उन अत्याचारों को भुला देने की बात वर्तमान इतिहास करता है । जिससे यह भ्रम स्थापित हो जाता है कि भारतवर्ष में साम्प्रदायिक दंगे तो अंग्रेजों या उसके बाद स्वतन्त्र भारत में होने आरम्भ हुए जब हिन्दुओं का शासन हुआ । इससे ऐसा लगता है कि जैसे भारतवर्ष में अंग्रेजों और हिन्दुओं ने ही मुसलमानों के विरुद्ध साम्प्रदायिक दंगे कराने आरम्भ किए । उससे पहले इस्लाम तो भाईचारे के आधार पर शासन कर रहा था । जिसका परिणाम यह भी हुआ है कि भारतवर्ष में हिन्दू समाज को हिंसक और असहिष्णु समाज के रूप में स्थापित करने की जोरदार वकालत होने लगी ।
उससे पहले इस्लाम के शासनकाल में कहीं साम्प्रदायिक दंगों का कोई उल्लेख नहीं है , जो लोग इस प्रकार की मूर्खतापूर्ण बातें स्थापित कर इतिहास को भ्रम और सन्देह की पोटली बनाकर प्रस्तुत करते हैं , उन्होंने भारत के साथ बहुत बड़ा बड़ा धोखा किया है , क्योंकि उन्होंने ऐसी मान्यता को स्थापित कर भारत के अत्यन्त उदार और मानवता प्रेमी हिन्दू या वैदिक धर्म को असहिष्णु और दूसरों पर अत्याचार करने वाले समाज के रूप में स्थापित कर दिया है । जिससे मुस्लिमों की अंधी साम्प्रदायिक नीतियों और राजनीति को भी मानवता प्रेमी दिखाने में यह लोग किसी सीमा तक सफल हो गए हैं। बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने इस भ्रांति को तोड़ते हुए अपनी पुस्तक में लिखा :–”तीसरी बात, मुसलमानों द्वारा राजनीति में अपराधियों के तौर-तरीके अपनाया जाना है। दंगे इस बात के पर्याप्त संकेत हैं कि गुंडागर्दी उनकी राजनीति का एक स्थापित तरीका हो गया है।” (पृ. 267)
दंगों को मुस्लिमों की गुंडागर्दी कहने का साहस कांग्रेस के गांधीजी और नेहरू नहीं कर पाए , परन्तु भीमराव अंबेडकर जी ऐसे पहले नेता हैं , जिन्होंने मुस्लिमों के दंगा प्रेम को उनकी राजनीतिक गुंडागर्दी का नाम दिया।
बाबासाहेब का यथार्थवादी इतिहास दर्शन
इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण हैं , जब मुसलमानों ने हिन्दुओं के नरसंहार करने वाले लोगों को हिन्दुओं के द्वारा युद्ध क्षेत्र में मारे जाने पर शहीद का दर्जा दिया । आज हम उन्हें इतिहास में इसी नाम से सम्मान के साथ बुलाते हैं । इतिहासकारों की इसी सोच के चलते हमारे अनेकों वीर योद्धा जहाँ इतिहास में उपेक्षा की भट्टी में डाल दिए गए , वहीं जो लोग मानवता के हत्यारे रहे , उन्हें सम्मान देने के लिए हम बाध्य कर दिए गए या कहिए कि अभिशप्त कर दिए गए। स्वामी श्रद्धानन्द जी जैसे आर्य संन्यासी के हत्यारे को गांधीजी ने ‘भाई’ कहकर सम्मान के साथ बुलाया। इसी प्रकार देश का बंटवारा करने वाले जिन्नाह को भी ‘कायदे आजम’ कहने वाले गांधी ही पहले व्यक्ति थे।
आज ऐसे अनेकों लोग हैं जो बाबासाहेब का नाम लेकर गांधी जी के इस हिन्दू विरोधी इतिहास दर्शन को उचित मानते हैं और कुछ ऐसा प्रदर्शन करते हैं जैसे अम्बेडकर जी भी गांधीजी के इस दृष्टिकोण से सहमत थे । जबकि सच यह है कि अम्बेडकर जी का इतिहास दर्शन नितान्त यथार्थ पर आधारित था । वह यथार्थवादी दृष्टिकोण के साथ इतिहास को समझने का प्रयास करते थे और इसी रूप में इतिहास को प्रस्तुत करना भी अपना नैतिक दायित्व समझते थे।
अपने इस इतिहास दर्शन को स्पष्ट करते हुए बाबासाहेब ने अपनी उपरोक्त पुस्तक में लिखा -”महत्व की बात यह है कि धर्मांध मुसलमानों द्वारा कितने प्रमुख हिन्दुओं की हत्या की गई ? मूल प्रश्न है उन लोगों के दृष्टिकोण का, जिन्होंने यह अपराध किये। जहाँ कानून लागू किया जा सका, वहाँ हत्यारों को कानून के अनुसार सज़ा मिली; तथापि प्रमुख मुसलमानों ने इन अपराधियों की कभी निन्दा नहीं की। इसके विपरीत उन्हें ‘गाजी’ बताकर उनका स्वागत किया गया और उनके क्षमादान के लिए आन्दोलन शुरू कर दिए गए। इस दृष्टिकोण का एक उदाहरण है लाहौर के बैरिस्टर मि. बरकत अली का, जिसने अब्दुल कयूम की ओर से अपील दायर की। वह तो यहाँ तक कह गया कि कयूम नाथूराम की हत्या का दोषी नहीं है, क्योंकि कुरान के कानून के अनुसार यह न्यायोचित है। मुसलमानों का यह दृष्टिकोण तो समझ में आता है, परन्तु जो बात समझ में नहीं आती, वह है श्री गांधी का दृष्टिकोण।”(पृ. 147 – 148)
जब गांधी जी ‘हिन्दू मुस्लिम – भाई -भाई’ का नारा लगा रहे थे तब बाबासाहेब यहाँ पर भी अपना वास्तविक और न्याय संगत दृष्टिकोण हिन्दू और मुसलमान के विषय में प्रस्तुत कर रहे थे । गांधीजी नितान्त काल्पनिक दृष्टिकोण को अपनाकर ऐसी दो विचारधाराओं को एक साथ बैठाने का प्रयास कर रहे थे , जिसमें दोनों का एक साथ बैठना सम्भव ही नहीं था। क्योंकि एक विचारधारा दूसरी विचारधारा को समाप्त कर सर्वत्र अपना परचम लहराना चाहती थी और दूसरी विचारधारा अपनी सहिष्णुता और उदारता के कारण उसे स्वीकार करना तो चाहती थी , परंतु इस शर्त पर ही स्वीकार करना चाहती थी कि वह अपनी परम्परागत कार्य नीति और कार्य योजना को छोड़े तो कोई बात बने ।
इस पर गांधीजी का एक ही तर्क रहता था कि जैसे भी हो हिन्दुओं को मुसलमानों को गले लगाना ही चाहिए । वे अपनी प्रवृत्ति छोड़े या न छोड़ें परन्तु हिन्दू उनके हाथों कटता – मिटता रहे और यह सब कुछ स्वीकार करके उन्हें गले लगाता रहे । इसके विपरीत डॉ अम्बेडकर एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाकर चलने वाले राजनीतिज्ञ थे । उन्होंने स्पष्ट रूप से अपनी उपरोक्त पुस्तक में यह लिखा कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही अलग-अलग प्रजातियां हैं । स्पष्ट है कि प्रजातियां अपना अलग-अलग अस्तित्व बनाए रखना चाहती हैं। यद्यपि वैदिक धर्म में विश्वास रखने वाले लोगों का मानवतावाद सबको गले लगाकर चलने में विश्वास रखता है , परन्तु यह मानवतावाद इतना सरल भी नहीं है कि जो इसको काट रहा हो यह उसे भी अपना मानने की मूर्खता करे । जो इसकी नीतियों में विश्वास रखता है और मानवतावाद को सर्वोपरि मानता है , उसके साथ यह अपना कलेजा सौंपकर चलने में विश्वास रखता है और जो कलेजा खाकर दूसरों को साथ लेने की बात करता हो , उससे यह वैसे ही दूरी बनाता है जैसे एक प्रजाति दूसरी प्रजाति से दूरी बनाती है।
बाबासाहेब ने इस विषय में स्पष्ट लिखा है कि :– ” आध्यात्मिक दृष्टि से हिन्दू और मुसलमान केवल ऐसे दो वर्ग या सम्प्रदाय नहीं हैं जैसे प्रोटेस्टेंट्स और कैथोलिक या शैव और वैष्णव हों , बल्कि वे तो दो अलग-अलग प्रजातियां हैं।” (पृ. 185 )
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत