सृष्टि बनाकर हमें मनुष्य जन्म एवं सुख आदि देने से ईश्वर उपासनीय है
ओ३म्
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हम मनुष्य हैं। हमें यह मनुष्य जन्म परमात्मा ने दिया है। जन्म व मृत्यु के मध्य की हमारी अवस्था जीवात्मा वा जीव कहलाती है। इस सृष्टि में हमारे जैसे जीव अनन्त संख्या में हैं। सभी जीव अणु परिमाण युक्त अल्पज्ञ चेतन सत्तायें हैं तथा सभी एकदेशी, ससीम, अनादि, नित्य, जन्म-मरण धर्मा तथा कर्म फल में आबद्ध हैं। जीव में ज्ञान प्राप्ति व कर्म करने की क्षमता होती है जिसे वह जन्म प्राप्त कर क्रियान्वित करते हैं। यदि यह सृष्टि न होती और जीवात्माओं को मनुष्य आदि नाना प्रकार की योनियों में से किसी एक योनि में जन्म न मिलता तो उन्हें वर्तमान जीवन में प्राप्त सुख व दुःखों की अनुभूति न होती। जीवों के गुणों व क्षमताओं को सार्थक करने के लिए सृष्टि में उपलब्ध चेतन सत्ता ईश्वर ने अपनी अतुल्य सामथ्र्य एवं ज्ञान से, जिसे सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ कहा जाता है, इस सृष्टि वा ब्रह्माण्ड को बनाया है।
हमारा यह ब्रह्माण्ड ईश्वर व जीव से भिन्न तीसरी जड़ सत्ता प्रकृति से बना है। प्रकृति सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था को कहते हैं। तीन गुणों वाली प्रकृति से ही इस सृष्टि के सभी पदार्थ सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश आदि बने हैं। इन सब भौतिक पदार्थों को ईश्वर ने अपने अनादि व नित्य ज्ञान तथा सर्वशक्तिमान आदि नाना गुणों के आधार पर बनाया है। वही एक परमात्मा इस संसार का संचालन व पालन कर रहा है। उसी के नियमों से सृष्टि में रात्रि, दिन, सप्ताह, माह, वर्ष आदि होते हैं तथा जीवात्माओं को जन्म, मरण, सुख, दुःख तथा मोक्ष आदि भी प्राप्त होते हैं जिनका आधार जीवों का ज्ञान व कर्म हुआ करते हैं। हमने ईश्वर व सृष्टि विषयक यह जो बातें लिखी हैं वह वेद एवं वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर सार रूप में प्राप्त होती हैं। इस ज्ञान से हम संसार की सभी बातों व रहस्यों को यथार्थरूप में जान सकते हैं और निभ्र्रान्त ज्ञान को प्राप्त हो सकते हैं। वेदों का यही ज्ञान सृष्टि के आरम्भ से वर्तमान समय तक लगभग1 अरब 96 करोड़ वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी उपलब्ध है जिसे कुछ अज्ञानी तथा अविद्या से युक्त मनुष्य स्वीकार नहीं करते। सत्य को जानना, उसे प्राप्त होना तथा सत्य को ही मानना और प्रचार करना सभी विज्ञ मनुष्यों का कर्तव्य होता है। इसी से संसार के सभी लोग भ्रान्ति रहित होकर सुखों को प्राप्त होते हैं। यदि ऐसा न किया जाये तो संसार में सुख कम व दुःखों की वृद्धि होती है। अतः सबको सत्य का अनुसंधान करते हुए वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। सृष्टि के आरम्भ से ही भारत सहित पूरे विश्व में वेदाध्ययन एवं वेदाचरण की परम्परा रही है।
वेद संसार के साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन हैं। इसका कारण सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों को परमात्मा से वेदों का ज्ञान प्राप्त होना है। ऋषि दयानन्द ने इस तथ्य को अपने ग्रन्थ में तर्क एवं युक्ति के साथ समझाया है। वेदों में सृष्टि रचना विषयक जो तथ्य बताये हैं उस पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं। ऋग्वेद मन्त्र10.129.7 में कहा गया है कि हे मनुष्य! जिस से यह विविध सृष्टि पकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी है, जिस व्यापक में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है। उस को तू जान और दूसरे को सृष्टिकर्ता मत मान। ऋग्वेद के एक अन्य मन्त्र में बताया गया है कि यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख एकदेशी आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामथ्र्य से कारणरूप से कार्यरूप कर दिया। ऋग्वेद मन्त्र10.129.1 में परमात्मा उपदेश करते हैं हे मनुष्यों! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार और जो यह जगत् हुआ है और आगे अनन्त काल तक होगा उस का एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था और जिस ने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, उस परमात्म देव की प्रेम से भक्ति किया करें।
यजुर्वेद के मन्त्र 31.2 में परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों! जो सब में पूर्ण पुरुष और जो नाश रहित कारण और जीव का स्वामी जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है, वही पुरुष इस सब भूत भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् का बनाने वाला है। इस प्रकार वेदों में अनेक प्रकार से सृष्टि की उत्पत्ति के विषय को प्रस्तुत कर उसे ईश्वर से उत्पन्न व संचालित बताया है। यह विवरण स्वतः प्रमाण कोटि का विवरण है। ऐसा वेदों के मर्मज्ञ एवं महान ऋषि दयानन्द सरस्वती ने अपने विशद ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर कहा है। सृष्टि के आरम्भ से ही वेदों को स्वतः प्रमाण मानने की परम्परा रही है जो सर्वथा उचित है। सृष्टि बनाने वाले ईश्वर का सत्यस्वरूप कैसा है, इस पर ऋषि दयानन्द ने प्रकाश डाला है। वह लिखते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। इस ईश्वर से ही यह सृष्टि जिसमें प्राणी व जड़ चेतन समस्त जगत सम्मिलित है, उत्पन्न हुआ है।
हमारा यह समस्त जगत व संसार परमात्मा ने हम जीवात्माओं के भोग अर्थात् सुख-दुःख व अपवर्ग अर्थात् मोक्षानन्द की प्राप्ति के लिये बनाया है। हमें सुख व दुःख अपने कर्मों के अनुसार मिलते हैं। दुःख मिलने का कारण हमें अपने कर्मों, व्यवहार व आचरण में सुधार करना होता है। हम क्या करें, क्या न करें इसका ज्ञान हमें वेद, मनुस्मृति, सत्यार्थप्रकाश आदि वैदिक ग्रन्थों से होता है। यदि हम वेदों की सभी शिक्षाओं को धारण कर आचरण में ले आयें तो हम श्रेष्ठ सुखों से युक्त जीवन व्यतीत कर सकते हैं। ऐसा ही हमारे पूर्वज व उच्च कोटि ज्ञानी विद्वान योगी जन किया करते थे। वेदों के अनुसार आचरण करने से हमारा यह जीवन सुखों से युक्त होता है। इसके साथ ही हमें परजन्मों में श्रेष्ठ योनि व उत्तम परिवेश में जन्म मिलता है जिससे हम सुखी व कल्याण को प्राप्त होते हैं। वेदों में ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित उसके गुण, कर्म व स्वभाव का विस्तार से वर्णन है। वेदाध्ययन से ईश्वर हमारी अपेक्षा के अनुरूप यथार्थ रूप में जान लिया जाता है। परमात्मा के जीवों पर असंख्य उपकार हैं। हमारा जन्म उसी परमात्मा से हमें मिलता है। वह अनादि काल से हमारा पिता, माता व मित्र है और इन संबंधों के अनुरूप हमें सुख प्राप्ति करा रहा है। हमें उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हुए उसके गुणों का ध्यान कर स्तुति करनी होती है। हमें जो स्वास्थ्य, आरोग्यता, धन, ऐश्वर्य, सुख, कल्याण, पुत्र, पौत्र आदि आवश्यक होते हैं उसे हम ईश्वर से प्रार्थना कर मांगते हैं जिसे ईश्वर पूरा करते हैं। इस क्रिया का नाम ही ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना है। ऋषि दयानन्द ने ईश्वर की उपासना की विधि की पुस्तक लिखी है जिसे ‘सन्ध्या’ कहा जाता है। सभी मनुष्यों का परम धर्म व कर्तव्य है कि वह प्रतिदिन प्रातः व सायं ईश्वर के गुणों, उपकारों तथा सुख प्रदान करने के उसके स्वभाव का ध्यान कर उसका धन्यवाद करें। ऐसा करने से अहंकार का नाश होकर जीवन में सद्गुणों सहित ज्ञान वा विद्या की प्राप्ति होती है। ऐसा करके ही हम ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह कर सकते हैं। जो मनुष्य अपने इस कर्तव्य का पालन नहीं करते वह कृतघ्न व महामूर्ख होते हैं, ऐसा हमारे ऋषि कहते हैं।
ईश्वर ने हम मनुष्यों वा जीवात्माओं के लिये ही इस सृष्टि को बनाया है। वही इसका पालन कर रहे हैं। हमें उसकी उपासना कर अपने कर्तव्य धर्म का पालन करना चाहिये। इसी में हमारा कल्याण व आत्मा की उन्नति निहित है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य