विवेक भटनागर
(लेखक इतिहास के शोधार्थी हैं।)
आजादी से पूर्व तक भारतीय उपमहाद्वीप के विजय की चाभी अफगानिस्तान के हेरात व कंधार प्रांत को माना गया, जो खुरासान प्रदेश का दक्षिणी हिस्सा था। यही कारण रहा कि विदेशी आक्रांताओं के लिए खुरासान भारत विजय का मोड्यूल रहा। वहीं, भारतीय शासकों ने अपनी प्राकृतिक सीमाओं को मजबूत करने के लिए समय-समय पर खुरासान विजय की योजनाएं बनाईं। वर्तमान में आईएसआईएस (इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया अर्थात अल दौलतुल इस्लामिया फिल इराक वल शाम) संगठन ने भारत विजय का खुरासान मोड्यूल पेश किया है। यह मोड्यूल बरसों पूर्व मेें तुर्की और मुस्लिम आक्रांताओं ने बनाया था। विभिन्न राज्यों में बंटे भारत और कमजोर केन्द्रीय नेतृत्व के कारण तुर्कों और अरबों का खुरासन मोड्यूल लम्बे प्रयासों के बाद सफल रहा। 12वीें सदी में तुर्कों के भारतीय साम्राज्य पर काबिज होने के बाद खुरासान खुद भारत की जरूरत बनता गया। आज आईएसआईएसएल का मोड्यूल उनके लिए कितना उपयोगी है पता नहीं, लेकिन भारत में शांति के लिए यह अत्यंत जरूरी है कि खुरासान की राजनीतिक परिस्थितियां भारत की सहयोगी बनी रहें। अगर खुरासान की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर भारत का कम से कम कूटनीतिक नियंत्रण भी हो जाए, तो पश्चिम से होने वाले आतंकी हमलों पर व्यावहारिक नियंत्रण पाया जाना सहज होगा।
प्राचीन खुरासान
प्राचीन खुरासान या खोरासान मध्य एशिया का एक ऐतिहासिक क्षेत्र था जिसमें आधुनिक अफगानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान और पूर्वी ईरान के बहुत से भाग शामिल थे। इसमें कभी-कभी सोगदा और आमू-पार क्षेत्र शामिल किये जाते थे। उल्लेखनीय है कि आधुनिक ईरान में एक खोरासान प्रांत है जो इस ऐतिहासिक खुरासान इलाके का केवल एक भाग है। मध्य फारसी में खुर का मतलब सूरज (आधुनिक फारसी में खुुर्शीद) और असान या अयान का मतलब आना होता है। खुरासान का मतलब है वह जगह जहां से सूरज आता हो यानि पूर्वी जमीन। यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि खुरासान क्षेत्र ईरान से पूर्व में है। खुरासान ईरान के उस उत्तर-पूर्वी प्रांत का नाम है, जो उत्तर में रूसी कास्पियन प्रदेश से सटा हुआ है। अत्रक नदी चाट तक इसकी भौगोलिक सीमा का निर्धारित करती है। इसके पूर्व में अफगानिस्तान, पश्चिम में अस्त्राबाद, शाहरुद, सेमनान, दमधान और यज्द के ईरानी प्रांत और दक्षिण में केरमान है। इस प्रकार इसका क्षेत्रफल 25,000 वर्गमील है।
खुरासान का वैश्विक स्वरूप
सिकंदर के अभियानों से पूर्व 330 ईपू़. खुरासान या खोरासान फारस के एक्मेनिड साम्राज्य का हिस्सा था और इस क्षेत्र में वहां के प्राचीन ईरानी नस्ल मेढ़ रहा करती थी। सिकंदर का शासन कुछ समय तक रहा। उसके बाद सिकंदर का सेनापति सेल्यूकस इस क्षेत्र का शासक हुआ। फिर यह साम्राज्य सेल्युसिड साम्राज्य कहलाया। 305 ईपू़. में भारत का एकीकरण कर रहे चन्द्रगुप्त मौर्य और उसके महान गुरु चाणक्य के नेतृत्व में भारतीय सेना ने सेल्युसिड सेनाओं को पराजित कर दक्षिणी खुरासान का अपने चक्रवर्ती राज्य में शामिल कर भारतीय उपमहाद्वीप की प्राकृतिक सीमा और एक बार पुन: प्राप्त कर लिया। मान्यता है कि पूर्व में भी भारतीय शासकों ने चक्रवर्ती विजय कर त्रिगर्त (खुरासान) को जीता था।
तत्कालीन यूनान और वर्तमान तुर्की का भूगोलवेत्ता और इतिहासकार स्ट्रेबो ने अपनी पुस्तक ‘रेर्वम जियोग्राफी बाय स्ट्रेबोÓ में लिखा है कि खुरासान को एलेक्जेण्डर ने आर्यों से जीता और खुद का शासन स्थापित किया। सिकंदर के साम्राज्य के इस भाग को उसके सेनापति और गर्वनर सेल्युकस निकेटर ने सेण्ड्रोकोट्टस (चन्द्रगुप्त) से पराजित होने के बाद हुई संधि में गंवा दिया। संधि में सेल्युकस निकेटर को सेण्ड्रोकोट्टस (चन्द्रगुप्त) से अपनी बेटी की शादी करवानी पड़ी। इसके बदले सेल्युकस को 500 हाथी पारितोशिक के रूप में दिए गए। (नोट-स्ट्रेबो 64 ई.पू.-24 ई.) खोरासान क्षेत्र को बाद में जियोग्राफी ऑफ एराटोस्थेनीज यूनानियों ने एरियाना कहा गया। उस समय यह इलाका वृहद ईरान का हिस्सा था, जिसमें जरथ्रुश्ट्रवादियों का प्रभाव था। पहली सदी में यह खोरासान कुषाणों की सत्ता का हिस्सा बना। कुषाणों ने प्रारम्भ में दक्षिणी खुरासान (वर्तमान कंधार) में अपनी राजधानी बगराम (बामियान) को बनाया। उन्होंने वहां बुद्ध की विशाल प्रतिमाएं बनवाई जिन्हें 1996 ई. में तालिबानियों ने तुड़वा दिया। वैसे तो तुर्कों की विजय तक यह क्षेत्र बुद्धों और जरथ्रुश्ट्रवादियों के प्रभाव में ही रहा। फिर भी यह मानिचेइस्ट्स, सूर्य उपासक, ईसाई, पेगन, शमानिद और यहुदियों की भी शरणस्थली रहा। शमानिदों के तीन प्रमुख अग्नि मंदिर ‘अजर-बुर्जिन-मेहर’ ईरान के हिस्से वाले खोरासान के सब्जेवार में स्थित थे। ये सीमाएं उस समय तक बनी रहीं, जब तक की कुषाण शासक कनिष्क ने शमानिदों को पराजित कर अपने साम्राज्य में मिला नहीं दिया।
महाभारत से पाणिनी तक
त्रिगर्त का सबसे प्रमुख उल्लेख महाभारत में आता है। तेरहवें दिन कौरव सेनापति द्रोर्णाचार्य द्वारा चक्रव्यूह की रचना की गई, ताकि युधिष्ठिर का बंदी बना कर युद्ध जीता जा सके। पाण्डवों की सेना में कृष्ण, अर्जुन, अभिमन्यु और प्रद्युम्न ही चक्रव्यूह भेदन जानते थे। इनमें से कृष्ण व अर्जुन त्रिगर्त नरेश सुशर्मा के हमले को रोकने के लिए उत्तर दिशा की और त्रिगर्त रवाना हो गए। वहीं प्रद्युम्न इस युद्ध के दौरान कुरूक्षेत्र में नहीं थे। अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदन करना है। त्रिगर्त के बारे में महाभारत में कहा गया है कि यह क्षेत्र तीन विशाल समुद्रों के निकट है। भारत के उत्तर में ऐसा क्षेत्र सिर्फ खुरासान है। यह, कैस्पियन, अरल और बैकाल जैसी विशाल झील से सीमा बनाता है। त्रिगर्त सबसे पहले 5वीं शताब्दी ईपू. पाणिनी ने अपनी पुस्तक अष्टाध्यायी में इसका उल्लेख किया है। पाणिनी स्वयं खुरासान से जुड़े भारतीय उपमहाद्वीप के राज्य गंधार का रहने वाला था। त्रिगर्त को ‘आयुध संघÓ या एक मार्शल गणराज्य के रूप में अष्टाध्यायी वर्णित किया गया है। वहीं त्रिगर्त के निवासियों और पाणिनी ने शस्त्रोपजीवी कहा है। खुरासान का यह स्वभाव ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित भी होता है।
इसके बाद सिकंदर का युद्ध झेलम के किनारे त्रिगर्त नरेश पौरव से हुआ। इसे यूनानी तवारीख में पोरस कहा गया, वहीं त्रिगर्त को त्रिरर्गाट कहा गया। झेलम (यूनानी में हाईड्स्पेस) नदी के किनारे लड़ा गया। इस विजय से ही सिकंदर का भारत में स्थापित होने की आशा बंधी और यहीं से खुरासान या त्रिगर्त को भारत विजय की कुंजी कहा जाने लगा। समुद्रगुप्त ने भी अपनी चक्रवर्ती विजय के दौरान त्रिगर्त पर विजय हासिल की थी। समुद्रगुप्त के बाद, त्रिगर्त का अगला उल्लेख ह्यूएनत्सांग ने किया है। वह खुरासान या त्रिगर्त पार कर भारत में जलंधर पहुंचा था। उसके अनुसार जब वह त्रिगर्त से भारत रवाना हुआ तो वहां का शासक उदितों था। उसने यह वर्णन अपनी यात्रा पुस्तक सू-यू-की में किया है। इसके बाद 11वीं सदी में खुरासान में गजनवियों की शक्ति का उदय होता है और वह पूरे खुरासान पर छा जाते हैं। फिर भी खुरासान लम्बे समय तक हिन्दु बाहुल्य राज्य रहा। यहां तक कि शाहनाम में कहा गया है कि महमूद गजनवी का एक सेनापति हिन्दू था।
चौदहवीं सदी के प्रांरभ में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने खुरासान विजय की योजना बनाई लेकिन यह असफल रही। तुगलक की योजना के अनुसार खुरासान में विद्रोह के दौरान हमला कर जीत हासिल करना था। वहीं खुरासान और ख्वारिज्म के शाह में सुलह हो जाने से यह अभियान विफल हो गया। इसके बाद खुरासान योजना के लिए बनाई गई सेना को उपयोग में लेने के लिए 1333-1334 में कराचिल (कांगड़ा-गहढवाल) अभियान प्रारंभ किया गया। इसका उद्देश्य उन पहाड़ी राज्यों को अपनी अधीनता में लाना था, जहा अधिकतर विरोधी शरण लिए हुए थे। सर्दी के मौसम में हुए हमले के कारण तुगलक सेना के सैनिक ठंड से मर गए और योजना विफल साबित हो गई।
मुगलों का खुरासान मॉड्यूल
शाह ताहमासप के शासन के बाद से सफाविद का कंधार (दक्षिणी खुरासान) पर क्षेत्रीय दावों का क्षेत्र था। मुगल सम्राट हुमायूं ने फारस के शाह का समर्थन प्राप्त करने के लिए उन्हें कंधार विजय की अनुमति दी थी। इसके बाद, मुगल बादशाह जहांगीर के शासनकाल में सफाविदों से इस क्षेत्र के लिए संघर्ष प्रारम्भ हुआ। कंधार की अधिकतर आबादी वहां पर सफाविद शासन का विरोध करती थी। इसका लाभ उठा कर मुगलों ने भारत की प्राकृतिक सीमाओं को पुन: प्राप्त करने का प्रयास प्रारम्भ किया था। लेकिन 1621 ई. से 1632 ई. तक चले खुरासान अभियान में जहांगीर और शाहजहां को सफलता नहीं मिली।
जहांगीर के बाद शाहजहां ने शक्तिशाली सफाविदों से संघर्ष किया। 1639 में फारस के शाह सफी की सेनाओं ने बामियान पर कब्जा कर लिया और ऐसा प्रतीत हुआ कि वे आगे कंधार पर हमला करेंगे। मुगलों ने कामरान खान की सहायता के लिए कंधार पर चढ़ाई कर दी। उन्हें उम्मीद थी कि सफाविद सेना कंधार जीतने के लिए हमला करेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जब इस क्षेत्र में शांति हो गई तो 1646 में शाहजहां ने अपने बेटे मुराद बख्श को बदख्शां पर आक्रमण करने के लिए भेजा। अगले वर्ष उसने अपने दूसरे पुत्र औरंगजेब को बल्ख विजय के लिए भेज दिया। औरंगजेब ने उजबेकों को हरा कर बल्ख पर कब्जा कर लिया। विजय के बावजूद मुगल इन इलाकों पर लम्बे समय तक कब्जा बनाए रखने में सफल नहीं हो सके। बदख्शां में मुगल आक्रमण से चिंतित फारस के शाह अब्बास ने 1648 की गर्मियों में इस्फहान से 40,000 की सेना के साथ मार्च किया। बोस्त पर कब्जा करने के बाद उसने कंधार को घेर लिया। 22 फरवरी 1649 को एक संक्षिप्त घेराबंदी के बाद कंधार पर सफाविदों की सेना का कब्जा हो गया। मुगलों ने 1651 में शहर को फिर से लेने का प्रयास किया लेकिन सर्दियों के आने से उन्हें घेरे को निलंबित करने के लिए मजबूर होना पड़ा। शाहजहां ने औरंगजेब को 50,000 सैनिकों के साथ भेजा। उसने सफाविदों की सेना को हरा तो दिया, लेकिन वह कंधार को कब्जे में लेने में विफल रहा।
औरंगजेब ने 1652 में कंधार के किले को फिर से फतह करने का प्रयास किया। अब बुखारा के खान अब्दुल अजीज ने शाह अब्बास के साथ गठबंधन किया और मई 1652 में उन्होंने मुगल आपूर्ति लाइनों को काट दिया। साथ ही दस हजार सैनिकों के साथ काबुल पर चढ़ाई कर दी। परिस्थितियां बिगड़ रही थी, आखिरकार 1653 में शाहजहां ने अपने सबसे बड़े पुत्र दारा शिकोह को एक बड़ी सेना और साम्राज्य के सबसे बड़े तोपखाने के साथ कंधार भेजा लेकिन पांच माह की घेराबंदी के बाद मुगलों को सफलता नहीं मिली। अंतत: मुगलों ने कंधार को पुनप्र्राप्त करने के लिए सभी प्रयासों को छोड़ दिया।
इसलिए आज यह आवश्यक है भारत खुरासान में भारतसमर्थक वातावरण बनाने का प्रयास करे। अफगानिस्तान के कूटनीतिक संबंध इसलिए अधिक आवश्यक हैं। भारत की विदेश नीति में अफगानिस्तान, ईरान और सोवियत संघ से स्वाधीन हुए कजाकिस्तान, किर्गीस्थान, तजाकिस्तान जैसे मध्य एशियाई देशों का महत्वपूर्ण स्थान होना चाहिए। वास्तव में इन प्रदेशों से होकर ही भारतीय सभ्यता पूरे विश्व में फैली है। आज फिर से हम इसका उपयोग कर सकते हैं, हमें करना ही चाहिए।
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