(प्रोफेसर ठाकुर प्रसाद वर्मा
लेखक प्रसिद्ध इतिहासकार हैं।)
पुराणों के अनुसार विष्णु के सातवें अवतार भगवान श्रीराम का जन्म चौबीसवें महायुग के त्रेतायुग के अन्त और द्वापरयुग की सन्धिकाल में हआ था। इस प्रकार गणना करने पर वे अब से लगभग एक करोड इक्कयासी लाख वर्ष पूर्व हुए थे ऐसी परम्परागत मान्यता है। अलबेरूनी ने भी पुराणों के आधार पर गणना करके यह बताया था कि श्रीराम उसके समय से 1,81,48,132 वर्ष पूर्व पैदा हुए थे। श्री गुंजन अग्रवाल ने तो उनके जन्म का वर्ष चैत्र शुक्ल नवमी के दिन अबसे (2011 ई.) 1,81,49,113 (एक करोड इक्यासी लाख उनचास हजार एक सौ तेरह) वर्ष पूर्व बताया है। डा0 रविप्रकाश आर्य का कहना है कि 24वें त्रेता एवं द्वापर की सन्धिकाल तथा पुनर्वसु में वसन्त सम्पात की सूचना के आधार पर राम जन्म का समय 900 वर्ष की परिधि में बिल्कुल सही ज्ञात किया जा सकता है। सम्प्रति वसन्त सम्पात पूर्वभाद्रपद में होता है जो कि अब पुनर्वसु के सापेक्ष लगभग 133 डिग्री पीछे चला गया है। पुनर्वसु में वसन्त सम्पात का न्यूनातिन्यून काल 13,37,29,576 वर्ष पूर्व रहा था। 24वें त्रेता एवं द्वापर का संधिकाल लगभग 1,81,37,099 वर्ष था। इस काल के आसपास पुनर्वसु नक्षत्र में वसन्त सम्पात का गणित लगभग 1,81,51,576 वर्ष पूर्व आता है। तथा इस समय से 900 वर्ष आगे तक की कालावधि के मध्य श्रीराम का काल जानना चाहिए।
पाश्चात्य खोजियों ने आजकल जो शैक्षिक वातावरण बनाया हुआ है, उसमें ऐसी बातें अविश्वास की दृष्टि से देखी जाती हैं क्योंकि उनके अनुसार मानव की ही उत्पत्ति मात्र कुछ लाख वर्षों पूर्व हुई थी और उसमें से भी एक बड़ा कालखण्ड मानव को जंगलीपन तथा प्रागैतिहासिक मानव के रूप में बिताना पडा था। सभ्यता या इतिहास का प्रारम्भ तो अब से केवल दस हजार वर्ष से ही हुआ था। साथ ही साथ यूरोपीय अध्येताओं ने विश्व की सभी संस्कृतियों के परम्परागत इतिहास को झुठलाकर अपना एक नया इतिहास बना लिया है जो कल्पनाओं, अनुमानों, अटकलबाजी तथा अज्ञानता पर आधारित है। ऐसे में मानव के इतिहास के करोडों वर्ष पहले की बात करना अकल्पनीय और अन्धविश्वास मान लिया जाना कोई बडी बात नहीं है। लेकिन अब ऐसे अनेक वैज्ञानिक तथ्य सामने आ रहे हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि श्रीराम अबसे करोडों वर्ष पूर्व हुए थे। साहित्यिक स्रोतों के साथ ही भूगर्भशास्त्र, खगोलशास्त्र, लुप्तभजीवविज्ञान शास्त्र के साक्ष्य इसी ओर संकेत करते दिखाई पड़ रहे हैं। इस विषय में कम्प्यूटर साफ्टवेयर द्वारा विकसित खगोलीय पिण्डों की गति के आधार कुछ विद्वानों द्वारा श्रीराम की तिथि पर विचार किया गया है लेकिन वे परम्परा की अनदेखी करने तथा पाश्चात्य कालगणना धौंस में होने के कारण सही निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। इन तथाकथित वैज्ञानिक अनुसंधानों की विवेचना करने बाद हम उन साहित्यिक एवं विज्ञानों की चर्चा करेंगे जो श्रीराम के काल को काफी पीछे तो ले ही जाते हैं, साथ ही मानवता के इतिहास को एक नया आयाम भी प्रदान करते हैं।
कम्प्यूटर साफ्टवेयर से तिथिनिर्धारण
वर्ष 2012 में भारतीय राजस्व सेवा की दिल्ली में नियुक्त इनकम टैक्स कमिश्नर श्रीमती सरोज बाला ने पायोनियर समाचारपत्र में एक लेख लिखा था जो मुझे इन्टरनेट के द्वारा प्राप्त हुआ। इसमें उन्होंने लिखा था कि इसी भारतीय राजस्व सेवा के एक अधिकारी श्री पुष्कर भटनागर ने अमेरिका में विकसित नक्षत्रगणना की एक तकनीकी यानी साफ्टवेयर के द्वारा ग्रह-नक्षत्रों की गतियों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि भगवान राम का जन्म आज से 7121 वर्ष पूर्व 10 जनवरी 5114 ई.पू. में हुआ था क्योंकि इस समय वाल्मीकि द्वारा वर्णित सभी ग्रह-नक्षत्र एक ही युति में थे। इसी प्रकार टाइम्स आफ इन्डिया के अप्रैल 2011 के अंक में श्री सौरभ क्वात्रा ने गणना करके भगवान राम की जन्म तिथि 4 दिसम्बर 7323 ई.पू. निर्धारित की थी। लेकिन इस प्रकार के काल-निर्धारण में इस बात को भुला दिया जाता है कि ऐसी नक्षत्रीय युतियाँ आकाशभमण्डल में निश्चित अवधि के अन्तर पर बारम्बार होती रहती हैं। जैसा कि डा. रवि प्रकाश आर्य ने बताया कि वाल्मीकीय रामायण के अनुसार श्रीराम के समय में वसन्तभसम्पात पुनर्वसु नक्षत्र में होता था जो आजकल पूर्वभाद्रपद में होता है। यह अब पुनर्वसु के मुकाबले 133 डिग्री पीछे चला गया है। अत: 24वें त्रेता में यह तिथि एक करोड इक्यासी लाख वर्ष पूर्व पडनी चाहिए। अमेरिका में विकसित यह तकनीकी यद्यपि सटीक मानी जाती है फिर भी पौराणिक कालभगणना की सभी बातों का ध्यान न रखने के कारण सभी निष्कर्ष गलत सिद्ध होने को अभिशप्त हैं। पाश्चात्य इतिहासभदृष्टि ने विश्व की सभी प्राचीन संस्कृतियों के पुराकथाओं की अवहेलना करके जिस विश्व इतिहास की रचना की है वही इस समय शैक्षिक जगत में हाबी है। उल्लेखनीय है कि पन्द्रहवीं शताब्दी ईसवी तक अज्ञान के अन्धकार में डूबे हुए यूरोपीय जन जब होश संभाला तो वे संसार के एक बड़े भाग को अपने अधीन करने में सफल तो हो गए थे लेकिन उनका सांस्कृतिक-बौद्धिक ज्ञान सीमित होने के कारण अहंकारवश विश्व की सभी प्रचीन सभ्यताओं को हीन समझने लगे थे जिसके कारण उनके द्वारा प्रसारित इतिहास भ्रमित हो गया।
भूगर्भशास्त्र का साक्ष्य
ऊपर खगोलीय साक्ष्य की चर्चा की जा चुकी है। अब भूगर्भशास्त्र के आधार को लेंगे। पुराणों के अनुसार मानव का इतिहास वैवस्वत मनु से प्रारम्भ होता है जो अब से बारह करोड़ पाँच लाख तैंतीस हजार वर्ष पूर्व हुये थे। इस मन्वन्तर के प्रारम्भ में प्रलय और मनु की नौका की स्मृति लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं में पाई जाती है। लेकिन हमें लगता है कि यदि हम इस घटना को आधुनिक महाद्वीपीय विचलन के सिद्धान्त यानी कंटिनेंटल ड्रिफ्ट थ्योरी के आधार पर देखें तो यह भारतीय उपमहाद्वीप ही मनु की वह नौका प्रतीत होने लगेगी। यह किसी समय गोन्डवाना लैंड का हिस्सा हुआ करता था जो अंटार्कटिका से जुड़ा हुआ था। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार भारतीय महाद्वीप सर्वाधिक चंचल महाद्वीप था जो लगभग उत्तर की ओर 9000 कि.मी. की यात्रा करते हुए एशिया महाद्वीप से टकरा गया। परिणामस्वरूप मेरु पर्वत (पामीर) ऊपर उठने लगा क्योंकि उसका अग्रभाग एशिया महाद्वीप के नीचे घुसने लगा था। भारतीय पुराकथाशास्त्र के अध्ययन के आधार पर तथा प्राकृतिक घाटनाओं के उसके प्रतीकात्मक वर्णन शैली को ध्यान में रखते हुए हम यही निष्कर्ष निकालना चाहते हैं कि यह भारतीय महाद्वीप ही था जिसे मनु की नौका कहा गया है। जिस नौका को मत्स्य के रूप में भगवान विष्णु स्वयं खींच रहे हों वह कोई साधारण नौका नहीं हो सकती। शतपथ ब्राह्मण (1/6/8/1/5) के अनुसार भगवान विष्णु के मत्स्यावतार ने नौका को उत्तरगिरि के श्रृंग से बाँधी थी जिसे हमारे टीकाकारों हिमवन्त कहा और उसे हिमालय पर्वत का पर्याय मान लिया गया। तदनुसार हिमाचल की कुल्लू-मनाली को मनु के अवसर्पण का स्थान माना जाने लगा, लेकिन महाभारत में हिमवतगिरि की जो पहचान बताई गई है, वह मुञ्जवान पर्वत कही गई है और मुञ्जवान पामीर (मेरु) का एक भाग है। भूगर्भशास्त्र के अनुसार भी पामीर (मेरु) पहले ऊपर उठा और हिमालय बाद में यद्यपि इस प्रक्रिया में करोड़ों वर्ष लगे थे। इसके अतिरिक्त ऋग्वेद तथा पुराणों आदि के हमारे अध्ययन के अनुसार मानवसृष्टि मेरु पर्वत पर ही प्रारम्भ हुई थी, अत: मनु की नौका को मेरु के श्रृंग पर ही बाँधा गया होगा, यह मानना चाहिए। हिमालय का उत्थान उत्तर समुद्र जिसे पाश्चात्य विद्वान टाइथस समुद्र कहते हैं, में हुआ कहा जाता है। इसके कारण हिमालय के दक्षिण का भाग, जो इस समय उत्तर भारत कहा जाता है, गहरा समुद्र ही बना रहा। जिस भूखण्ड पर आज गंगा बहती है वह उत्तरप्रदेश, बिहार तथा बंगाल का क्षेत्र किसी समय समुद्र था, इस बात की पुष्टि भूगर्भशास्त्री करते हैं। भारतीय लोग बारहवीं शताब्दी तक इसे उत्तर समुद्र तथा सौम्य सिन्धु कहते थे, यह बात हमें मलयकेतु वंश के राजा कीर्तिपाल तथा उनके पुत्र रामपाल के क्रमश: भाटपार तथा गोरखपुर के ताम्रपत्रों से मालूम होती है। वे अपने राज्य को दरदगण्डकी देश भी कहते थे।
यह समुद्र हिमालय तथा विन्ध्य की नदियों द्वारा लाई गई गाद से पटता गया। सम्भवत: इसके अन्य भूगर्भीय कारण भी रहे हों। इस समुद्र के सूखने की कथा अगस्त्य ऋषि के द्वारा समुद्र को पी जाने की प्रतीकात्मक घटना के रूप में हमारे साहित्य में वर्णित है। महाभारत के वनपर्व (अध्याय 105) में वर्णित है कि अगस्त्य के द्वारा समुद्र का जल पी जाने के बाद जब कालकेय असुरों का विनाश हो गया, तब ऋषियों ने उनसे पीए गए जल को त्याग करने का अनुरोध किया। इसपर ऋषि ने कहा कि वह तो पच गया, अब कोई दूसरा उपाय सोचो। इसके बाद ही गंगा को धरती पर लाने की कथा महाभारत के अध्याय 106 से प्रारम्भ होती है जिसमें राजा सगर, उनके पुत्रों तथा भगीरथ की कथा आती है। इस प्रकार अगस्त्य ऋषि की कथा को हमें एक ऐतिहासिक और भूगर्भिक तथ्य के रूप में स्वीकार करना होगा।
उत्तर भारत किसी समय समुद्र रहा होगा, इस बात की पुष्टि इस बात से भी होती है कि ऋग्वेद में कहीं भी काशी, कोसल, मगध आदि का नाम नहीं मिलता। इसका कारण यह है कि ऋग्वेद के समय तक यह प्रदेश समुद्र ही था। ऋग्वेद के नदीसूक्त (10/75) में गंगा के पश्चिम की ओर पडने वाली नदियों के नाम ही मिलते हैं जो मध्य एशिया तक की नदियों का नाम गिनाते हैं तथा इस सूक्त के रचयिता सिन्धुक्षित् प्रैयमेध अपने समय की मानव आबादी से युक्त भूमि को विवस्वान का सदन बताते हैं जिसमें एशिया का कुछ भाग तथा आजके पाकिस्तान और भारतीय पंजाब का भाग ही शामिल था। गंगा के पूरब की भूमि या तो जलमग्न थी अथवा दलदली और मानव आवास के लायक नहीं थी। यह धीरेभधीरे सूखती चली गई तथा मनुष्यों के रहने लायक बनती गई।
इस बात की पुष्टि शतपथब्राह्मण मेंं (1।3।4।1) विदेघा माथव की कथा से मिलती है। कहा गया है कि मथु के पुत्र विदेघा अपने मुख में वैश्वानर अग्नि धारण करते थे। राहुगण के पुत्र गौतम नामक ऋषि उनके पुरोहित थे। पुरोहित ऋषि के पुकारने पर वह प्रत्युत्तर इस भय से नहीं देते थे कि कहीं मेरे मुख से अग्नि निकल न पडे। तब पुरोहित गौतम ने उनका ऋग्वेद के एक मन्त्र (5।26।3) से आह्वान किया लेकिन राजा ने उत्तर नहीं दिया। फिर ऋग्वेद के एक दूसरे मन्त्र को पढा तब भी उन्होंने मुख नहीं खोला। अन्तत: ऋषि ने ऋग्वेद (5।26।2) का पाठ किया जिसमें घाृत शब्द तक पहुँचतेभपहुँचते वैश्वानर अग्नि विदेघा माथव के मुख से निकलकर पृथिवी पर आ पडा। विदेघा माथव उस समय तापशमन के लिए सरस्वती नदी में निमग्न हो गया। उस समय उस अग्नि ने उस स्थान को जलाते हुए पूर्व की ओर बढते हुए इस सम्पूर्ण पृथिवी को व्याप्त कर लिया। गोतम राहुगण और विदेघा माथव उस जलते हुए अग्नि के पीछे चल पडे। उस अग्नि ने मार्ग में पडनेवाली सभी नदियों (के क्षेत्रों) को सुखा दिया किन्तु सदानीरा नदी को नहीं सुखा सकी। ब्राह्मण लोग पहले इस नदी को यह सोचकर पार नहीं करते थे कि इसे वैश्वानर ने नहीं सुखाया है। चूँ कि वैश्वानर अग्नि ने उसका आस्वादन या स्पर्श नहीं किया था अत: उसके पूरब की भूमि दलदली (स्रावितरं) रह गई थी। यहाँ पहुँचकर जब विदेघा माथव ने अग्नि से पूछा कि मैं कहाँ रहूँ। तो उत्तर मिला कि ‘इस नदी के पूरब की ओर जो भूमि है वहीं निवास करो। इस उल्लेख को पाश्चात्य विद्वानों ने अपने आर्यों के भारत आक्रमण के सिद्धान्त से जोड कर देखा है जब कि इसे गंगाघााटी के सूखने तथा विदेह या मिथिला (आधुनिक बिहार) के बसने की घाटना के रूप मे देखा जाना चाहिए।
इस प्रतीक कथा का मर्म यह है कि विदेघ माथव के समय में सरस्वती के पूरब से लेकर सदानीरा (गण्डकी) तक की भूमि सूख चुकी थी और वे अपने बसने के लिए सरस्वती के तट से पूरब की ओर चले लेकिन तब तक सदानीरा तक की भूमि बस चुकी थी लेकिन उसके पूरब की भूमि दलदली थी जिसको मिथि के पुत्र विदेघा (विदेह) ने बसाया। और तब से इस क्षेत्र का नाम विदेह पडा।। रामायण में मिथि के पिता का नाम निमि दिया गया है तथा उनके पुत्र का नाम जनक बताया गया है अत: ऐसा लगता है विदेघा का अपर नाम जनक भी था। मिथि के नाम पर ही मिथिला नाम पडा। विदेहों द्वारा इस क्षेत्र को बसा देने के बाद ही पूरब की ओर आगे की भूमि बसी होगी। यह भी ध्यातव्य है कि किसी समय गंगा नदी गंगाभसागर के पास सागर में मिलती थी लेकिन अब सागरतट वहाँ से कई कि0मी0 दूर बढ गया है। ये भूगर्भिक परिवर्तन के प्रमाण यही सिद्ध करते हैं कि गंगा का मैदान कभी सागर था जिसे बारहवीं शताब्दी तक लोग उत्तरसमुद्र या सौम्यसिन्धु कहते थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के उत्तरी इलाकों के रहने वाले लोग अभी भी बरसात के समय बाढ की विभीषिका से जूझने के लिए अभिशप्त हैं। गंगा के मैदान में अनेक तीर्थ सूकरक्षेत्र के नाम से जाने जाते हैं। सूकर वराह का पर्याय माना जाता है। वराह नाम ल्लवारि के आहरणल्ल के कारण पडा जिसका सन्दर्भ वराह अवतार से लिया जा सकता है। यह शब्द सूखती हुई भूमि के लिये प्रयोग में लायी गई होगी और जहाँ पर जल सूखने में देरी के कारण तीर्थ बन गए थे उन स्थानों को वराहक्षेत्र अथवा सूकरक्षेत्र नाम दे दिया गया। आज भी ग्रामीण अंचलों में सिचाई के लिए बनाए गए नाली को बरहा कहा जाता है। अतएव कोसल के इतिहास की प्राचीनता। तदनुसार श्रीराम के काल। को चौबीसवें त्रेतायुग में सिद्ध करने के लिए भूगर्भिक प्रमाणों को संज्ञान में लेना पडेगा। इस सम्बन्ध में हमें वाल्मीकीय रामायण में कई ऐसे प्रमाण मिले हैं जो उस काल की भूगर्भिक स्थिति की सूचना दते हैं। इनकी प्रमाणों की संक्षिप्त चर्चा के बाद हम जीववैज्ञानिक प्रमाण का भी उल्लेख करेंगे जो उस समय एक लुप्त जन्तु के अस्तित्व में होने की सूचना देता है।
रामायण के भूगर्भिक उल्लेख
वाल्मीकीय रामायण में हमें तीन ऐसे उल्लेख मिले हैं जो श्रीराम के काल को करोडों वर्ष पूर्व ले जाते हैं। इससे उस काल की भौगोलिक स्थिति का भी पता चलता है। लेकिन इसके पहले यह बताना आवश्यक लगता है कि जिसे आज हम बंगाल की खाडी कहते हैं वह पहले दक्षिणसमुद्र कहा जाता था। रामायण में भी इसे दक्षिणसमुद्र ही कहा गया है। महाद्वीपीय विचलन के सिद्धान्त के अनुसार भी यह दक्षिणसमुद्र ही था (देखिए संलग्न मानचित्र)। भारतीय महाद्वीप जब उत्तर की ओर बढ रहा था तब आज का उड़ीसा तट दक्षिण दिशा में था। उसी तट पर स्थित महेन्द्र पर्वत पर से हनुमानजी ने लंका जाने के लिए छलांग लगाया था। उत्तर की ओर बढ़ते हुए जिस समय भारतीय महाद्वीप एशिया महाद्वीप से टकराया तो इसकी गति अवरुद्ध हुई और गतिज ऊर्जा के कारण वह घड़ी की उलटी दिशा में घूमने लगा। फलत: महाद्वीप का दक्षिणी हिस्सा पूरब की ओर हो गया तथा दक्षिण समुद्र पूर्वी समुद्र बन गया। इसके साथ ही ऐसा भी लगा कि विन्ध्य पर्वत ऊपर की ओर उठ रहा है। हमारे पुराकथाओं में विन्ध्य के इस भ्रामक उठान को रोकने का श्रेय अगस्त्य मुनि को दिया गया है। इस सम्बन्ध में यह बात भी ध्यान में रखने की है कि हनुमानजी ने जिस महेन्द्र पर्वत से लंका प्रस्थान किया था, वह अब समुद्र तट से तीस कि.मी. से भी अधिक दूर हो गया है। इतनी भूमि के पटने का यह कार्य कितने करोड़ वर्षों में हुआ होगा, यह भूगर्भिक गणना का विषय है। लेकिन अबसे लगभग पौने दो करोड़ वर्ष पूर्व महेन्द्र पर्वत समुद्र तट पर स्थित था, यह रामायण से ज्ञात होता है। इसके लिए हम रामायण के तीन प्रसंगों की चर्चा करेंगे। उनमें पहला प्रसंग तपस्विनी का है। वानर दल विन्ध्य में सीता की खोज करता हुआ एक तपस्विनी की गुफा में चला गया। वहाँ उनकी प्रार्थना पर तपस्विनी ने उनको बाहर निकाला तो वे समुद्र तट पर थे। तपस्विी उनसे कहती है कि यह विन्ध्य पर्वत है यह प्रस्रवण गिरि है तथा यह सागर महोदधि है। अर्थात् ये तीनों इतनी दूरी पर थे कि अंगुलि के निर्देश द्वारा दिखाया जा सकता था। यह विन्ध्य के समुद्र तट पर स्थित होने का पहला प्रमाण है। दूसरा प्रसंग सम्पाती का है जो उस समय विन्ध्यिगिरि पर निवास कर रहा था। वानरदल से मिलने के बाद अपनी कथा बताते हुए वह कहता है कि उडान भरते समय जब मैं धरती पर गिरा तो बेहोश हो गया। होश आने पर मैने देखा कि मैं निश्चित रूप से दक्षिण समुद्र के तट पर विन्ध्य पर्वत पर हूँ। यहाँ उस समुद्र को दक्षिण समुद्र कहा गया है। तीसरा प्रसंग हनुमान जी के लंका से वापस आने के बाद अपनी कहानी बताने के समय का है जिसमें भी उस समुद्र को दक्षिण समुद्र ही कहा गया है। वे कहते हैं कि आप लोगों के सामने ही मैं महेन्द्र के शिखर से दक्षिण समुद्र को पार करने की आकांक्षा से आकाश में उडा था। इस प्रकार आज का वंग आखात श्रीराम के काल मेंष आज से एक करोड इक्यासी लाख वर्ष पूर्व दक्षिण समुद्र कहा जाता था और यह उड़ीसा तट दक्षिण की दिशा में था। इसकी पुष्टि महाद्वीपीय विचलन के सिद्धान्त से भी होती है। (संलग्न चित्र देखिए)। सम्भवत: आज का आस्ट्रेलिया महाद्वीप ही उस समय की लंका था जिसके बारे में भूगर्भशास्त्रियों का मानना है कि उसका पश्चिमी तट भौगोलिक दृष्टि से उड़ीसा तट की भूमि से मिलता-जुलता है। शायद वही श्रीराम के काल की लंका रहा हो।
अब कुछ शब्द आज की श्रीलंका के बारे में कहना आावश्यक हो जाता है। यद्यपि आजकल इसे ही रावण की लंका माना जाता है लेकिन अब यह केवल आस्था का प्रश्न है इतिहास का नहीं। इसका प्राचीन नाम ताम्रपर्णी था जो ग्रीक लेखकों को भी ज्ञात था। ताम्बपर्णी नाम अशोक के अभिलेखों में भी मिलता है। अन्य साहित्य में इसे पारसमुद्र कहा गया है तथा अरब नाविक इसे इसी नाम को जानते थे। इसे कब से लंका कहा जाने लगा इस पर कोई खोज नहीं की गई क्योंकि इसकी आवश्यकता ही अनुभव नहीं की गई। वैसे तेलगु भाषा में लंका शब्द का अर्थ द्वीप बताया गया है। सम्भवत: उसी से यह नाम प्रचलन में आया हो क्योंकि रामायण का सम्यक अध्ययन करने के बाद यह लगता है कि श्रीराम को गोदावरी के पार दक्षिण की ओर जाना ही नहीं पड़ा था। गोदावरी नदी का पूर्वी भाग तेलुगु क्षेत्र में ही पड़ता है तथा महेन्द्र गिरि उड़ीसा के तट पर। डा. एच.डी. सांकलिया इसी कारण सन्देह में पड़ गये थे जिसकी लोगों ने बड़ी आलोचना की थी। उल्लेखनीय है कि ताम्रपर्णी का शुद्ध शब्द ताम्बपर्णी होना चाहिए क्योंकि इस द्वीप का आकार ताम्बूल (पान) के पर्ण (पत्ते) के समान है। अशोक के अभिलेखों में यही नाम आता है। अत: इसे श्रीराम की लंका नहीं कह सकते। वैसे लोक आस्था का सम्मान करते हुए इस पर अधिक कहना उचित नहीं होगा।
जीववैज्ञानिक प्रमाण
अब जीववैज्ञानिक साक्ष्य की चर्चा कर सकते हैं। रामायण में चार दांत वाले (चतुद्र्दन्त) हाथी का उल्लेख दो बार आया है जो अब लुप्त हो चुका है। सुन्दरकाण्ड (5/28) में उल्लेख है कि जब हनुमान लंका में विचरण कर रहे थे तब उन्होंने रावण के राज महल के द्वार पर चार दांत वाले हाथी देखे जो श्वेतवर्ण के थे। चार दांत वाले हाथी का उल्लेख इसी काण्ड में सत्ताइसवें अध्याय में (12/13) में आया है जिसमें त्रिजटा नामक राक्षसी ने स्वप्न में श्रीराम को लक्ष्मण सहित पर्वत के समान ऊँचे चार दांत वाले हाथी पर सवार देखा था। ये दोनों उल्लेख मात्र संयोग या कवि की कल्पना नहीं हो सकते क्योंकि लुप्तजीवविज्ञान यह बताता है कि चार दांतवाले हाथियों का अस्तित्व था। इसे जीववैज्ञानिक शब्दों में मस्तोदोन्तोइदये या मस्तोदोन्ते कहा गया है जो अब से तीन करोड़ अस्सी लाख वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया तथा लगभग एक करोड़ पचास लाख वर्ष पूर्व लुप्त हो गया। इस प्रकार श्रीराम के युग में, एक करोड अस्सी लाख वर्ष पूर्व, यह जन्तु न केवल अस्तित्व में था वरन् पालतू बना कर सवारी के काम में भी प्रयुक्त किया जाता था। उल्लेखनीय है कि रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि न केवल श्रीराम के समकालीन थे वरन् रामायण की कथा के एक पात्र भी थे।
इस प्रकार नवीन वैज्ञानिक शोधों से मिली जानकारियों तथा नवविकसित कम्यूटर साफ्टवेयर द्वारा निकाले गये निष्कर्षों के आधार पर श्रीराम का काल लगभग पौने दो करोड़ वर्ष पूर्व सुनिश्चित होता है। लेकिन इसके लिए साहित्यिक मान्यताओं का आदर करना सीखना पडेगा और पश्चिम के विद्वानों द्वारा फैलाये गए दुराग्रहों एवं भ्रान्तियों से मुक्ति पाना होगा।
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