वैदिक संस्कृति के शत्रु और पेरियार की विचारधारा
पेरियार (प्रसिद्ध व्यक्ति) का पूरा नाम इरोड वेंकट नायक रामास्वामी था, जो 1879 में एक हिंदू धार्मिक परिवार में पैदा हुए थे।उनकी जाति चरवाहा धनगर थी। वे तमिलनाडु के प्रमुख राजनेता थे और हिंदुत्व विरोधी थे । उनका कहना था कि हिंदुत्व दलित समाज के विनाश का कारण है। इसीलिए उन्होंने जस्टिस पार्टी की स्थापना की थी, जो दलितों को न्याय दिला सके।
वह तर्कवादी ,नास्तिक और वंचितों के अधिकारों के समर्थक थे। 1919 में गांधीवादी और कांग्रेसी के रूप में राजनैतिक सफर की शुरुआत की । वे शराब विरोधी, खादी समर्थक और छुआछूत मिटाने की इच्छा शक्ति से ओतप्रोत थे।
पेरियार ने गांधी के आदेश के विपरीत 1924 में केरल में जाकर राजा के उस आदेश का विरोध किया, जिसमें त्रावणकोर के राजा के मंदिर की ओर जाने वाले रास्ते पर दलितों के प्रवेश पर रोक लगाई गई थी। इसके विरोध में आंदोलन कर जनता को प्रेरित किया। दलितों को उनके अधिकार दिलाना और उनके अधिकारों के लिए संघर्ष करना श्री पेरियार के उस सामाजिक स्वरूप का दर्शन कराता है जिसमें वह प्रत्येक वंचित, दलित और शोषित व्यक्ति के हितों के समर्थक दिखाई देते हैं, जिस पर किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।
अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के संघर्ष में वे गिरफ्तार भी हुए और जेल भी गए । कई महीने जेल में रहे । वह कांग्रेस के मंचों पर अपनी आवाज उठाते रहे और कांग्रेस में जातीय आरक्षण के उनके प्रस्ताव कई बार फेल हुए थे। इसलिए कांग्रेस छोड़ी। बाद में गैर ब्राह्मणों ( जिन्हें वे द्रविड़ कहते थे) में आत्मसम्मान पैदा करना उनका एकमात्र उद्देश्य बन गया। उनकी विचारधारा भारतीय धर्म ,संस्कृति और इतिहास का विरोध करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी की थी। वे बाल विवाह उन्मूलन और विधवा विवाह का समर्थन करते थे।
1938 में जस्टिस पार्टी को समाप्त करके 1944 में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम डीएमके पार्टी बनाई जिसका उद्देश्य कांग्रेस को तमिलनाडु से समाप्त करना था।
उन्होंने हिंदू धर्म में अंधविश्वास में भेदभाव की जड़ों पर प्रहार किया। इसलिए वह ब्राह्मण विरोधी कहे जाते हैं ।वे दक्षिण भारतीय राज्यों के भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के भी खिलाफ थे ,इसका तात्पर्य है कि वे अंग्रेजों की गुलामी के समर्थक थे ।वह भारत का विभाजन करके दक्षिण में द्रविड़नाडु अर्थात द्रविड़ देश अलग बनाना चाहते थे । हालांकि दक्षिण के राज्यों ने उनसे सहमति व्यक्त नहीं की। 1937 में उन्होंने तमिल भाषी लोगों पर हिंदी थोपने का विरोध किया, जिससे आज तमिल लोग देश की मुख्य धारा से कट गए हैं। इस प्रकार भाषाई आधार पर देश के लोगों को बांटने की प्रवृत्ति पेरियार की विचारधारा का मुख्य अंग रही । उसी का परिणाम देश आज तक भुगत रहा है । तमिलनाडु की देखा देखी अन्य राज्यों में भी भाषायी आंदोलन बड़ी प्रमुखता से उभरे और हिंदी का विरोध इस प्रकार किया गया जैसे यह कोई विदेशी भाषा हो। जो लोग किसी अन्य विदेशी भाषा को भारत में थोपने के समर्थक रहे हैं उन्होंने उनके भाषाई आंदोलन को अपने लिए आदर्श बना लिया । जिससे हिंदी और संस्कृत को मारकर वे अपनी भाषा को स्थापित करने में सफल हो सकें । यही कारण है कि पेरियार हर उस व्यक्ति के आदर्श हैं जो भारत से द्वेष की भावना रखता है या हिंदी और संस्कृत जैसी भाषाओं से जन्मना विरोध करता है । पेरियार भारत में उन लोगों के भी आदर्श हैं जो भारत के वैदिक धर्म की वैज्ञानिकता को या उसके तार्किक स्वरूप को न समझ कर उसे अनावश्यक कोसने का काम करते रहते हैं और सृष्टि नियमों के विरुद्ध अतार्किक बुद्धि के विरुद्ध बातों को मजहबी बातें मानकर भारत के लोगों पर थोपने का कोई न कोई षड्यंत्र रचते रहते हैं।
ऐसे ही मूर्ख, अज्ञानी और भारत द्वेषी लोगों ने भारत में आर्य और द्रविड़ के मध्य विरोध पैदा करने का ऐतिहासिक कुचक्र भी रचा है । जबकि सच यह है कि आर्य और द्रविड़ का कभी कोई विरोध इस देश में नहीं रहा । यह दोनों ही मूल रूप में एक ही पुरुष पूर्वजों की संतान रहे हैं। इस प्रकार यह धारणा भी निर्मूल है कि आर्यों ने द्रविड़ लोगों को उत्तर से भगाकर दक्षिण में भेज दिया था । इस पर ऐतिहासिक शोध और अनुसंधान अब यह स्पष्ट कर चुके हैं कि इस अवधारणा को भारत में फैलाने का काम उन्हीं लोगों ने किया है जो पेरीयार जैसे लोगों की आड़ में भारत को नष्ट करने के कुचक्र में सम्मिलित रहते हैं।
दक्षिणपंथी लोग उनकी आलोचना करते हैं कि उन्होंने उनकी धार्मिक भावनाओं और परंपराओं को अपमानित किया ।निश्चित रूप से वे ब्राह्मण विरोधी थे, ऐसे अनेक क्रियाकलाप उनके जीवन के हैं ।साम्यवाद, तमिल राष्ट्रवाद, दलित आंदोलन , तर्क वाद, नारीवाद उनके जीवन मूल्य थे ।वायकोम सत्याग्रह ब्राह्मणवाद के विरुद्ध ही था। कांग्रेस के विरोध का सपना उनका 1968 में उस समय पूरा हुआ जब तमिलनाडु में डीएमके सरकार बनी।
वास्तव में पेरियार को वो लोग अधिक पसंद करते हैं जो भारत के हिंदुओं का विरोध करते हैं या जिनकी मानसिकता ब्राह्मण विरोधी है। भारत के संदर्भ में यह सर्वमान्य सत्य है कि जो व्यक्ति हिंदू विरोधी होता है वही राष्ट्र विरोधी होता है।
इसके अलावा यहां पर मैं यह भी कहना चाहूंगा कि ब्राह्मणवाद का विरोध भी देश में बहुत होता है।जो इस देश के लिए बहुत ही घातक है।परंतु यहां पर मैं यह भी कहना उचित समझता हूं कि ब्राह्मणवाद के नाम पर भी कुछ भयंकर गलतियां हुई हैं। यह तब हुआ जब ब्राह्मण एक जाति बन गई और ब्राह्मण स्वयं में ब्रह्म के ज्ञाता नहीं रहे। अतः जातीय दंभ में लोगों ने दूसरे जातियों को दबाने और कुचलने का काम किया। उन्होंने समाज में कुछ इस प्रकार की घटनाएं कीं जन्नत से किसी वर्ग विशेष के अधिकारों का हनन हुआ और वैदिक संस्कृति पतनोन्मुख हो चली । जैसे कि दलितों को अछूत मान लेना। दलितों को शिक्षा के अधिकार से वंचित करना ।यह सब गलत था
जबकि विद्या का अधिकार समान रूप से सभी को है।
महर्षि दयानंद ने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में इस प्रकार लिखा है कि राजा के अलावा क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जनों को भी विद्या का अभ्यास अवश्य कराएं।
जो ब्राह्मण हैं वही केवल विद्याभ्यास करें और क्षत्रिय आदि न करें तो विद्या, धर्म ,राज्य और धन आदि की वृद्धि कभी नहीं हो सकती ,क्योंकि ब्राह्मण तो केवल पढ़ने पढ़ाने और क्षत्रिय आदि से जीविका को प्राप्त करके जीवन धारण कर सकते हैं। जीविका के अधीन और क्षत्रिय आदि के आज्ञादाता और यथावत परीक्षक दंडदाता न होने से ब्राह्मण आदि सब वर्ण पाखंड ही में फँस जाते हैं और जब छत्रिय आदि विद्वान होते हैं, तब ब्राह्मण भी अधिक विद्याभ्यास और धर्म पथ में चलते हैं और उन छत्रिय आदि विद्वानों के सामने पाखंड झूठा व्यवहार भी ब्राह्मण नहीं कर सकते । जब क्षत्रिय आदि अविद्वान होते हैं तो ब्राह्मण जैसा अपने मन में आता है, वैसा ही करते कराते हैं। ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहें तो क्षत्रिय आदि को वेदादि सत्य शास्त्र का अभ्यास अधिक प्रयत्न से करना है। क्योंकि क्षत्रिय आदि ही विद्या धर्म राज्य और लक्ष्मी की वृद्धि करने हारे हैं, वह कभी भिक्षावृत्ति नहीं करते ।इसलिए वे विद्या व्यवहार में पक्षपाती भी नहीं हो सकते। जब सब वर्णों में विद्या शिक्षा होती है ,तब कोई भी पाखंड रूप अधर्म युक्त विद्या व्यवहार को नहीं चला सकता ।इससे क्या सिद्ध हुआ कि क्षत्रिय आदि को नियम में चलाने वाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रिय आदि होते हैं। इसलिए सब वर्ण , स्त्री_ पुरुषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिए।
आप देखेंगे कि ब्राह्मण भी क्षत्रिय के अधीन हैं और क्षत्रिय ब्राह्मण के अधीन है । कितना सुंदर ताना-बाना है और जो स्त्री पुरुष किसी भी वर्ण का हो वह विद्या का अधिकारी है ,परंतु कुछ लोगों ने महाभारत के पश्चात जब देश में अविद्या का प्रचार प्रसार ज्यादा हुआ तो अविद्वान लोगों ने अपने मन मुताबिक कुछ कार्य कर दिए । जिसकी वजह से पूरा समाज निंदित हुआ। इसी कारण संसार में अनेक मत मतान्तरों का प्रचलन हुआ। यहां तक कि ईसाइयत और इस्लाम का जन्म भी ब्राह्मणवादी जातिवादी व्यवस्था के परिणाम स्वरूप हुआ। यदि ब्राह्मण वेदों की आदर्श व्यवस्था के अनुसार संसार की व्यवस्था को चलाते रहते तो संसार में जैन, बौद्ध, इस्लाम और ईसाइयत जैसे वेद विरुद्ध मत कदापि नहीं होते। कितना दुर्भाग्य है कि जिस ब्राह्मणवादी व्यवस्था के कारण जिन मतों का जन्म हुआ आज वही वेदों और वैदिक आदर्श व्यवस्था में कमियां निकालकर भारत के समाज को तोड़ने की गतिविधियों में लगे हुए हैं। आदि शंकराचार्य से लेकर कई समाज सुधारकों ने इन वेद विरुद्ध मतों की पोल खोलने का कार्य समय समय पर किया है। जिससे वैदिक संस्कृति को बचाए रखने में सफलता मिली है।
यहां यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण ,स्त्री सभी को विद्या का समान अधिकार हमारे ऋषियों , मुनियों और वेदों ने दिया है अर्थात वैदिक विद्या प्राप्त करके अपना विकास करना सभी का परम कर्तव्य रहा है। यही भारत की विशेषता है ।यही भारत के समाज की विशेषता है। जिसको समुचित रूप में न समझकर के कुछ लोग केवल और केवल ब्राह्मणवाद की आलोचना करते हैं। मैं उनको सलाह देना चाहूंगा कि पहले वह भारत की वर्ण व्यवस्था को वैदिक शिक्षा को समझने पढ़ लें उसके बाद टिप्पणी किया करें तो ज्यादा अच्छा होगा।
अब जहां तक कुछ लोगों ने छठ पूजा पर सूर्य की उपासना करने की बात की है।कुंती कर्ण के प्रकरण को भी सूर्य की उपासना से जोड़ने का अनुचित प्रयास किया है।
मैं उस विषय में भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि यह भी सृष्टि नियम के विपरीत है। क्योंकि ऐसा कभी संभव नहीं है कि बिना माता-पिता के संयोग से लड़का उत्पन्न हुआ हो ऐसा कथन सृष्टि क्रम से विरोध होने के कारण सर्वथा असत्य है। जो सृष्टिक्रम के अनुकूल है ,वही सत्य है जो उसके विरुद्ध है ,वह असत्य है। इसलिए सूर्य की उपासना से कभी पुत्र की प्राप्ति नहीं हो सकती और न ही कुंती को इस प्रकार से करण की प्राप्ति हुई थी।कुछ लोगों ने इस पर जो टिप्पणी की है वह बहुत ही अमर्यादित लगती है।
मैं समझता हूं कि ऐसी टिप्पणी करने वाले लोग भारतीय समाज को नीचा दिखाने का कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहते हैं। यह उन्हीं लोगों की मानसिक विकृति है। क्योंकि इसमें बिना पेटीकोट और ब्लाउज के ऐसी पतली साड़ी पहननी बताई गई है जो भीगने पर शरीर से चिपक जाए । वह पूरा शरीर सूरज को दिखाई दे और आसानी से बच्चा पैदा करने का उपक्रम कर सके । यह बातें दूषित और विकृत मानसिकता को प्रदर्शित करती हैं। निश्चित रूप से यह हिंदू विरोधी व्यक्तियों की मानसिकता है। इसे ऐसे लोगों की मानसिकता भी कहा जा सकता है जो आर्य वैदिक संस्कृति के वैज्ञानिक स्वरूप को समझ नहीं सकते हैं और जो ऋत और सत्यानुकूल आचरण करने के विरोधी होते हैं। भारत के पर्वों के पीछे आध्यात्मिक कारण छिपे होते हैं। परंतु जिन लोगों की समझ कम होती है वह समझ नहीं पाते उन कारणों को तथा उन आध्यात्मिक और वैज्ञानिक आधारों को जिनके आधार पर समस्त पर्व भारतवर्ष में मनाए जाते हैं।
अब यदि हम इसी छठ पूजा के विषय में विचार करें तो देखिए सूर्य हमारी सृष्टि का और जीवन का आधार है। जिस दिन सूर्य नहीं होगा उस दिन सृष्टि नहीं होगी।
क्योंकि उस दिन वनस्पति नहीं रहेगी और जो वनस्पति नहीं रहेगी तो ऑक्सीजन पैदा नहीं होगी, प्राणवायु नहीं मिल पाएगी।जब प्राणवायु नहीं मिल पाएगी तो जीवधारी जीवित नहीं रह पाएगा।
मनुष्य को औषधि प्राप्त नहीं होंगी, सूर्य के नष्ट होने पर चंद्रमा एवं पृथ्वी सभी नष्ट हो जाएंगे। सूर्य एक देवता है। जो जीवन दाता है जो जीवन रक्षक है जो जीवन के लिए ऊर्जा प्रदान करता है। प्रत्येक प्रकार की ऊर्जा का आदि स्रोत सूर्य है। जब सूर्य नहीं होगा तो सर्वत्र अंधकार छा जाएगा। जब सूर्य नहीं होगा तो सर्वत्र बर्फ ही बर्फ होगी और हमारा जीवन संभव नहीं होगा। जड़, चेतन, सजीव निर्जीव चराचर सब समाप्त हो जाएगा। सूर्य को एक दिन समाप्त होना है – यह कालचक्र के साथ धीरे-धीरे क्षीण हो रहा है । अंततः समाप्त हो जाएगा, परंतु इस सृष्टि व प्रकृति में अगर कुछ ऐसा है जिसकी न तो कभी उत्पत्ति हुई है और जिसे न कभी नष्ट किया जा सकता है वह उर्जा है और ऊर्जा का सिर्फ स्वरूप बदलता है। ऊर्जा एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित हो जाती है। यह इसकी एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। सूर्य ऊर्जा का उत्पादक है। जबकि यही सूर्य अपने प्रचंड ताप और ऊर्जा से संसार में प्राणवायु भरता है। इसीलिए हमारे ऋषियों ने सूर्य को पूजा के योग्य बताया है, क्योंकि सूर्य पर ताप सदैव है । इसी सूर्य की उपासना का पर्व छठ हमारे लिए यही संदेश लेकर के आता है कि हमें अपने प्राण के मूल को कभी नहीं भूलना चाहिए।
हमारे अंदर जो ऊर्जा प्रवाहित हो रही है वह हमें सूर्य से ही प्राप्त होती है, इसका हमें सम्मान करना चाहिए ।
सूर्य को अर्घ्य किस लिए दिया जाता है ? इसे देने का मतलब सूर्य के लिए नमन करना होता है। नमन भी दोनों समय उगते समय भी और डूबते समय भी। इसके पीछे कारण यह है कि हम दोनों प्रकार से उसका सम्मान करते हैं। उगते हुए का भी और डूबते हुए का भी। हम डूबते हुए को भी वही सम्मान देना चाहते हैं।क्योंकि वह हमें सभी प्रकार की सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है।
सर्दी का मौसम है। सूर्य ऊर्जा का स्रोत है । गर्मी का स्रोत है । ताप का स्रोत है। इसलिए उसकी उपासना की जाती है और वह भी ठंडे पानी में खड़े होकर के की जाती है । हे सूर्य देव हमें निरंतर ऊर्जा, ऊष्मा, तेज, प्रकाश एवं दीप्ति प्रदान करते रहना। हम तेरी उपासना उगते और डूबते दोनों समय यथा सम्मान पूर्वक करते हैं।
इस पर हम यह भी विचार कर सकते हैं कि ठंडे पानी के अंदर खड़े होकर के कठोर बनने की प्रक्रिया से हम गुजरते हैं अर्थात हम कष्ट सहन करने की प्रक्रिया से गुजरते हैं। यह प्रक्रिया निरंतर 4 दिन तक चलती रहती है ।यह एक आध्यात्मिक क्रिया है। यह केवल पूजा ही नहीं है बल्कि यह योग साधना है। इसमें संपूर्ण योग है। इसमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि सभी कुछ है। काम, क्रोध, लोभ से दूर विचारों में सत्यता और ब्रह्मचर्य का आदर्श है। खानपान का नियंत्रण भी सिखाता है । अन्न व जल का त्याग कर दूसरे दिन एकांत में खरना ग्रहण करने का अनुशासन है। यह अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करने जैसा है। छठ तो प्रकृति चक्र और जीवन चक्र को समझने का पर्व है। छठ तो अंत और प्रारंभ की समग्रता को समान भाव से जीवन चक्र का हिस्सा मानने का और समझने का एक पर्व है । प्रारंभ और अंत दोनों को हम समान रूप से देखें। हम समान रूप से उसका सम्मान करें ।छठ हमको यह सिखाती है ।सूर्य की उपासना इसलिए दोनों समय की जाती है। नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में धारण करना छठ से सीखा जा सकता है। सुख सुविधाओं को त्यागना छठ से सीखा जा सकता है।
प्रकृति के हर एक अंग की उपासना करना वैदिक संस्कृति का एक अंग है। सूर्य की तरह उठना फिर सूर्य की तरह डूबना और फिर उठना ऐसे समझो जैसे कि यह हमको जीवन चक्र को समझा रही है।ऐसे मानो कि जैसे हमें यह एक नए जीवन की प्रेरणा दे रही है। क्योंकि व्यक्ति भी प्रकृति का एक अंग है। इसलिए आत्मा और परमात्मा का संबंध भी छठ पर्व से देखा जा सकता है।
भारतीय संस्कृति सर्वदा सर्वदा से उत्कृष्ट में अमूल्य रही है। सूर्य की किरणों से हमको प्रकाश ही नहीं मिलता बल्कि सूर्य की किरणें जीवनदायिनी होती हैं और उनमें सात रंग भी होते हैं।
अंत में मैं यह कहना चाहूंगा कि छठ पर्व पर मजाक करने से बाज आएं और उसकी वास्तविकता को, उसकी वैज्ञानिकता को, उसके आदर्श को, उसकी आध्यात्मिकता को ,समझने का प्रयास करें। क्योंकि भारत का प्रत्येक पर्व अपने अंदर वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए होता है।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन उगता भारत समाचार पत्र