भास्कराचार्य ने कुछ इस प्रकार नापा था पृथ्वी की परिधि को
सुद्युम्न आचार्य
[ निदेशक, वेद वाणी वितान, प्राच्य विद्या शोध संस्थान,सतना(म.प्र.)]
महाविज्ञानी आर्यभट्ट के ग्रन्थों में भूपरिधि की नाप का विधि का अस्पष्ट निर्देश प्राप्त होता है। 11वीं शताब्दी में भास्कराचार्य ने इसकी विधि का स्पष्ट उल्लेख किया है। इसे ज्ञात करने के लिये प्रमुखत: दो तथ्यों को जानना आवश्यक होता है। प्रथम, किसी निश्चित स्थान B के सापेक्ष किसी अन्य स्थान A पर पृथ्वी का झुकाव। अथवा भूमध्य रेखा के सापेक्ष उसके उत्तर या दक्षिण में किसी स्थान पर पृथ्वी का झुकाव या उसका अक्षांश। इसे प्राचीन ग्रन्थों में सार्थक रूप से अक्षांश नाम दिया गया था। इसका मौलिक अर्थ है, अक्ष यानी पृथ्वी की धुरी या केन्द्रबिन्दु से भूपरिधि के किसी बिन्दु B तक खीची गई रेखा तथा उसी केन्द्रबिन्दु से भूपरिधि के किसी अन्य बिन्दु A तक खींची गई रेखा की परस्पर कोणात्मक दूरी या अंश ही अक्षांश है। द्वितीय तथ्य, उस B स्थान से A स्थान की दूरी। इन दो तथ्यों को जानने के पश्चात् भूपरिधि को जानने के लिये अनुपात—विधि का प्रयोग होता है यदि B के सापेक्ष A स्थान के झुकाव पर B से A की अमुक दूरी हो तो गोल पृथ्वी के 360 अंश झुकाव पर कितनी दूरी होगी।
भारतीय ज्योतिष में इन सूचनाओं के आधार पर भूपरिधि का मान ज्ञात कर लिया गया था। सूर्य सिद्धान्त में पृथ्वी का मान 1600 योजन बताया है तथा 1600 & 10 को भूपरिधि माना है। प्राचीन काल में योजन का मान अनिश्चित रहा है। पर हवेन्सांग के एक विवरण के अनुसार 16,000 या हस्त का एक योजन होता है2, तथा इस प्रकार 24,000 फीट का एक योजन होगा। इंग्लिश माप के अनुसार 4854 फीट का एक मील होता है। इस प्रकार 4.94 मील का एक योजन सिद्ध होता है। इस गणना के अनुसार 7904 मील पृथ्वी का व्यास तथा 24994 मील भूपरिधि बनती है। इसे 8/5 से गुणित करने पर 39991 किलोमीटर भूपरिधि सिद्ध होती है। आधुनिक मान्यता इसके बहुत समीप है। प्रकटत: उन्होंने अपनी रीति से भूपरिधि का सही मान प्राप्त करने में सफलता पाई थी।
उपरिलिखित विवरण अनुसार इस विधि के परिचालन के लिये उस स्थान के अक्षांश का परिज्ञान आवश्यक है। इसके लिये यह श्लोक कहा गया है —
शंकुच्छायाहते त्रिज्ये विषुवत्कर्णभाजिते।
लम्बाक्षज्ये तयोश्चापे लम्बाक्षौ दक्षिणौ सदा।।
अर्थात् शंकु और उसकी छाया को अलग—अलग त्रिज्या से गुणा करके प्रत्येक गुणनफल को विषुवत्कर्ण से भाग देने पर लम्बज्या और अक्षज्या प्राप्त होती है, जिनके चाप अथवा कोण क्रमश: लम्बांश और अक्षांश होते हैं।
इससे प्रकट है कि उस स्थान A पर शंकु और कर्ण के बीच बनने वाला धनु या कोण उस स्थान का अक्षांश होता है। इसे प्राप्त करने की विधि इस प्रकार है। विषुव संक्रान्ति के दिन जब दिन रात बराबर होते हैं। अथवा यों कहें कि जिस दिन भूमध्य रेखा पर सूर्य सीधा अथवा लम्बवत् चमकता है, (स्पष्टत: उस दिन मध्याह्न में किसी सीधे शंकु या डण्डी की छाया बिल्कुल नहीं बनेगी) उस दिन उस भूमध्यरेखा से उत्तर या दक्षिण दिशा में किसी सुदूर स्थान पर 12 अंगुल की सीधी डण्डी अवनदध करते हैं। इससे उत्तर दिशा मे उत्तर कि ओर उस डण्डी की पलमा अथवा छाया पडेगी। अधिकाधिक उत्तर की ओर जाने पर यह छाया अधिकाधिक लम्बी होती जायगी इस डण्डी तथा धरती पर पडी छाया से जो कर्ण बनेगा, वह भूमध्य के सापेक्ष उस स्थान पर धरती के झुकाव को सूचित करेगा। अत: शंकु और कर्ण पर बनने वाला कोण ही वहां का झुकाव अथवा उस स्थान का अक्षांश सिद्ध होता है।
किसी कोण को बनाने वाली दो सरल रेखाओं को चाहे जितना बढ़ाया जाय, उनसे कोणात्मक दूरी बदलती नही है केवल योजानात्मक दूरी बदलती है यह यहां धरती के केन्द्रबिन्दु से परिधि तक चलने वाली दो रेखाएं बहुत बड़ी है तथा शंकु और कर्ण की रेखाएं बहुत छोटी है। फिर भी इस शंकु कर्ण पर बनने वाला कोण तदनुरूप है, अत: धरती के अक्षांश के ठीक समतुल्य कोण को प्रकट करता है। इसे रेखा गणितीय नियमो के आधार पर भी सिद्ध किया जा सकता है।
प्रस्तुत संलग्न चित्र में पृथ्वी के केन्द्रबिन्दु पर BQA कोण प्राप्त किया गया है, जो कि 30 अंश है। यही भूपरिधि के A बिन्दु का आक्षांश है। चित्र से स्पष्ट देखा जा सकता है कि इस A बिन्दु पर किसी शंकु को अवनद्ध करने पर जो छायाकर्ण बनता है, वह भी ठीक 30 अंश कोण बनाता है। इससे वराहमिहिर का यह कथन समुचित है कि यह कोण अक्षांश कोण को प्रकट करता है।
चित्र से यह भी देखा जा सकता है कि भूमध्य रेखा B पर सूर्यकिरणें सीधी लम्बवत् पड़ रही है। छोटे त्रिभुज के छायाकर्ण QB पर भी वह सीधी पड़ रही है। परन्तु हमारी दृष्टि से QB छायाकर्ण टेढ़ा है तथा क्त्र शंकु सीधा है। यह QA शंकु QB छायाकर्ण के साथ उतना कोण बनाता है, जितना कोण भूमध्य रेखा B के सापेक्ष परिधि के A स्थान पर हम स्वयं प्राप्त करते है। अत: यही कोण अक्षांश कोण है।
उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश के अमरिया जिले से होकर कर्क रेखा गुजरती है। इसके ठीक उत्तर में लखनऊ जिला है। कर्क संक्रान्ति के दिन लखनऊ में शंकु की स्थापना से 3.2 अंश का कोण प्राप्त होता है। भूमध्यरेखा से कर्क रेखा 23.36 है। अत: भूमध्य रेखा से लखनऊ का अक्षांश 23.36 +3.2 = 26.56 सिद्ध होता है। परन्तु कर्क रेखा के सापेक्ष लखनऊ जिले की धरती का झुकाव 3.2 अंश है। साथ ही यह भी जान लिया गया है कि उमरिया की कर्क रेखा से लखनऊ की दूरी 352 किलोमीटर है। अत: अनुपात विधि से भूपरिधि का मान निकलेगा
352 x 360 = 39600 किलोमीटर 3.2
इस अनुपात विधि को इस श्लोक में प्रकट किया गया है—
पुरान्तरं चेदिदमुत्तरं स्यात्तदक्षविश्लेषलवैस्तदा किम्।
चक्रांशकैरिव्यनुपात युक्तया युक्तं निरुक्तं परिधे: प्रमाणम्।।
सिद्धांत शिरोमणि, भुवनकोश, श्लोक 14
अर्थात् भूमध्यरेखा से उस आलोच्य स्थान A के अक्षांश में से कर्क रेखा के अक्षांश को घटाने पर प्राप्त अक्षांश में यदि पुरात्तर अर्थात् उस AB रेखा के बीच इतनी दूरी है, तो सम्पूर्ण चक्रांश 360 अंश में कितने योजन की दूरी होगी। इस अनुपात के प्रयोग से सम्पूर्ण भूपरिधि का प्रमाण ज्ञात होता है।
जैसे, उपरिलिखित उदाहरण में,
भूमध्य रेखा के सापेक्ष लखनऊ का अक्षांश — 26.56
कर्क रेखा का अक्षांश — 23.36
कर्क रेखा के सापेक्ष लखनऊ का झुकाव — 26.56—23.36 = 3.2
इस 3.2 अंश झुकाव पर कर्क रेखा से लखनऊ की दूरी पर अनुपात विधि का प्रयोग करने से भूपरिधि का प्रमाण ज्ञात होता है।
आधुनिक विज्ञान तथा भूगोल की पाठ्य पुस्तकों में इसके लिये एरोतोस्थोनस नामक एक प्राचीन ग्रीक विद्वान को श्रेय प्रदान किया जाता है तथा उसकी कहानी को रोचक रीति से प्रस्तुत किया जाता है। कहानी यह है कि मिश्र के सिकन्दरिया में एक विशाल पुस्तकालय था। उसके पहले पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में भूगोल के ज्ञाता एरातोस्थोनस की नियुक्ति हुई थी। उन्हें यह ज्ञात हुआ कि कर्क—संक्रान्ति के दिन सियोना नगर में वहां के कुओं में सूर्य की किरणें एकदम सीधी पड़ती हैं। लेकिन उस दिन सिकन्दरिया में सूर्य की किरणें सीधी नहीं, अपितु तिरछी पड़ती हैं। उन्होंने वहां उनके झुकाव का कोण ज्ञात किया। साथ ही उन्होंने यह भी ज्ञातकर लिया कि सियेना से सिकन्दरिया की दूरी 5,000 स्तादिया अर्थात लगभग 925 किलोमीटर थी। इस कोण तथा दूरी, इन दो सूचनाओ के आधार पर उन्होंने भूपरिधि की माप प्राप्त कर ली। उन्होंने यह देखा कि यदि कर्क रेखा के सापेक्ष सिकन्दरिया में धरती का 7.64 अंश अंश का झुकाव है तथा वहां से इनकी 925 किलोमीटर की दूरी है तो 360 अंश में 43586 किलोमीटर की भूपरिधि होगी।
कहानी के अन्य विवरण में कहा गया है कि उन्होने ओबेलिस्क पर्वत की चोटी पर कर्क संक्रान्ति के दिन धरती के झुकाव के अनुसार किरणों के झुकाव का कोण ज्ञात किया था।
यहां भास्कराचार्य के अनुसार सूत्र का उपयोग करने पर
भूमध्य रेखा के सापेक्ष सिकन्दरिया का अक्षांश— 31 अंश
कर्क रेखा का अक्षांश — 23.36
कर्क रेखा के सापेक्ष सिकन्दरिया का झुकाव— 31 अंश —23.36= 7.64
इस झुकाव पर दूरी के साथ अनुपात विधि का प्रयोग किया गया है।
आधुनिक युग में भी भूपरिधि इसी विधि से नापी जाती है परन्तु सूक्ष्म यन्त्रों के प्रयोग से यह कार्य अत्यन्त सूक्ष्मता से किया जाता है।
प्राचीन रीति से सम्पूर्ण भूपरिधि का प्रमाण ज्ञात करने के पश्चात् एक अंश में धरती के फासले को भी आसानी से जाना जाता है। प्राचीन काल में कालखण्ड के आधार पर भी धरती की दूरी का पता लगाया जाता है। उस समय एक अहोरात्र में 60 घटी माने गए थे। अत: 39600/60 = 660 किलोमीटर, यह एक घटी देशान्तर कहा जाता है। इसका निर्देश भास्कराचार्य ने एक श्लोक में प्रदान किया है।
आधुनिक युग में भी इसी रीति से एक घण्टा देशान्तर को प्रकट करने की परम्परा है। आधुनिक गणना अनुसार 1 अहोरात्र 24 घण्टे का होता है। अत: 39600/24 =1650 किलोमीटर को एक घण्टा देशान्तर कहा जाता है। घटी से देशान्तर को प्रकट करने की परम्परा आधुनिक पंचागों में भी पाई जाती है। भारतीय गणित ज्योतिष के इन ग्रन्थों में अनेक सिद्धान्त प्राप्त होते हैं, जिनसे आधुनिक खगोल विज्ञान लाभान्वित हुआ है। प्रमाणों के अभाव में यह सुनिश्चित नही हो पाता कि उनका मूल आविष्कारक कौन था। प्रस्तुत प्रसंग में भी यह बता पाना कठिन है कि भास्कराचार्य को इस सिद्धान्त के लिये कहां से प्रेरणा प्राप्त हुई। सिकन्दरिया के उस भूगोल विज्ञानी ने यह आविष्कार स्वयं किया था, यह अन्य किसी की प्रेरणा का परिणाम था।
भारत में अनेक विषयों के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में प्रणेता के काल तथा उसके विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं होती। इस देश के सबसे महान् वैयाकरण पाणिनी, सबसे बड़े कविकुलगुरु कालिदास के विषय में हम बहुत कम जानते हैं। अत एवं उनके स्थान काल आदि के विषय में विद्वानों में मतभेद बने रहते है। उन्होंने अपने ग्रन्थ की प्रेरणा के विषय में तो कुछ भी नहीं लिखा है। अतएव किसी सुनिश्चित विद्वान को किसी सिद्धान्त का मौलिक श्रेय प्रदान करना बहुत कठिन हो जाता है।