असम के लोग तीन महान व्यक्तियों का बहुत सम्मान करते हैं। प्रथम, श्रीमंत शंकर देव, जो पन्द्रवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म के महान प्रवत्र्तक थे। दूसरे, लाचित बरफूकन, जो असम के सबसे वीर सैनिक माने जाते हैं और तीसरे, लोकप्रिय गोपी नाथ बारदोलोई, जो स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान अग्रणी नेता थे।
लाचित बरफूकन ‘अहोम साम्राज्य’ के एक सेनापति थे। उनको 1671 में हुई सराईघाट की लड़ाई में उनकी नेतृत्व-क्षमता के लिए जाना जाता है। इस लड़ाई में उन्होंने रामसिंह प्रथम के नेतृत्व वाली मुग़ल सेनाओं के कामरूप पर अधिकार करने के प्रयास को विफल कर दिया था। इससे औरंगज़ेब का पूरे भारत पर राज करने का सपना अधूरा रह गया था। औरंगज़ेब चाहता था कि उसका साम्राज्य पूरे भारत के ऊपर हो लेकिन भारत के उत्तर-पूर्वी हिस्से तक वह नहीं पहुँच पा रहा था। औरंगज़ेब ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए एक विशाल सेना असम पर आक्रमण करने के लिए भेजी थी। औरंगजेब ने इस इस हमले के लिए एक राजपूत राजा को भेजा था। उस समय असम का नाम अहोम था। राजा राम सिंह अहोम को जीतने के लिए विशाल सेना लेकर निकला था।
अहोम राज के सेनापति का नाम था लाचित बरफूकन था। इस नाम से उस समय लगभग सभी लोग वाकिफ थे। पहले भी कई बार लोगों ने अहोम पर हमले किये थे जिसे इसी सेनापति ने नाकाम कर दिए थे। जब लचित को मुगल सेना आने की खबर हुई तो उसने अपनी पूरी सेना को ब्रह्मपुत्र नदी के पास खड़ा कर दिया था।
कुछ इतिहासकार अपनी पुस्तकों में लिखते हैं कि लाचित बोरफूकन (बरफुकन – बोरपूकन, नाम को लेकर आज भी थोड़ा रहस्य है) अपने इलाके को अच्छी तरह से जानता था। वह ब्रह्मपुत्र नदी को अपनी माँ मानता था। असल में अहोम पर हमला करने के लिए सभी को इस नदी से होकर आना पड़ता था और एक तरफ (जिस तरफ लाचित की सेना होती थी) का भाग ऊँचाई पर था और जब तक दुश्मन की सेना नदी पार करती थी, तब तक उसके आधे सैनिक मारे जा चुके होते थे। यही कारण था कि कोई भी अहोम पर कब्जा नहीं कर पा रहा था।
यह युद्ध सरायघाट के नाम से जाना जाता है। लाचित बरफूकन की सेना के पास बहुत ही कम और सीमित संसाधन थ। सामने से लाखों लोगों की सेना आ रही थी किन्तु लचित बरफूकन की सेना का मनोबल सातवें आसमान पर था। जैसे ही सेना आई तो कहा जाता है कि लाचित के एक-एक सैनिक ने औरंगजेब के कई सौ सैनिकों को मारा था। जब सामने वालों ने लाचित बरफूकन के सैनिकों का मनोबल देखा तो सभी में भगदड़ मच गयी थी।
इस युद्ध के बाद फिर कभी उत्तर-पूर्वी भारत पर किसी ने हमला करने का सपने में भी नहीं सोचा। खासकर औरंगजेब को लाचित बरफूकन की ताकत का अंदाजा हो गया था। मुगल सेना की भारी पराजय हुई। लाचित ने युद्ध तो जीत लिया पर अपनी बीमारी को मात नहीं दे सके। आखिर सन् 1672 में उनका देहांत हो गया। भारतीय इतिहास लिखने वालों ने इस वीर की भले ही उपेक्षा की हो, पर असम के इतिहास और लोकगीतों में यह चरित्र मराठा वीर शिवाजी की तरह अमर है।
मुख्य संपादक, उगता भारत