बुद्धिमान को चाहिए, छिपावै कुल का दोष
जैसा लेकर भाग्य नर,
आता इस संसार।
सगे सहायक वैसे मिलें,
जीविका कारोबार ॥467॥
कालचक्र तब भी चले,
जब सोता इंसान।
समा गए सब गर्भ में,
काल बड़ा बलवान ॥468॥
जन्मांध और कामान्ध को,
कुछ न दिखाई देय।
भला बुरा दिखता नहीं,
स्वार्थी को दीखै ध्येय ॥469।।
कर्मों के अनुरूप ही,
दुख सुख पावै जीव।
अपने हाथों ही चिनै,
पुनर्जन्म की नींव ॥470॥
गलती करता शिष्य हो,
तो दोष गुरु को जाए।
राज में यदि अनर्थ हो,
तो फल राजा को जाए ॥471॥
माता हो व्यभिचारिणी,
और सुंदर हो नार।
मूरख जिसका पुत्र हो,
ये सब खाँड़े की धार ॥472॥
लोभी वश में हो वित्त से,
अहंकारी कर जोड़।
मूरख को टरकाय कै,
पकड़ सुरक्षित ठौड़ ॥473॥
राजा होवे दुष्ट जब,
प्रजा होय सुखहीन।
खोटे शिष्य को ज्ञान दे,
गुरु भी हो यशहीन ॥474॥
करज में शक्ति लगा,
जैसे लगावै शेर।
निश्चित पावै सफलता,
जग में देर सबेर ॥475॥
जैसे बगुला मीन पर,
लगा दे सारा ध्यान।
मन इंद्री एकाग्र कर,
ज्ञानी की पहचान ॥476॥
बुद्धिमान को चाहिए,
छिपावै कुल का दोष।
मन में रख अपमान को,
निज धन में संतोष ॥477॥
अमृत पीये संतोष का,
मन हो जिसका शांत।
उससे ज्यादा है सुखी,
धन के लिए जो क्लांत ॥478॥
निज भोजन धन स्त्री,
में रखना संतोष।
विद्या ताप और दान में,
मत करना संतोष ॥479॥
क्रमशः