ओ३म्
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एक अदृश्य सत्ता से यह जगत बना है। उसी सत्ता ने हम जीवात्माओं के शरीर भी बनायें हैं और इस सृष्टि को देखने व भोग करने में सहायक हमें दो आंखे प्रदान की हैं। इस सृष्टि को देखकर विचारशील मनुष्यों के मन, मस्तिष्क तथा बुद्धि में इस सृष्टि के कर्ता वा रचयिता को जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। इस स्वाभाविक प्रश्न का तर्क एवं युक्तियों से सत्य सिद्ध होने वाला ज्ञान व विज्ञान हमें मत-मतान्तरों व इतर पुस्तकों में सरलता से प्राप्त नहीं होता। इसका यथार्थ उत्तर है कि यह सृष्टि इसके कर्ता व रचयिता सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक तथा सर्वज्ञ परमात्मा से बनी है। परमात्मा के अतिरिक्त संसार में ऐसी कोई सत्ता नहीं है जो इस सृष्टि को उत्पन्न कर इसका संचालन व पालन कर सके। विगत 1 अरब 96 करोड़ वर्षों से इस सृष्टि की रचना होकर पालन हो रहा है और इसमें एक सुव्यवस्था देखने को मिलती है। इस सृष्टि से पुराना इस संसार में कुछ भी नहीं है। इतनी पुरानी सृष्टि आज भी नवीन ही दिखती है। यह ईश्वर का ईश्वरत्व व महानता का बोध कराती है। सृष्टि कितनी विशाल है इसका उल्लेख हमारे वैज्ञानिक करते हैं। इससे ईश्वर की रचना शक्ति सहित सामर्थ्य एवं गुणों का भी बोध होता है। ईश्वर को यथार्थ स्वरूप में जानना संसार के प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। इसका प्रामाणिक ज्ञान हमें ईश्वरीय ज्ञान चार वेदों सहित ऋषियों के बनाये ग्रन्थ दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों एवं ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश एवं ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि में प्राप्त होता है जो सभी सृष्टि रचना पर प्रकार डालने के साथ ईश्वर से ही इसे रचा हुआ बताते हैं। यह सभी ग्रन्थ और इनके कथ्य इसलिये प्रामाणित हैं कि यह सभी ग्रन्थ ऋषियों व योगियों की रचनायें हैं जिन्होंने ईश्वर का साक्षात्कार किया हुआ था तथा जिनकी प्रतिज्ञा होती थी कि वह केवल सत्य का ही आचरण एवं प्रचार करेंगे। इस प्रतिज्ञा व आचरण से ही वह ऋषि व योगी बनते थे।
वेद संसार के सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रन्थ हैं। इसका कारण सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों को परमात्मा से वेदों के ज्ञान को प्राप्त होना है। ऋषि दयानन्द ने इस तथ्य को अपने ग्रन्थ में तर्क एवं युक्ति के साथ समझाया है। वेदों में सृष्टि रचना विषयक जो तथ्य बताये हैं उस पर भी एक दृष्टि डाल लेते हैं। ऋग्वेद10.129.7 मन्त्र में कहा गया है कि हे मनुष्य! जिस से यह विविध सृष्टि पकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्ता है, जो इस जगत् का स्वामी है, जिस व्यापक में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है। उस को तू जान और दूसरे को सृष्टिकर्ता मत मान। ऋग्वेद के एक अन्य मन्त्र में बताया गया है कि यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख एकदेशी आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामथ्र्य से कारणरूप से कार्यरूप कर दिया। ऋग्वेद मन्त्र10.129.1 में परमात्मा उपदेश करते हैं हे मनुष्यों! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार और जो यह जगत् हुआ है और आगे अनन्त काल तक होगा उस का एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था और जिस ने पृथिवी से लेके सूर्यपर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, उस परमात्म देव की प्रेम से भक्ति किया करें। यजुर्वेद के मन्त्र 31.2 में परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे मनुष्यों! जो सब में पूर्ण पुरुष और जो नाश रहित कारण और जीव का स्वामी जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है, वही पुरुष इस सब भूत भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् का बनाने वाला है। इस प्रकार वेदों में अनेक प्रकार से सृष्टि की उत्पत्ति के विषय को प्रस्तुत कर उसे ईश्वर से उत्पन्न व संचालित बताया है। यह विवरण स्वतः प्रमाण कोटि का विवरण है। ऐसा वेदों के मर्मज्ञ एवं महान ऋषि दयानन्द सरस्वती ने अपने विशद ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर कहा है। सृष्टि के आरम्भ से ही वेदों को स्वतः प्रमाण मानने की परम्परा रही है जो सर्वथा उचित है।
सृष्टि बनाने वाले ईश्वर का सत्यस्वरूप कैसा है, इस पर ऋषि दयानन्द ने प्रकाश डाला है। वह लिखते हैं कि ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। इस ईश्वर से ही यह सृष्टि जिसमें प्राणी व जड़ चेतन समस्त जगत सम्मिलित है, उत्पन्न हुआ है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में ईश्वर को प्रत्यक्ष एवं अनुमान आदि प्रमाणों के आधार पर सत्य सिद्ध किया है। ऋषि दयानन्द उच्च कोटि के योगी थे। वह समाधि को सिद्ध किये हुए थे। उन्होंने सृष्टि के रचयिता, पालन व प्रलयकर्ता ईश्वर का साक्षात्कार भी किया था। वह अपने ग्रन्थों में सर्वत्र इस सृष्टि को ईश्वर से उत्पन्न व संचालित मानते हैं। अतः यदि कोई आचार्य, विद्वान व वैज्ञानिक ऐसा नहीं मानता तो यही कहना पड़ता है कि वह वेद परम्पराओं सहित योगाभ्यास आदि से रहित होने के कारण अविद्या व अज्ञान से युक्त है। ईश्वर व सृष्टि के रहस्यों को बिना वेदाध्ययन एवं योगाभ्यास के ठीक ठीक नहीं जाना जा सकता। मत-मतान्तरों की अविद्यायुक्त बातों से भ्रम ही उत्पन्न होते हैं। अतः कोई वेदेतर मत मनुष्य को ईश्वर, आत्मा और सृष्टि विषयक सत्य ज्ञान नहीं करा सकता। ऐसा वेदाध्ययन करने से स्पष्ट होता है।
प्रकृति, जीव और परमात्मा यह तीन सत्तायें व पदार्थ अज अर्थात् अजन्मा हैं। इनका जन्म व उत्पत्ति कभी नहीं होती। इसीलिए इन्हें अनादि व नित्य कहा जाता है। यह तीन पदार्थ ही सब जगत के कारण हैं। इन्हीं से यह जगत बना है। इन तीन पदार्थों का कारण अन्य कोई पदार्थ व सत्ता नहीं है। इस अनादि प्रकृति व इससे बनी सृष्टि का भोग अनादि जीव मनुष्यादि जन्म लेकर करते हैं और इसमें फंसते अर्थात् बन्धनों को प्राप्त होते हंै। परमात्मा प्रकृति का भोग नहीं करता। अतः वह प्रकृति में नहीं फंसता अर्थात् वह कर्म फल के अनुसार मिलने वाले सुख व दुःख को प्राप्त नहीं होता। ऋषि दयानन्द ने सांख्य दर्शन के आधार पर प्रकृति का लक्षण भी लिखा है। वह लिखते हैं कि सत्व, रज और तम तीन वस्तुओं से मिलकर जो एक सघात है उस का नाम प्रकृति है। इस प्रकृति से महतत्व बुद्धि, उस से अहंकार, उससे पांच तन्मात्रा सूक्ष्म भूत और दश इन्द्रियां तथा ग्यारहवां मन, पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि पांच भूत तथा चैबीस और पच्चीसवां पुरुष अर्थात् जीव और परमेश्वर हैं। इन में से प्रकृति अविकारिणी है और महतत्व, अहंकार तथा पांच सूक्ष्म भूत प्रकृति का कार्य एवं इन्द्रियां मन और स्थूल भूतों का कारण हैं। पुरुष न किसी की प्रकृति, न उपादान कारण और न किसी का कार्य है। इसका अर्थ है कि प्रकृति में विकार होकर ही यह दृश्य जड़ जगत सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, जल, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, मनुष्य शरीर आदि बने हैं। परमात्मा तथा जीव के मूल स्वरूप में विकार कदापि नहीं होता।
संसार में ईश्वर, जीव तथा प्रकृति तीन अनादि व नित्य पदार्थ है। हमारी यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है। परमात्मा ने यह सृष्टि अपनी शाश्वत प्रजा जीवों के पूर्वजन्मों के कर्मों के सुख व दुःख रूपी फल भोग कराने के लिये बनाई है। जीव कर्म करते हैं और इसमें फंसते हैं। जो मनुष्य आसक्ति रहित होकर वेद विहित ईश्वरोपासना, अग्निहोत्र यज्ञ, पितृयज्ञ सहित परोपकार व दान आदि कर्मों को करते हैं वह योगाभ्यास कर जन्म व मरण के बन्धनों से छूट कर परम पद आनन्द से युक्त मोक्ष को प्राप्त होते हैं। यही जीव की परम गति होती है। यही सब जीवों का लक्ष्य है। इसीलिये परमात्मा जीवों को भोग व अपवर्ग अर्थात् मोक्ष प्रदान करने के लिये इस सृष्टि की रचना करते हैं। यह क्रम अनादि काल से चल रहा है और अनन्त काल तक चलेगा। यह ज्ञान वेद व वैदिक साहित्य से इतर कहीं प्राप्त नहीं होता। सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ से वेदों के यथार्थस्वरूप का बोध होता है। हमें अपनी सभी जिज्ञासाओं के समाधान के लिये सत्यार्थप्रकाश व वेद आदि ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये और मुक्ति के लिये प्रयत्न करने चाहिये। इसी में विश्व के प्रत्येक मनुष्य का हित व लाभ है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य