भारत के राजनेताओं का यह कत्र्तव्य है कि वे चुनाव से पहले मतदाताओं को अर्थात् राष्ट्र को यह बतलाएँ कि उनकी दृष्टि में भारत का बल क्या है और भारत की निर्बलता या कमजोरी क्या है? साथ ही बल को बढ़ाने के लिए और कमजोरी को खत्म करने के लिए कौन से प्रभावकारी और सुनिश्चित कदम सत्ता में आने पर उठाने की उनकी तैयारी है।
यह बहुत चिंताजनक बात है कि किसी भी चुनाव में अथवा शासन के सम्पूर्ण कार्यकाल में भी भारत के प्रमुख राजनेता भारत के बल की कोई चर्चा नहीं करते। सभ्यता की शक्ति ही भारत की शक्ति है। भारत विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है। यह विश्व का प्राचीनतम राष्ट्र है, जिसने अपनी प्राचीन संस्कृति को निरंतरत बनाए रखा है। तिब्बत और मंगोलिया जैसे अन्य राष्ट्र भी हैं, जिन्होंने प्राचीन संस्कृति को बनाए रखा है परन्तु इन दोनों ही राष्ट्रों की संस्कृति को चीन और रूस से भारी दबाव का सामना करना पड़ रहा है। भारतीय संस्कृति पर ऐसा कोई प्रचण्ड बाहरी दबाव नहीं है। वस्तुत: भारत पर ऐसा कोई निर्णायक दबाव डालने की शक्ति विश्व के किसी भी राष्ट्र में नहीं है। परन्तु इसी कारण कतिपय प्रभावशाली राष्ट्र भारत के राजपुरुषों के बीच अपने एजेंट तलाशते रहे हैं। ताकि वे उनके जरिए अपने कुछ आर्थिक और कुछ राजनैतिक स्वार्थ साध सकें। परन्तु इससे सम्पूर्ण राष्ट्र का वास्तविक बल समाप्त नहीं हो जाता। केवल उसके स्वाभाविक प्रवाह में कुछ अवरोध उपस्थित होते हैं।
इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि अंग्रेजों ने सत्ता का हस्तांतरण गांधी जी के प्रभावी हस्तक्षेप के सहारे श्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस को किया, जबकि कांग्रेस पार्टी श्री नेहरू को 1947 ईस्वी तक इसके लायक ही नहीं मानती थी। कांग्रेस कार्यकारिणी ने और प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने सरदार पटेल तथा अन्य दो लोगों के पक्ष में वोट दिए थे, श्री नेहरू के पक्ष में एक भी वोट नहीं पड़ा था। इस प्रकार इस बात की प्रबल सम्भावना है कि केवल अपने लिए अनुकूल पाकर ही अंग्रेजों ने गांधीजी से अपनी गहरी आत्मीयता और परस्पर आदरभाव का लाभ उठाकर श्री नेहरू को सत्ता सौंपने की पूरी योजना रची। अत: यह भी स्पष्ट है कि श्री नेहरू को ब्रिटेन का हित साधना था और देश के हित को उसके सामने गुनना नहीं था। रक्षा तैयारियों की उपेक्षा, भारतीय ज्ञान परम्परा की उपेक्षा, पढ़ाई से भारतीयता का सम्पूर्ण विलोप और शिक्षा पर ऐसे भारतीयता-निरपेक्ष, धर्म-निरपेक्ष राज्य का सम्पूर्ण नियंत्रण, भारतीय इतिहास को भारत में न पढ़ाया जाना, इतिहास के नाम पर गप्पों और झूठ को पढ़ाया जाना, इतिहास और मानविकी विद्याओं के क्षेत्र में पुस्तकें लिखने और पढ़ाने का काम अध्ययन में गौण रुचि रखने वाले लोगों को सौंपना, भारतीय भाषाओं और संस्कृत की महान विरासत का दमन, आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक चेतना से सम्पन्न समाज में राजनीति के नाम पर केवल सामान्य भौतिकतावादी लालसाओं और अज्ञान का पोषण- श्री नेहरू के ये सारे ही काम इस सत्य का प्रमाण हैं। सोवियत संघ का अनुसरण करते हुए भारत में योजनाएँ बनाईं गईं और विद्या के क्षेत्र को भी राजकीय नियंत्रण में लाया गया। राजकीय पूँजीवाद (समाजवाद) को बढ़ावा दिया गया और विकास के नाम पर राष्ट्रीय संसाधनों का एकतरफा हस्तांतरण जारी रखा गया। कोटा परमिट लाइसेंस राज ने लोगों का जीवन कष्टमय बना डाला। व्यापार और उद्योग जैसे विशेषज्ञता वाले कामों के विषय में निर्णय का अधिकार उन लोगों को दिया गया, जिन्हें केवल कानून व्यवस्था बनाए रखने का प्रशिक्षण मिला था।
ऐसी नितांत प्रतिकूल परिस्थिति में भी तथा राष्ट्रीय मानस पर अवांछित दबाव बनाए रखने पर भी भारत के लोगों ने हर क्षेत्र में विगत 65 वर्षों में अद्वितीय पुरुषार्थ किए हैं, यहाँ की धनसम्पदा बढ़ी है, सुख-सुविधाएं बढ़ीं हैं, समृद्धि बढ़ी है, बचत बढ़ी है, आत्मविश्वास बढ़ा है और करोड़ों लोगों की हैसियत इतनी हो गई है कि अगर दान की भारतीय परम्परा तथा इष्ट और पूर्त कर्मों की समस्त भारतीय परम्पराएँ सहज प्रवाहित रहतीं तो भारत में एक भी व्यक्ति भूखा या वसनहीन नहीं रह सकता। अभी भी, भारतीय परम्पराओं के निरादर और तिरस्कार के सरकारी अभियानों के बावजूद कई करोड़ लोग नित्य अन्न-सत्रों, लंगरों, भंडारों आदि में भोजन करते हैं और करोड़ों लोगों को रुपए तथा कपड़ों आदि का दान भी नित्य ही मिलता है। ये सब उपलब्धियाँ सरकारों के बावजूद हैं, सरकारों के कारण नहीं। इससे भारत का बल प्रगट होता है।
भारत का यह बल उसकी सभ्यता का बल है, उसकी परम्परा का बल है, उसकी संस्कृति का बल है। यज्ञीय संस्कृति भारत का प्राण है। दान और संयम भारत की परम्परा है। यह अत्यंत प्राचीनकाल से चली आ रही संस्कृति है। जिसने 65 वर्षों तक लगातार वर्ग-कलह, वर्ग-घृणा, वर्ग-विद्वेष और वर्गयुद्ध के नारकीय वातावरण की रचना के अनथक राजनैतिक प्रयासों के बावजूद भारतीय समाज में बड़ी सीमा तक संतुलन को बनाए रखा तथा नए से नए परिवर्तनों के प्रति समाज में उदारता और स्वीकृति का भाव जगाए रखा। बशर्ते वे परिवर्तन उदार चेतना, समरसता और सद्भाव से पोषित हों। यह बहुत बड़ा बल है। यह भारत की सभ्यता और संस्कृति का बल है। यह भारत का स्वभाव है। यह विश्व के प्राचीनतम राष्ट्र का स्वभाव है। भारत के इस बल को जानने पर इसके किसी भी अभाव या दोष को दूर करना चुटकियों में संभव है। सरदार पटेल ने भारत के उन परम्परागत राजाओं को, जिनसे ब्रिटिश महारानी ने बराबरी की संधि कर रखी थी और जो द्वितीय महायुद्ध में ब्रिटेन की विजय के असली आधार बने, उन सब राजाओं को इसी राष्ट्रभक्ति और प्रजावत्सलता पर आधारित महान सभ्यता के तत्वों के कारण ही, बहुत सरलता से भारतीय संघ में शामिल होने को सहमत कर लिया। यह उन राजाओं की भी उतनी ही बड़ी देशभक्ति थी, जितनी कि सरदार पटेल या गांधी जी आदि की थी। लालबहादुर शास्त्री ने सभ्यता की इसी शक्ति के बल पर देश की अन्न समस्या को अपने एक आह्वान से हल कर लिया। उसके बहुत पहले, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने सभ्यता की इसी शक्ति के बल पर आजाद हिन्द फौज बनाकर तथा भारत की स्वाधीन सरकार की घोषणा कर ब्रिटेन के पाँवों में कंपकंपी भर दी थी। जिस राजनेता ने भारत की सभ्यता की इस शक्ति को पहचाना, उसने देश की बड़ी से बड़ी समस्या सरलता से सुलझा ली।
भारत एक स्वाभाविक राष्ट्र है। इसकी संरचना ही एक राष्ट्र के रूप में सनातन है। लाखों वर्षों से यह एक राष्ट्र है। इसकी राजनैतिक सीमाएँ, सांस्कृतिक सीमाएँ और भौगोलिक सीमाएँ लाखों वर्षों से एक हैं। 1947 ईस्वी में पहली बार इस स्वाभाविक राष्ट्र की भौगोलिक और राजनैतिक तथा सांस्कृतिक सीमाओं को कांग्रेस के नेताओं द्वारा सिकोड़ा गया। 1962 ईस्वी में ज्ञात भारतीय इतिहास में पहली बार राजनेताओं ने भारतीय सेनाओं को पराजित होने के लिए विवश किया- वह भी उस चीन से जो छोटे से छोटे राष्ट्रों से हारता रहा है और जिसका विजय का कोई भी इतिहास 1948 ईस्वी से पहले का नहीं है। इस चीन को अपनी कम्युनिस्ट मैत्री के कारण श्री नेहरू ने पहले तिब्बत सौंपा और फिर भारत की भी सीमाओं का एक हिस्सा उसके कब्जे में जाने दिया। परन्तु इससे इस स्वाभाविक राष्ट्र की आंतरिक शक्ति समाप्त नहीं हुई है। इसमें अभी भी प्रचण्ड शक्ति है। भारतीय सेनाएँ विश्व की अपराजेय सेनाओं में से है। भारत विश्व का महानतम योद्धा समाज है। यहाँ के किसान और नगर के लोग, ग्रामीण और वनवासी, ब्राह्मणों और क्षत्रियों सहित सभी वर्ण तथा सभी जातियाँ लाखों वर्ष से योद्धा समाज हैं। रामायण और महाभारत हमारे प्राचीनतम महाकाव्य हैंं और वे युद्ध काव्य भी हैं। उनमें युद्ध और शस्त्रास्त्रों का जैसा विराट वर्णन है, वैसा विश्व के किसी भी उपलब्ध प्राचीन काव्य ग्रन्थ या गद्य ग्रन्थ में नहीं है।
ऐसी स्थिति में जो राजपुरुष भारत की इस सभ्यता की शक्ति को पहचानेगा, वही इस देश में बल को बढ़ाएगा और दोषों को मिटा सकेगा। इसीलिए आम चुनाव से पहले सभी संभावित सत्ताभिलाषी राजपुरुषों को सार्वजनिक तौर पर देश के समक्ष यह बताना चाहिए कि उनकी दृष्टि में भारत का बल क्या है और भारत की कमजोरियाँ क्या हैं?
अपनी सभ्यतागत शक्ति को समझने वाले भारत के लिए विश्व में मित्र देशों की विपुलता होगी। क्योंकि विश्व का ऐसा कोई भी प्रसिद्ध राज्य या राष्ट्र नहीं है, जिसकी उन्नति और प्रगति में, जिसके ज्ञान और विज्ञान के पोषण में भारत का योगदान न रहा हो। इसलिए ये सभी देश भारत के स्वाभाविक मित्र हैं। इनसे मैत्री के लिए भारत को अपनी सभ्यता का त्याग नहीं करना है। वैसे भी आज तक किसी भी देश ने भारत से यह माँग की ही नहीं है कि वह अपनी सभ्यता छोड़ दे। भारत की सभ्यता और संस्कृति तथा धर्म को निंदित और लाँछित करने का काम तो कांग्रेस सरकारों के शिक्षा और संचार विभागों द्वारा बड़े पैमाने पर किए गए हैं। इसमें कांग्रेस के कुछ नेताओं को शायद देश पर आघात करने के एवज में कुछ लाभ हुआ हो, अन्यथा तो इस काम की आवश्यकता उन्हें भी नहीं होनी चाहिए थी क्योंकि भारत के महान पूर्वज उनके भी तो पूर्वज हैं। अपने महान पूर्वजों की निंदा तो कोई बहुत कुंठित या विवश या हीन व्यक्ति ही करता है। अत: कांग्रेस के ऐसे लोगों को तरस का ही पात्र समझा जाना चाहिए। इससे भारत की मूल शक्ति बाधित नहीं हो सकती।
यदि कोई राजनैतिक दल और समूह तथा उसके शीर्ष नेता भारत के इस बल को पहचान लें, तो वे अगले पाँच वर्षों में कम से कम यह लक्ष्य तो घोषित कर ही सकते हैं- ‘शिक्षित भारत, स्वस्थ भारतÓ। इसके लिए आवश्यक होगा कि शिक्षा और औषधियों में से सभी प्रकार के टैक्स समाप्त कर दिए जाएं। शिक्षा और औषधियों से प्राप्त होने वाले कुल वार्षिक टैक्स का आकलन कर लेना चाहिए और उसके स्थान पर वह राशि अन्य मदों से प्राप्त करने का प्रबंध हो सकता है। वैसे भी लोक कल्याण के मद में खरबों रुपयों के व्यय का प्रावधान किया जाता है। ऐेसी स्थिति में उस धन का एक हिस्सा शिक्षा और औषधि को कर मुक्त करने के मद में नियोजित मान लेना चाहिए।
भारत शिक्षित और स्वस्थ रहेगा तो हर व्यक्ति और हर परिवार स्वधर्म के पालन में ही सुख पाएगा और राष्ट्र के उत्कर्ष में सहज ही योगदान दे सकेगा।
जिन विषयों का सम्बन्ध सीधे समाज से है, राज्य से नहीं, उनके विषय में राज्य को जिम्मेदारी लेने के नाम पर समाज पर बोझ नहीं बनना चाहिए। समाज के सभी काम राज्य के काम नहीं हैं। शान्ति, सुव्यवस्था, न्याय और सुरक्षा तथा राष्ट्र की सीमाओं, राष्ट्र की संस्कृति और राष्ट्र के हितों की रक्षा ही राज्य के मुख्य कार्य हैं। शेष कार्य तो समाज के अंग करते ही हैं।
इस प्रकार आगामी चुनाव में प्रत्येक दल की ओर से प्रधानमंत्री पद के सम्भावित प्रत्याशियों को यह बताना चाहिए कि उनकी दृष्टि में भारत का बल क्या है, इसकी कमजोरियाँ क्या हैं और इस दृष्टि से उनका अपना एजेंडा क्या है, तथा योजना क्या है? इसके साथ ही यह भी बताना चाहिए कि वे अगले पाँच वर्ष में क्या-क्या महत्वपूर्ण कार्य करने वाले हैं, अगले पाँच वर्षों में अंतरराष्ट्रीय पटल पर देश की क्या भूमिका देखते हैं और अगले 20, 50 तथा 100 वर्षों में विश्व में भारत की क्या भूमिका उनकी दृष्टि में होनी चाहिए और भारत की आन्तरिक संरचना में उनकी दृष्टि में क्या-क्या परिवर्तन लाने चाहिए, किन तत्वों और प्रवृत्तियों का पोषण करना चाहिए तथा कौन-सी वस्तुएँ राष्ट्र का कंटक हैं, दोष हैं, कमियाँ हैं, उनका शोधन और निवारण किस रूप में करना चाहिए।
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