बिखरे मोती-भाग 8
कभी भूलकै मत करो, स्वजन का अपमान
महादोषों से युक्त हो,
दिल में राखै बैर।
बेशक वह कुबेर हो,
त्यागने में ही खैर।। 127।।
ऐश्वर्य से युक्त को,
लेकिन हो गुणहीन।
सजन सनेही मत बना,
लेवै मान को छीन।। 128।।
जीत होवै धर्म की,
पाप की होवै हार।
आत्मचिंतन कर जरा,
अपने कर्म निहार।। 129।।
गुणों की जिसमें खान हो,
विनय होय श्रंगार।
भूसुर आया स्वर्ग तै,
सदियों में एक बार।। 130।।
थोड़े से अपकार पर,
क्रोध करै विकराल।
ऐसे नर को संतजन,
छोड़ देंय तत्काल।। 131।।
स्वजन दीन दरिद्र पर,
जो रहमत बरसाय।
पुत्र, पशु और संपदा,
कीर्ति बढ़ती जाए।। 132।।
सदाचार से होत है,
अपना भी कल्याण।
कभी भूलकै मत करो,
स्वजन का अपमान।। 133।।
स्वजन से सुख बांटना,
मत कर बैर विरोध।
ईर्ष्या द्वेष और क्रोध में,
खो मत देना बोध।। 134।।
स्वजनों से रख मित्रता,
स्वजन नाव डुबाय।
स्वजन ही इस लोक में,
दुखों से पार लगाय।। 135।।
पछतावै न दुष्कर्म पर,
बार बार दोहराय।
मूढमति फिर एक दिन,
विकट विपत में जाए।। 136।।
शास्त्र ज्ञान दे मूर्ख को,
राख में हवन रचाय।
हंसी उड़ावै लोग सब,
श्रम भी अकारथ जाए।। 137।।
देखें, सुनंै और जांच लें,
मनन करें गुणगान।
इसके बाद ही हिये में,
मीत को दें स्थान।। 138।।
अपयश को हरै नम्रता,
साहस संकट खाय।
क्षमा नष्टï करे क्रोध को,
ज्ञान अज्ञान मिटाय।। 139।।
रक्षा कर विद्वान की,
और हितकारी मीत।
संकट में ये साथ दें,
मत होना भयभीत।। 140।।
कुल से ऊंचा शील है,
भक्ति से ऊंचा धर्म।
विद्या से ऊंचा ज्ञान है,
ज्ञान से ऊंचा कर्म।। 141।।
जिनके चित से चित मिले,
मिलें गुप्ततम राज।
गहरी होवै मित्रता,
बिगड़े संवारे काज ।। 142।।
मूरख क्रोधी अहंकारी,
हो पापों में लीन।
बुद्घिमान इन्हें त्याग दे,
रह ले मित्र विहीन।। 143।।
सहनशीलता और धैर्य,
मित्रों का सम्मान।
जो इनसे भूषित रहें,
होते आयुष्मान।। 144।।
मनवाणी और कर्म से,
जिनमें होय रूझान।
कितना ही कोई रोक ले,
पहुंचे वही इंसान ।। 145।।
इंद्रियां विषय विरक्त हों,
मृत्यु से अधिक कठोर।
विषयासक्त चाहे देव हों,
मिलै नरक में ठौर।। 146।।
अर्थात इंद्रियों की विषयों से निवृत्ति मृत्यु से भी अधिक कठिन है और विषयों में अत्यधिक प्रवृत्ति तो देवों को भी नष्टï कर देती है, अर्थात विषयों में अत्यधिक प्रवृत्ति बहुत ही खतरनाक है।