गुरु हरीकृष्ण जी के बारें में
सतनाम प्रचारक गुरु हरकिशन जी
धर्म प्रचार और लोक सेवा का आदर्श कायम किया
– अनिता महेचा
भारतीय दर्शन में एक से बढ़कर एक संत-महात्मा और युगपुरुष हुए हैं लेकिन इनमें सबसे कम आयु के गुरुओं में आठवें गुरु हरकिशनजी का पूरा जीवन संदेशों से भरा हुआ है।गुरु हरकिशनजी का जन्म कीरतपुर में माता किशनकौर की कोख से 7 जुलाई 1656 में गुरुद्वारा शीश महल में हुआ था। इनके पिता गुरु हरिराय जी एक चिन्तनशील, धीर गंभीर व शांत प्रकृति के महापुरुष थे। गुरु हरकिशनजी के अग्रज का नाम रामराय जी था। किंतु उनको उनके गुरु घर विरोधी गतिविधियों में लिप्त होने एवं मुगल सामा्रज्य का चापलूस होने की वजह से सिख पंथ से निष्कासित कर दिया गया था। सन् 1661 में करतापुर में गुरु हरिराय जी का निधन हो गया और गुरु गद्दी के लिए उन्हाेंने छोटे पुत्र हरकिशन को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। सात अक्टूम्बर 1661 में गद्दी पर आसीन होने के समय उनकी आयु केवल पांच वर्ष और तीन माह थी।
औरंगजेब ने भेजा बुलावा
उस समय उनका बड़ा भाई रामराय दिल्ली में मुगल बादशाह के दरबार में था। जब उन्हें छोटे भाई के गुरु गद्दी पर बिठाये जाने का समाचार ज्ञात हुआ तो वे बेहद खफा हो गये। रामराय ने गद्दी से वंचित किये जाने की दर्द भरी दास्तान औरंगजेब को सुनाई। इस फरियाद को सुनकर बादशाह सलामत ने रामरायजी का पक्ष लेते हुऎ आमेर के राजा जयसिंह को अल्प आयु के गुरु हरकिशनजी को उनके सम्मुख पेश करने का शाही फरमान जारी किया। राजा जयसिंह ने उच्चाधिकारी कीरतपुर भेजकर गुरुजी को दिल्ली चलने का शाही आदेश सुनाया। पहले गुरुजी ने वहां चलने से इनकार कर दिया। लेकिन उनके गुर सिखों तथा राजा जयसिंह के निवेदन पर वे दिल्ली जाने के लिए तत्पर हो गये।
यों चूर हुआ अहंकार
दिल्ली जाते समय गुरु हरकिशनजी अम्बाला के निकट पंजोखरा नामक गांव में ठहरे । वहां एक पंडित लालचंद ने अंहकार में डूबकर उनसे कहा – आप बड़े गुरु बने फिरते हैं, मेरे साथ शास्त्रार्थ कीजिए, मुझे गीता के अध्यायों के अर्थ समझाइये तो मानें आपको गुरु। गुरूजी ने प्रत्युत्तर दिया और कहा – बड़े बनना तो हम जानते नहीं हैं, और न ही हमें किसी बात का अभिमान है। आप गांव के किसी व्यक्ति को बुलाकर ले आइएं, फिर उससे जो भी गीता के संबंध में प्रश्न पूछोगे तो वह आपकी शंकाओं का समाधान कर देगा।
पंडित लालचंद गांव में गया और कुछ लोगों को लेकर लौट आया। जिनमें एक व्यक्ति छज्जू था, जो जाति का झीउर था। उसे गांव का सबसे मूर्ख व्यक्ति समझा जाता था। उसे लेकर वह गुरुजी के सम्मुख पहुंचा। गुरुजी ने छजू के सिर पर अपने हाथ में थामी छड़ी रखकर लालचंद से कहा – अब आप इनसे गीता से संबंधित अध्यायों के बारे में सवाल पूछियें, जिनका उत्तर आप पाना चाहते हैं।उसके पश्चात् लालचंद प्रश्न पूछता रहा और छज्जू पूरे आत्मविश्वास के साथ उसके जवाब देता रहा। यह चमत्कार देखकर लालचंद का अहंकार काफूर हो गया। वह गुरुजी के श्रीचरणो में गिरकर उनसे क्षमा याचना मांगने लगा और उनका शिष्य बन गया।
पंजोखड़ा गांव से चलकर गुरु हरकिशन जी स्थान -स्थान पर सत्य और धर्म का उपदेश देते हुए दिल्ली पहुंचे। जब वह वहां पहुंचे तो राजा जयसिंह ने अपने बंगले पर उनका शानदार ढंग से भव्य आदर सत्कार किया। वहां बड़ी भारी तादाद में सिख श्रद्धालु उनके दर्शनार्थ एवं उनके आध्यात्मिक प्रवचन सुनने आए।
जब बादशाह को लौटा दिया
औरंगजेब ने भी गुरुजी के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। लेकिन गुरुजी ने उनसे भेंट करने से इंकार कर दिया। उन्होने कहा मेरे बड़े भाई आपके दरबार में ही हैं। यदि राजनीति के बारे में कोई विचार-विमर्श करना है तो उनसें कीजियें। मेरा काम तो सिर्फ सतनाम का प्रचार-प्रसार करना है। मुझे बादशाह से कुछ लेना-देना नहीं है।
रुग्णजनों की सेवा में समर्पित
उस समय दिल्ली में चेचक की बीमारी ने विकराल रूप धारण किया हुआ था। गुरुजी ने जी-जान लगाकर रोगियों की सेवा एवं उनकी देखभाल की। कई रोगियों के स्वास्थ्य की कामना के लिये प्रार्थनाएँ की गई। इससे उनमें से अनेक रोगी स्वस्थ हो गये। रोगियों की अत्यधिक सेवा-सुश्रुषा करने की वजह से गुरुजी भी इस रोग से पीड़ित हो गये। बीमारी के समय उनके पास उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति को ग्रन्थ साहिब के पदों का जाप करने का आदेश दिया।
शोक मनाने की मनाही
गुरुजी लम्बे समय तक बीमार रहे और अंततः उनकी स्थिति गंभीर हो गई। फलस्वरूप संवत् 1721 तद्नुसार ईस्वी 1664 के चैत्र मास शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को शनिवार के दिन उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। उन्होंने अपने अनुयायियों से उनके ज्योति-जोत में लीन होने पर शोक मनाने से इंकार कर दिया था। वे प्रसन्नतापूर्वक इस संसार से विदा हुए। यमुना के पश्चिमी तट पर दक्षिण दिल्ली में तिलोखारी स्थान पर उनका दाह-संस्कार किया गया। वहां आज गुरुद्वारा बाला सहिब बना हुआ है।
चिरस्थायी है गुरुजी की यादें
दिल्ली में अपने निवास के समय गुरुजी जहां ठहरे थे वहां भी बाद में एक गुरुद्वारा बनाया गया जो आज‘गुरुद्वारा बंगला साहिब’ के नाम से जाना जाता है। गुरु हरकिशनजी ने अपने अंतिम समय में जीवन लीला समाप्त होने से पूर्व गद्दी की मोहर अपने दादा के छोटे भाई तेगबहादुर जी के पास भिजवा दी थी। वह व्यास नदी के तट पर गौइन्दवाल के निकट बकाला गांव में निवास करते थे।धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था तथा मनुष्य मात्र की सेवा को सर्वोपरि फर्ज मानने वालेे गुरु हरकिशनजी द्वारा दिया गया मानवता की सेवा का संदेश आज भी प्रासंगिक तथा अनुकरणीय है।
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अनिता महेचा
कलाकार कॉलानी
जैसलमेर 345001