धर्म की बड़ी विस्तृत परिभाषा है। इसके विभिन्न स्वरूप हैं। संसार की सबसे प्यारी चीज का नाम है-धर्म। आप सड़क पर चले जा रहे हैं, किसी की अचानक दुर्घटना हो जाती है, आप रूकते हैं, और अपने आप ही उधर सहायता के लिए दौड़ पड़ते है। सहायता के लिए आपके हृदय में करूणा उमड़ी-इस प्रकार आपकी करूणा का यह भाव उस समय आपका धर्म बन गया। जिसने भीतर की जाति, पंथ, सम्प्रदाय की कई दीवारों को गिराया और करूणा की नौका पर तैरती आ रही आपकी मानवता किसी के प्राणों की रक्षक बन गयी। कहीं यह आपका धर्म किसी के प्रति संवेदना व्यक्त करने में प्रकट होता है, कहीं सहानुभूति व्यक्त करने में प्रकट होता है। कहीं कोई कसाई मुर्गा, बकरा या किसी अन्य पशु को काट रहा होता है तो वहां आप दयाभाव से भर जाते हैं, तब आपका धर्म आपका दयाभाव बनकर आता है। कहीं आप किसी पर कृपालु हो जाते हैं तो आपकी कृपालुता वहां आपका धर्म बन जाती है।
वेद ने कहा कि द्यौ, अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, औषधियां, वनस्पतियां, संपूर्ण विश्व, विश्व का रचयिता ब्रह्म और स्वयं शान्ति की भावना ये सब अपने आप में शांत हैं, व्यवस्थित हैं, पूरी तरह सिस्टेमेटिक है, कहीं कोई उपद्रव नही, उत्पात नही, किसी प्रकार का कोई उग्रवाद नही। सारे के सारे अपने मर्यादा पथ में रहकर या अपनी अपनी साधना में लगे रहकर शान्ति का संगीत निकाल रहे हैं। हे, अशान्त मना मानव ! तू शांति के इस संगीत का, मधुरस का दीवाना बन और फिर बड़ी मस्ती से उस दीनदयालु ईश्वर से कह कि ‘शांन्ति: सा मा’ अर्थात जिस व्यवस्था से द्यौलोक से लेकर वनस्पतियां तक व्यवस्थित हैं, शांति में झूम रही हंै, वही शांति हे जगन्नियन्ता तू मुझे भी दे। सारा संसार आज अव्यवस्थित है। इसके शांति के गीत में भी अव्यवस्था है, असंतुलन है, संकीर्णता है, और कुटिलता है। लीग ऑफ नेशन्स की स्थापना इसने शांति के लिए की, लेकिन विभिन्न देशों से करोड़ों डालर खर्च कराके बनी वह शानदार बिल्डिंग विश्व में शांति का मंदिर नही बन पायी। क्योंकि वहां जितने भर भी पुजारी बैठे थे वे सब के सब स्वयंभू पुजारी थे। किसी की भी पूजा के पीछे साधना की शक्ति नही थी, भक्ति नही थी। सबके सब एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए स्वयं अव्यवस्थित असंतुलित और कुटिल होकर बैठे थे। परिणाम स्वरूप विश्व और भी अधिक तनाव की ओर बढ़ने लगा और द्वितीय विश्व युद्घ की विनाशकारी विभीषिकाओं में जाकर भारी विनाश का साक्षी बना। कारण था कि धर्म को व्यवस्था का और शांति का पर्यायवाची नही माना गया। बल्कि धर्म को (मजहब को) परस्पर ईर्ष्याभाव, द्वेषभाव व घ़णा के भावों का पर्याय बना दिया गया ये समझा ही नही गया कि शांति कहते किसे हैं, और इसकी मूल परिकल्पना का आधार क्या है? द्यौ से लेकर वनस्पतियों को किसी सृष्टïा की बेतरतीब चीजें समझा गया और माना गया कि इन सबमें उत्तम तो मानव है। इसलिए उसे किसी के धर्म को समझने की और उसका अनुकरण करने की आवश्यकता नही है। धर्म तो हम बनाएंगे, हम स्थापित करेंगे और अपने अपने धर्म में सारी मानवता को रंगने के लिए तलवारों का सहारा लेंगे। भौतिक धर्म नैसर्गिक धर्म पर हावी हो गया, फलस्वरूप सारा संसार अव्यवस्था और अशांति का शिकार हो गया। दुर्भाग्य है इस मानवता का कि आज भी इस विश्व में व्यवस्था के कथित पैरोकार भौतिक धर्मों की शरण में जाकर ही विश्वशांति की तलाश कर रहे हैं। नैसर्गिक और वास्तविक धर्म कहीं विस्मृत कर दिया गया।
हमारे ऋषि पूर्वजों को वेद ने बताया था-
ओउम! यां मेधां देवगणा: पितरश्चोपासते।
तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरू:।।
अर्थात शांति और व्यवस्था की स्थापना के लिए जिस मेधा की उपासना हमारे ऋषि पूर्वज देवगण करते आए हैं, आज बुद्घि प्रदाता दयानिधे…! वही मेधा तू मुझे भी दे। ऐसी मेधा जो संकीर्णताओं से मुक्त हो, जो मेरे व्यक्तित्व को विस्तार दे जो मुझे सबका और सबको मेरा बनाने में सहायता करे, मुझे दो। मैं सारे जगत में व्याप्त धर्म की व्यवस्था के मदमस्त संगीत का रसिया बनूं, और उस संगीत से झरने वाले अमृत रस को सारे संसार में बिखेरता घूमूं, जिससे कि विश्व में सर्वत्र ज्योतिर्लिंग स्थापित हो जाए। शांति की ऐसी प्रार्थना कहीं पर भी नही है। इसीलिए आज शांति के कहीं दर्शन नही हैं। विश्व को धर्म के नाम पर भ्रमित किया जा रहा है। जो धर्म है उसकी चर्चा नही होती और जो धर्म नही है उसे पूजा जा रहा है। उसी के नाम पर विश्व में खेमे बंदियां बढ़ रही हैं, उग्रवाद, आतंकवाद, उन्माद, उत्पात इत्यादि फैल रहे हैं। इन सबके बीच में शांति खोजी जा रही है। मरने पर शांति के द्वीप जलाए जाते हैं, मजारों पर रोशनी की जाती है, और जीते जी द्वीपों को बुझाया जाता है अंधेरा फैलाया जाता है। इस दोरंगी चालों के बीच शांति या तो शमशान में मिल रही है या फिर आतंकी घटनाओं के बाद फैली लाशों के पास दीखती है। यह अलग बात है कि आप उसे शांति की संज्ञा ना दें। परंतु आज के विश्व का सच यही है। धर्मनिरपेक्षता धर्म से निरपेक्ष भावों को बताती है। बात स्पष्टï है कि जीवनप्रद मूल्यों के विपरीत आचरण करना ही धर्मनिरपेक्षता है, जबकि मनुष्य के लिए धर्म से निरपेक्ष रह पाना संभव नही है। यदि मनुष्य ऐसी सोच बनाता है तो निश्चित रूप से यह उसके विनाश का रास्ता है। आवश्यकता धर्म के विषय में भ्रमित होने की नही है, अपितु धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझकर आत्मसात करने की है।
लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है