17 नवम्बर/बलिदान-दिवस
‘‘यदि तुमने सचमुच वीरता का बाना पहन लिया है, तो तुम्हें सब प्रकार की कुर्बानी के लिए तैयार रहना चाहिए। कायर मत बनो। मरते दम तक पौरुष का प्रमाण दो। क्या यह शर्म की बात नहीं कि कांग्रेस अपने 21 साल के कार्यकाल में एक भी ऐसा राजनीतिक संन्यासी पैदा नहीं कर सकी, जो देश के उद्धार के लिए सिर और धड़ की बाजी लगा दे…।’’
इन प्रेरणास्पद उद्गारों से 1905 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी नगर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में लाला लाजपतराय ने लोगों की अन्तर्रात्मा को झकझोर दिया। इससे अब तक अंग्रेजों की जी हुजूरी करने वाली कांग्रेस में एक नये समूह का उदय हुआ, जो ‘गरम दल’ के नाम से प्रख्यात हुआ। आगे चलकर इसमें महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक और बंगाल से विपिनचन्द्र पाल भी शामिल हो गये। इस प्रकार लाल, बाल, पाल की त्रयी प्रसिद्ध हुई।
लाला जी का जन्म पंजाब के फिरोजपुर जिले के एक गाँव में 28 जनवरी, 1865 को हुआ था। अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के लाला लाजपतराय ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से फारसी की तथा पंजाब विश्वविद्यालय से अरबी, उर्दू एवं भौतिकशास्त्र विषय की परीक्षाएँ एक साथ उत्तीर्ण कीं। 1885 में कानून की डिग्री लेकर वे हिसार में वकालत करने लगे।
उन दिनों पंजाब में आर्यसमाज का बहुत प्रभाव था। लाला जी भी उससे जुड़कर देशसेवा में लग गये। उन्होंने हिन्दू समाज में फैली वशांनुगत पुरोहितवाद, छुआछूत, बाल विवाह जैसी कुरीतियों का प्रखर विरोध किया। वे विधवा विवाह, नारी शिक्षा, समुद्रयात्रा आदि के प्रबल समर्थक थे। लाला जी ने युवकों को प्रेरणा देने वाले जोसेफ मैजिनी, गैरीबाल्डी, शिवाजी, श्रीकृष्ण एवं महर्षि दयानन्द की जीवनियाँ भी लिखीं।
1905 में अंग्रेजों द्वारा किये गये बंग भंग के विरोध में लाला जी के भाषणों ने पंजाब के घर-घर में देशभक्ति की आग धधका दी। लोग उन्हें ‘पंजाब केसरी’ कहने लगे। इन्हीं दिनों शासन ने दमनचक्र चलाते हुए भूमिकर व जलकर में भारी वृद्धि कर दी। लाला जी ने इसके विरोध में आन्दोलन किया। इस पर शासन ने उन्हें 16 मई, 1907 को गिरफ्तार कर लिया।
लाला जी ने 1908 में इंग्लैण्ड, 1913 में जापान तथा अमरीका की यात्रा की। वहाँ उन्होंने बुद्धिजीवियों के सम्मुख भारत की आजादी का पक्ष रखा। इससे वहाँ कार्यरत स्वाधीनता सेनानियों को बहुत सहयोग मिला।
पंजाब उन दिनों क्रान्ति की ज्वालाओं से तप्त था। क्रान्तिकारियों को भाई परमानन्द तथा लाला लाजपतराय से हर प्रकार का सहयोग मिलता था। अंग्रेज शासन इससे चिढ़ा रहता था। उन्हीं दिनों लार्ड साइमन भारत के लिए कुछ नये प्रस्ताव लेकर आया। लाला जी भारत की पूर्ण स्वाधीनता के पक्षधर थे। उन्होंने उसका प्रबल विरोध करने का निश्चय कर लिया।
30 अक्तूबर, 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में एक भारी जुलूस निकला। पंजाब केसरी लाला जी शेर की तरह दहाड़ रहे थे। यह देखकर पुलिस कप्तान स्कॉट ने लाठीचार्ज करा दिया। उसने स्वयं लाला जी पर कई वार किये। लाठीचार्ज में बुरी तरह घायल होने के कुछ दिन बाद 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी का देहान्त हो गया। उनकी चिता की पवित्र भस्म माथे से लगाकर क्रान्तिकारियों ने इसका बदला लेने की प्रतिज्ञा ली।
ठीक एक महीने बाद भगतसिंह और उनके मित्रों ने पुलिस कार्यालय के बाहर ही स्कॉट के धोखे में सांडर्स को गोलियों से भून दिया।
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17 नवम्बर/इतिहास-स्मृति
अमर बलिदान का साक्षी मानगढ़
मानगढ़ राजस्थान में बांसवाड़ा जिले की एक पहाड़ी है। यहां मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमाएं भी लगती हैं। 17 नवम्बर, 1913 को यह पहाड़ी ऐसे अमर बलिदान की साक्षी बनी, जो विश्व के इतिहास में अनुपम है।
यह सारा क्षेत्र वनवासी बहुल है। मुख्यतः यहां महाराणा प्रताप के सेनानी अर्थात भील जनजाति के हिन्दू रहते हैं। स्थानीय सामंत, रजवाड़े तथा अंग्रेज इनकी अशिक्षा, सरलता तथा गरीबी का लाभ उठाकर इनका शोषण करते थे। इनमें फैली कुरीतियों तथा अंध परम्पराओं को मिटाने के लिए गोविन्द गुरु के नेतृत्व में एक बड़ा सामाजिक एवं आध्यात्मिक आंदोलन हुआ।
गोविन्द गुरु का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में गोवारिया जाति के एक बंजारा परिवार में हुआ था। बचपन से उनकी रुचि शिक्षा के साथ अध्यात्म में भी थी। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से उन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपनी गतिविधियों का केन्द्र वागड़ क्षेत्र को बनाया।
गोविन्द गुरु ने 1903 में ‘सम्प सभा’ की स्थापना की। इसके द्वारा उन्होंने शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने; परिश्रम कर सादा जीवन जीने; प्रतिदिन स्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने; विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय न सहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार न करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार कर स्वदेशी का प्रयोग करने जैसे सूत्रों का गांव-गांव में प्रचार किया।
कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बन गये। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे। लोग हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत शस्त्र लेकर आते थे। मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी। इससे वागड़ का यह वनवासी क्षेत्र धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा।
17 नवम्बर, 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने शासन को पत्र द्वारा अकाल से पीड़ित वनवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार के नाम पर उन्हें परेशान न करने का आग्रह किया था; पर प्रशासन ने पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपें लगा दीं। इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया।
उस समय तक वहां लाखों भगत आ चुके थे। पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोलीवर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे हजारों लोग मारे गये। इनकी संख्या 1,500 से लेकर 2,000 तक कही गयी है। पुलिस ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दी।
1923 में जेल से मुक्त होकर वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहांत हुआ। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को वहां बनी उनकी समाधि पर आकर लाखों लोग उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
स्वतंत्रता संग्राम में अमृतसर के जलियांवाला बाग कांड की खूब चर्चा होती है; पर मानगढ़ नरसंहार को संभवतः इसलिए भुला दिया गया, क्योंकि इसमें बलिदान होने वाले लोग निर्धन वनवासी थे।
(संदर्भ : दैनिक स्वदेश, इंदौर 16.12.2011…आदि)
………………………….इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196
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