आज का चिंतन-12/07/2013
आधे आसमाँ का उत्थान तभी
जब नारी जगत में जगे औदार्य
डॉ. दीपक आचार्य
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दुनिया में आधे आसमाँ की ताकत कितनी होती है इसे आदिकाल से स्वीकारा और समझा जाता रहा है लेकिन आधे आसमाँ के साथ होने वाले अन्याय पर यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो असल बात यह सामने आएगी कि इस आसमाँ में कहीं न कहीं कोई सुराख जरूर है जिसमें से उदारता, संवेदनशीलता और परहित के भाव पलायन करने लगे हैं तभी यह स्थिति सामने आयी है अन्यथा आधे आसमाँ की ताकत को मनुष्य तो क्या असुरों से लेकर देवताओं तक ने और गांवों, शहरों और महानगरों से लेकर सियासतों और रियासतों तक ने चाहे-अनचाहे स्वीकारी है और महानता के शिखरों के करीब पाया है।आधे आसमाँ की समस्याओं और विषमताओं तथा अभावों के लिए पौरुषी भाव भरी मानसिकता के पसरे हुए आसमान को ही दोष देना ठीक नहीं है। आधे आसमाँ की एक छोटी सी नोक पौरुषी मानसिकता से भरे हुए विराट गुब्बारे की हवा निकालने में समर्थ है। इस दृष्टि से नारी समस्याओं और नारी पर होने वाले अन्याय को जानने, समझने के लिए नारी मनोविज्ञान की परंपरागत दिशा और दशा में बदलाव लाने की जरूरत है।
हालांकि शिक्षा-दीक्षा और समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में नारियों की भागीदारी और हुनर की बदौलत हाल के वर्षों में इस दिशा में खूब सकारात्मक परिवर्तन जरूर आया है। इसके बावजूद समग्र बदलाव के लिए यह जरूरी है कि आधे आसमाँ के भीतर ही कुछ परिवर्तन की भावभूमि रचनी होगी।महिलाओं को अपनी बहुआयामी भूमिकाओं के मध्य ममत्व और औदात्य की भावनाओं का पूरी परिपूर्णता के साथ समन्वय स्थापित करना होगा। आज महिलाएं ही महिलाओं की शत्रु हैं और इसी वजह से ननद-भाभी, सास-बहू आदि के रिश्तों में कड़वाहट परंपरा बन चुकी है।ऎसे में हर महिला को यह अच्छी तरह समझना होगा कि उसे अपने सम्पूर्ण जीवन में ननद, सास, बहू आदि के किरदार अनिवार्य रूप से निभाने होते हैं। आज जो बहू है वह भावी सास होगी। ऎसे में हर किरदार को निभाने में नारी को अपनी शाश्वत मर्यादा, ममत्व और औदात्य भरे स्वरूप को नहीं भूलना चाहिए। हर रिश्ते को अपनी स्पष्ट सोच के साथ पारिवारिक सुख-समृद्धि एवं शांति के साथ सामूहिक प्रगति के उद्देश्य को सामने रखकर निभाना होगा।आज नारी सास के रूप में क्रूर और बहू के रूप में अबला और ननद के रूप में विवशता की जिन्दगी जी रही है और इसका मूल कारण एक ही नारी का अलग-अलग किरदारों में पृथक-पृथक व्यवहार का होना है।
सास, बहू, ननद आदि की भूमिकाओं को निर्वाह करते हुए नारी को सदैव यह गौरवाभिमान होना चाहिए कि वह पहले नारी है। ऎसा हो जाने पर तमाम रिश्तों में माधुर्य का ज्वार अपने आप लाया जा सकता है।
महिलाओं में असीमित सामथ्र्य होने के बावजूद आत्महीनता ही वह सबसे बड़ा कारण है जिसकी वजह से महिलाओं का अपेक्षित विकास नहीं हो पा रहा है। हालांकि जो इन संकीर्णताओं से ऊपर उठ चुकी हैं वे जमाने भर में अपने हुनर की धाक जमा रही हैं।भारतीय समाज में नारी की महिला सर्वोपरि रही है किन्तु मध्यकालीन युग में बाहरी शक्तियों के दबदबे की वजह से महिलाओं के उत्पीड़न का दौर शुरू हुआ और इससे इज्जत लूटने, पर्दा प्रथा, बाल एवं बेमेल विवाह की परम्पराएं चलीं। वस्तुत भारतीय सांस्कृतिक परिवेश में महिलाओं का दर्जा पूर्ण आदर और सम्मान का रहा है। हमारी प्राचीन परंपरा में यह आदर सम्मान पुरुषों के मुकाबले कहीं ज्यादा तथा गौरवशाली रहा है। यही कारण है कि युगल नामकरण में स्त्री का नाम पहले आता है और पुरुष का बाद में।एक महिला ही घर की दूसरी महिला की दुश्मन होती है। इस नकारात्मक चिन्तन को रोकना होगा तभी घर का माहौल स्वस्थ रह सकता है। आमतौर पर देखा यह जाता है कि बहूएं प्रताड़ित की जाती हैं, जलाई जाती हैं, उसमें सास का ही ज्यादा योगदान होता है, पति का कम।यह दुर्भाग्य की बात है कि महिलाओं के विकास के लिए आज महिलाओं की अपेक्षा पुरुष ज्यादा सार्थक भूमिका निभा रहे हैं। चाहे महिला आरक्षण की बात हो या नारी सम्मान की। ऎसे में अपने विकास के लिए खुद महिलाओं को संगठन के साथ आगे आना होगा तभी वास्तव में महिलाओं का विकास हो सकता है।
महिलाओं को चाहिए कि वे जीवन में अपने विभिन्न रोल अदा करते वक्त नारी मर्यादा, सामथ्र्य और स्वाभिमान को न भूलें। पत्नी, माँ, बेटी, सास, ननद आदि तमाम भूमिकाओं में यदि सहनशीलता और माधुर्य के बिन्दुओं को अंगीकार किया जाए तो घर-परिवार एवं समाज का वातावरण सौहार्दपूर्ण बना रह सकता है।