ओ३म्
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हमारा संसार नास्तिक और आस्तिक विचारों के लोगों में बंटा हुआ है। अधिकांश लोग ईश्वर की सत्ता वा अस्तित्व में विश्वास रखते हैं और अन्य मनुष्य जिनकी संख्या करोड़ों व अरबों में है, विश्वास नहीं भी करते। मनुष्य का विश्वास सत्य ज्ञान व सत्य तर्कों पर आधारित हो तो वह मान्य होता है, अन्यथा नहीं। कई विषयों में हमारे पढ़े लिखे बन्धु भी अज्ञानतावश असत्य को सत्य और सत्य को असत्य मान बैठते हैं। ऐसा ही हमारे नास्तिक बन्धु ईश्वर को न मानकर एक सत्य सत्ता को न मानने का कार्य करते हैं। ईश्वर यद्यपि आंखों से दिखाई नहीं देता परन्तु उसका अस्तित्व अनेक प्रमाणों से सिद्ध होता है। नास्तिकों का तो मानना है कि ईश्वर दिखाई नहीं देता, अतः उसका अस्तित्व नहीं है। यह अज्ञानता की बात है। संसार में अनेक ऐसे पदार्थ हैं जो अत्यन्त सूक्ष्म हैं, इस कारण वह दिखाई नहीं देते, परन्तु क्या साधारण मनुष्य और क्या ज्ञानी व वैज्ञानिक, उन सभी पदार्थों के अस्तित्व व सत्ता को मानते हैं।
हम वायु को आंखों से नहीं देखते परन्तु हमारी त्वचा इन्द्रिय स्पर्श गुण से उसका अनुभव कराती है। हम पुष्पों में सुगन्ध को भी नहीं देखते परन्तु हमारी नासिका अर्थात् नाक उस सुगन्ध का हमें अनुभव कराती है। इसी प्रकार आकाश में वायु के साथ जल भी संयुक्त रहता है। वह जल व जल कण आंखों से दिखाई नही देते। वही जल वर्षा होने पर हमें प्रत्यक्ष दिखाई देता है। जो जल आकाश में दिखाई नहीं दे रहा था वह हमें वर्षा होने पर अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति कराता है कि वह उससे पूर्व सूक्ष्म कणों के द्वारा वायु के साथ गैसीय रूप में विद्यमान था। आजकल कोरोना का रोग चल रहा है। यह किसी सूक्ष्म विषाणु से हो रहा है। विषाणु अत्यन्त सूक्ष्म है। छूकर व वायु में उड़कर कुछ दूरी पर से यह दूसरे मनुष्य में प्रविष्ट हो जाता है। यह दिखाई नहीं देता परन्तु रोग हो जाने पर पीड़ित मनुष्य, उसके परिवारजन तथा चिकित्सक सभी कोरोना के किटाणु के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। जो किटाणु आंख से दिखाई नहीं देता, वही परीक्षण करने पर परीक्षकों द्वारा पाजिटिव और न होने पर नेगेटिव बताया जाता है। परीक्षणकर्ता कोरोना के सूक्ष्म किटाणुओं का प्रत्यक्षीकरण कर उसके होने व न होने की पुष्टि करते हैं। अतः ईश्वर का दिखाई न देना ईश्वर का न होने का प्रमाण नहीं है।
ईश्वर अपने गुणों के कारण सृष्टि में विद्यमान है और हम उसका अनुभव करते व कर सकते हैं। योगाभ्यास व समाधि को सिद्ध कर भी ईश्वर का साक्षात् किया जा सकता है। हमारी यह विशाल सृष्टि एक अपौरुषेय सत्ता ईश्वर के द्वारा ही बनाई गई है। यह सृष्टि व इसके नियमो का संचालन व व्यवस्थापक एक परमात्मा ही है। नास्तिक वा ईश्वर को न मानने वाले वैज्ञानिकों के पास इस बात का समुचित उत्तर नही है कि इस विशाल सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, रचयिता, संचालक, पालक, जीवात्माओं को जन्म देने व उनका पालन करने वाला कौन है? इसका एक ही उत्तर है कि इन सबका रचयिता व पालक तथा आधार एक चेतन, अनादि, नित्य, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान सत्ता है जिसे वेदों में उसके गुणों के अनुरूप अनेक नामों से पुकारा गया है। ईश्वर भी उसके असंख्य गुणों व नामों में से एक नाम है। ईश्वर के सत्य स्वरूप का वर्णन स्वयं ईश्वर ने अपने नित्य ज्ञान चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में सृष्टि के आरम्भ में ही करके अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न सभी स्त्री-पुरुषों के प्रतिनिधि चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा को कराया था। वेदों में जो कहा व बताया गया है, वह सम्पूर्ण रूप से सृष्टि में घट रहा है।
वेद संस्कृत में हैं। वेदोंगों का अध्ययन कर वेदों के अर्थ व भावों को यथार्थ रूप में जाना जा सकता है। ऋषि दयानन्द ने वेदोंगों का अध्ययन किया था। उन्होंने वेदों के प्रत्येक शब्द व पदों का संस्कृत व हिन्दी अर्थ करते हुए मन्त्र का पदार्थ व शब्दार्थ करने के साथ भावार्थ भी दिया है। इससे ईश्वर की सत्ता सहित मनुष्य जीवन के सभी रहस्यों व जिज्ञासाओं का समाधान हो जाता है। इसको जानने के लिये मनुष्य का पवित्रात्मा होना आवश्यक है। ऋषि दयानन्द ने लिखा है कि मनुष्य का आत्मा सत्य व असत्य को जानने वाला होता है परन्तु अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह तथा अविद्या आदि दोषों के कारण सत्य को छोड़ कर असत्य में झुक जाता है। यही कारण नास्तिक बन्धुओं का ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार न करने में लगता है। यदि कोई मनुष्य इन कारणों को हटा दे और निष्पक्ष भाव से ऋषि दयानन्द के ईश्वर के अस्तित्व के समर्थन में वर्णित किये तर्क एव युक्तियों पर विचार कर लें, तो ईश्वर का अस्तित्व व वृहद सत्यस्वरूप स्पष्ट हो जाता है। सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक के1.96 अरब वर्षों से अधिक समय तक विश्व के लोग आस्तिक अर्थात् ईश्वर व वेद को मानने वाले रहे हैं। ईश्वर को मानने वालों में बड़े बड़े ऋषि, मुनि, चिन्तक, विद्वान तथा योगी आदि हुआ करते थे जो प्रत्येक बात को प्रमाण, तर्क व युक्ति की कसौटी पर कस कर स्वीकार करते थे। उनका सिद्धान्त था कि सत्य की विशद रूप में परीक्षा कर ही सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना। ऐसे उच्च कोटि के ऋषियों की साक्षी के होते हुए ईश्वर को न मानना उचित नहीं है। सभी मनुष्यों को स्वमेव इस विषय का अध्ययन कर निर्णय करना उचित है। इसके लिये सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ सहित ऋषि दयानन्द के सभी ग्रन्थ, उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति, गीता, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थ एवं वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों का अध्ययन किया जा सकता है। ऐसा करके हम निश्चय ही ईश्वर के सत्यस्वरूप को जान सकते हैं और ईश्वर विषयक हमारी अविद्या, भ्रम, शंकायें दूर हो सकती है।
ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश में वचन हैं कि ईश्वर सब दिव्य गुण, कर्म, स्वभाव, विद्या से युक्त और उसी में पृथिवी सूर्यादि लोक स्थित हैं और वह आकाश के समान व्यापक सब देवों का देव परमेश्वर है। उस ईश्वर को जो मनुष्य न जानते न मानते और उस का ध्यान नहीं करते वह नास्तिक मनुष्य मन्दमति सदा दुःखसागर मे डूबे ही रहते हैं। इसलिये सर्वदा उसी ईश्वर को जानकर सब मनुष्य सुखी होते हैं।
वेदों में ईश्वर के अनेकानेक उपदेश प्राप्त होते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक एवं सर्वान्तर्यामी है और हमारी सब प्रार्थनाओं को सुनता है। यजुर्वेद के एक मन्त्र में बताया गया है कि जो कुछ इस संसार में जगत् है उस सब में व्याप्त होकर जो नियत्ना है वह ईश्वर कहाता है। उस से डर कर कोई मनुष्य अन्याय से किसी के धन की आकांशा न करे। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरण रूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द को भोगे। ऋग्वेद के एक मन्त्र में ईश्वर का उपदेश है … हे मनुष्यों! मैं ईश्वर सब के पूर्व विद्यमान सब जगत् का पति हूं। मैं सनातन जगत्कारण और सब धनों का विजय करनेवाला और दाता हूं। मुझ ही को सब जीव जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं, वैसे पुकारें। मैं सब को सुख देनेहारे जगत् के लिये नाना पकार के भोजनों का विभाग पालन के लिये करता हूं। यह सभी बातें व शब्द ईश्वर ने मनुष्यों को उपदेश करते हुए कहे हैं। ऋग्वेद के ही एक अन्य मन्त्र में ईश्वर उपदेशक करते हैं‘मैं परमैश्वरर्यवान्, सूर्य के सदृश, सब जगत् का प्रकाशक हूं। कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूं। मैं ही जगत् रूप धन का निर्माता हूं। सब जगत् की उत्पत्ति करने वाला मुझ ही को जानों। हे जीवों! ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझ से मांगों और तुम लोग मेरी मित्रता से अलग मत होओ।’ वेद के यह और अन्य सभी वचन सत्य हैं जिन्हें कोई मनुष्य व विद्वान असत्य व अन्यथा सिद्ध नहीं कर सकता।
ऋषि दयानन्द ईश्वर की सिद्धि सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से करते हैं। वह लिखते हैं कि जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख, दुःख, सत्यासत्य विषयों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है उसको प्रत्यक्ष करते हैं परन्तु वह निभ्र्रम हो। अब विचारना चाहिये कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा, नेत्र, जिह्वा, नासिका इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से गुणी जो पृथिवी(है) उस का आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है वैसे (ही) इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना विशेष आदि ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। और जब आत्मा मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता वा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव की इच्छा, ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शंका और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निःशंकता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं किन्तु परमात्मा की ओर से(होता) है। ऋषि दयानन्द आगे लिखते हैं कि और जब जीवात्मा शुद्ध होके परमात्मा का विचार (ध्यान) करने में तत्पर रहता है उस को उसी समय (समाधि समान अवस्था में) दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तो अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देख के कारण का अनुमान होता है।
उपर्युक्त आधार पर ईश्वर की सत्ता का होना न केवल सत्य, सिद्ध व प्रत्यक्ष ही है अपितु हम सब स्वाध्याय सहित ईश्वर का ध्यान, चिन्तन तथा सत्कर्मों को करते हुए समाधि अवस्था में उसका प्रत्यक्ष भी कर सकते हैं। वेदाध्ययन सहित सत्यार्थप्रकाश, ऋषियों एवं वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों के अध्ययन से नास्तिक मनुष्य भी अपना अज्ञान दूर कर आस्तिक व ईश्वर विश्वासी बन सकते हैं। ऐसा होना सर्वथा सम्भव है। मनुष्यों को अपने हित व कल्याण के लिये ही तर्क एवं प्रमाणों के आधार पर ईश्वर को मानना चाहिये। ईश्वर को न मानने वाले स्वयं अपना ही अपकार करते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य