इस्लाम और शाकाहार: गाय और कुरान-5
मुजफ्फर हुसैन
गतांक से आगे…
गाय के वध के मामले में इस प्रकार के अनेक फतवे समय समय पर आए हैं, जिनमें गाय के मांस को वर्जित घोषित किया है। परिस्थितिवश न तो उसे काटा जाए और न ही उसके मांस का भक्षण किया जाए। भारत में देवबंद, बरेलवी, फुलेरी शरीफ, लखनऊ और हैदराबाद जैसे अनेक दारूल फतवा में गाय को लेकर बहस उठती रही है, जिसमें जो परिणाम सामने आए हैं वे गाय को नही काटने के ही पक्ष में आए हैं। बकरा ईद के अवसर पर भी समझदार मुसलमानों ने यही रूख अपनाया है। उनका कहना है कि जब अन्य हलालन पशु उपलब्ध हैं तो फिर गाय या बैल को नही काटना कोई अधार्मिक कार्य नही होगा। लेकिन हम देखते हैं कि मुट्ठी भर सांप्रदायिक तत्व अपने धर्म जुनून में इस प्रकार की आज्ञा को नकार देते हैं। गाय की सुरक्षा का पक्षधर जब इसलाम है तो फिर भारतीय मुसलमानों को यह सवाल उठाना ही क्यों चाहिए? मुसलमान स्वयं किसान हैं और गौपालन का व्यवसाय करते हैं, इसलिए समझदारी का तकाजा यह है कि इस विवादास्पद मुद्दे को हमेशा हमेशा के लिए समाप्त कर दें। भारत सरकार यदि संपूर्ण देश में गौ-वध पर पाबंदी लगा देगी तो मुसलमान निश्चित ही उसका स्वागत करेगा। देश के कानून की अवहेलना करने की सीख इसलाम नही देता है।
चूंकि भारत में गऊ वंश का धार्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक महत्व है, इसलिए यहां की जनता का टकराव हमेशा उन लोगों से रहा है जिन्होंने गौ वंश को समाप्त करने के लिए धर्म जुनून और कठमुल्लापन का सहारा लिया है। इसलाम के नाम पर जब गऊ की हत्या का षडयंत्र रचा जाता है, उस समय धार्मिक भावना को ठेस पहुंचती है। जब मुट्ठी भर लोग अधर्म के नाम पर गाय के कत्ल को जायज ठहराते हैं तो फिर देश का बहुसंख्यक यदि उसे बचाने के लिए आंदोलन करता है तो यह उसका मानवीय अधिकार है। मारने के स्थान पर बचाना ईश्वरीय कार्य है। इसलिए गऊ की रक्षा के लिए कोई आगे आता है तो वह स्वागत करने योग्य है। लेकिन इस अहिंसक काम में हिंसा न हो जाए, यह भी आंदोलन के सूत्रधारों को समझने की आवश्यकता है। गऊ की रक्षा के मामले में जितना दोषी मुसलमान है, उससे भी अधिक दोषी भारत सरकार है, क्योंकि उसके लूले लंगड़े कानून और वोट बैंक की खुशामद इस मार्ग में सबसे बड़ा रोड़ा है।
भारत में यदि सांप्रदायिक दंगों के कारणों का इतिहास खोजा जाए तो पता चलेगा कि हर गांव दंगों में से दो दंगों में गऊ हत्या कारण रहा है। अंग्रेजों ने इसे भुनाने में कोई कसर नही रखी। लेकिन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में मुसलिम बादशाहों और उलेमाओं द्वारा फरमान जारी कर इस विवादास्पद मुद्दे को समाप्त करने का भरसक प्रयत्न किया गया।
सम्राट बहादुरशाह जफर का आदेश-
सन 1857 में दिल्ली केवल चार मोह आजाद रही। भारत के वीर सपूतों ने अंग्रेज सरकार को पदभ्रष्टï कर मुगल साम्राज्य के अंतिम बादशाह बहादुरशाह जफर को दिल्ली का पुन: सम्राट घोषित कर दिया। ऐसा लगने लगा कि ब्रिटिश सत्ता भारत से विदा हो जाएगी। लेकिन आजादी की यह प्रथम लड़ाई निश्चित किये गये यम से पहले ही प्रारंभ हो गयी। इसलिए उसे सफलता नही मिल सकी। मंगल पांडे जैसे अनेक राष्टï्रभक्तों को फांसी पर चढ़ जाना पड़ा। लेकिन इस बीच हिंदू मुसलिम एकता के लिए बहादुरवशाह जफर ने जो काम किया, वह इतिहास में अमर हो गया। गऊ माता का सम्मान करने के लिए अंतिम मुगल सम्राट ने जो आदेश प्रसारित किया, वह इतिहास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन गया। 28 जुलाई 1857 को गौ-वध पर प्रतिबंध लगाकर जो शाही फरमान जारी किया था, वह इस प्रकार था-
खल्क खुदा का मुल्म बादशाह का हुक्म फौज के बड़े सरदार का जो कोई इस मौसम बकरी ईद में या उसके आगे पीछे गाय बैल या बछड़ा जुकाकर या छिपाकर अपने घर में जबह हलाल या कुरबान करेगा, वह आदमी हुजूर जहांपनाह का दुश्मन समझा जाएगा और उसे सजाए मौत दी जाएगी। और इतिहास साक्षी है कि 1 अगस्त 1857 को संपन्न बकरी ईद पर एक भी गाय बैल अथवा बछड़े की हत्या नही हुई। न केवल मुगल साम्राज्य बल्कि भारत की हर छोटी बड़ी मुसलित रियासत में गाय संबंधी आदेश जारी होते रहे हैं। तत्कालीन राजा और नवाब इस दूषण से बचने के लिए समय समय पर सरकारी फरमान भी जारी करते रहे हैं और जहां कहीं आवश्यकता पड़ी वहां पर फतवे भी जारी करवाते रहे।
क्रमश: