प्रतिक्रियाओं या विरोध से बेहतर है
अपनी गलतियों को सुधारें
– डॉ. दीपक आचार्य
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दुनिया में कहीं भी कोई ऎसी बात सामने आती है जिसका संबंध हमारे व्यक्तित्व के किसी न किसी पक्ष से आंशिक हो या पूर्ण अथवा उससे हमारा किसी न किसी परिमाण में कैसा भी संबंध क्यों न हो।यह संबंध दृश्यमान हो या अदृश्य, वास्तविक हो या आभासी, काल्पनिक हो या दूसरों की निगाह में खराब…। यह किसी भी स्रोत से हमारे करीब आ सकता है।
कोई सीधा संबंधित व्यक्ति हो सकता है अथवा किसी भी तरह का कोई माध्यम। हमें चाहिए कि हमारे बारे में जो धारणाएं, कल्पनाएं, आशंकाएं और चर्चाएं जो भी हों उनके प्रति हमारा दृष्टिकोण एकदम साफ, स्वच्छ और पारदर्शी होना चाहिए।व्यक्तित्व के किसी भी पहलू में दुराव-छिपाव न हो, पूरी पारदर्शिता रखें और साफगोई बनाए रखें। ऎसा नहीं कर सकें तो दो बातों पर ध्यान दें। एक तो यह कि अपने से संबंधित किसी भी बात पर गौर न करें तथा अपने कामों में लगे रहें।
इस पक्ष को स्वीकार करने वालों को चाहिए कि वे सार्वजनीन तौर पर कही, सुनी और लिखी या दिखाई जाने वाली बातों को अपने पर न लें और उस तरफ ज्यादा गंभीरता से ध्यान न दें। यह स्थिति तब आती है जब हम अपने आपको अहंकार के उच्चतम शिखर पर पाते हैं जहां हम चारों तरह खुद ही खुद को देखना चाहते हैं, खुद के लिए ही जीने और खुद ही के घर भरने के आदी हो जाते हैं तब हमें लगता है कि जमाने में जो कुछ, जहां कुछ कोई सी हलचल, हरकत और चर्चाएं हो रही हैं, उनके केन्द्र में हम ही हैं। लेकिन ऎसा होता नहीं है।हम हमारे दुराग्रह, पूर्वाग्रह और प्रतिशोध जैसे नकारात्मक भावों के कारण की मिथ्या भ्रमों के मकड़जाल बुन लेते हैं और किसी न किसी को दोष देते रहते हैं। आज इसे, कल उसे। फिर हमारे संगी-साथी भी हमारी ही तरह होते हैं जिन्हें लगता है कि संबंधों को स्थायित्व देने और संबंधों का पूरा-पूरा दोहन-शोषण करने के लिए इस तरह के भ्रमों और पूर्वाग्रहों का बने रहना समय की आवश्यकता होता है।यह वह स्थिति होती है जब हम भैंसे या पालतु कुत्ते या कि भेड़ों की तरह अपने आस-पास के मकड़जालों का साहचर्य सुख पाते हुए आगे बढ़ने को ही तरक्की व संपन्नता मान लिया करते हैं। फिर धीरे-धीरे हमारी यह मनःस्थिति ऎसी हो जाती है जहाँ जमाने भर में वे सारे लोग हमें अपने शत्रु लगने लग जाते हैं जो हमारे उल्टे-सीधे, अमानवीय और आसुरी कर्मों के प्रति टीका-टिप्पणी करते हैं अथवा हमसे दूरी बना लेने को विवश हो जाते हैं।इस अवस्था में हमें वे सभी लोग हमारे हितैषी, सगे और शुभचिंतक, संरक्षक, मार्गदर्शक या पालनहार-तारणहार लगने लग जाते हैं जो हमारे उन सभी कर्मों में समय, श्रम और धन का सहयोग देते रहते हैं अथवा प्रोत्साहित करते रहते हैं।
हालांकि हमें इस सत्य का भान बाद में होता है कि हम जो कर रहे हैं वह भले ही हमारी भौतिक समृद्धि और मिथ्या प्रतिष्ठा को बहुगुणित करने वाला है मगर हम अपनी नैतिक, मानवीय और चारित्रिक संपदा खो देते हैं और वस्तुतः यही हमारी मृत्यु है।दूसरा यह कि इस तरह की बातों को भले ही ऊपरी तौर पर हल्के से लेना दर्शाते जरूर रहें मगर मन से इन स्थितियों को गंभीरता से लें और ईश्वर को धन्यवाद दें कि उसने किसी न किसी बहाने अपने व्यक्तित्व की कमजोरियों और गलतियों के प्राकट्य के वे अवसर प्रदान किए हैं जिनसे सीख कर हम अपने व्यक्तित्व की बुराइयों और कमजोरियों को दूर कर सकते हैं और अपने आपको निखार सकते हैं।लेकिन ऎसा वे ही लोग कर पाते हैं जिनके भीतर संस्कारों के बीज हों, पुरखों और पूर्वजों की सीख के जींस हों तथा जिन लोगों के लिए मुद्रार्चन, पद-प्रतिष्ठा या कद-मद के आगे समाज और देश सर्वोपरि हों।
अव्वल बात यह भी है कि ऎसा करने वाले वे बिरले हुआ करते हैं जिन पर भगवान की असीम कृपा होती है और जिनका सदैव कल्याण लिखा हुआ होता है। जिन लोगों के लिए तात्कालिक लाभ और आसुरी साम्राज्य की प्राप्ति का ध्येय ही प्रधान होता है उनके लिए इस प्रकार की बातें भैंस के आगे बीन बजाने जैसा ही है। और वह भैंस भी ऎसी कि जो कानों में तेल डाले हुए है, आँखों पर पट्टी बांधी हुई।