अजय कुमार
ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि उप-चुनाव को आम तौर पर सत्ता का चुनाव माना जाता है, लेकिन हमेशा ऐसा ही नहीं होता है। 2018 में तीन सीटों पर हुए लोकसभा उपचुनाव में सत्तारूढ़ बीजेपी को मिली करारी हार ने यह मिथक तोड़ दिया था।
गैर भाजपाई दलों के लिए उत्तर प्रदेश की सियासी डगर लगातार ‘पथरीली’ होती जा रही है। 2022 के विधान सभा चुनाव से पूर्व सम्पन्न अंतिम उप-चुनाव के नतीजों ने यह बात एक बार फिर साबित कर दी है। सात में से छह विधानसभा सीटों पर बीजेपी उम्मीदवारों का जीतना काफी कुछ कहता है। इन दलों के लिए एक तरफ कुंआ दूसरी तरफ खाई जैसी स्थिति है। चाहे सपा-बसपा हो या फिर कांग्रेस, यह न तो साथ आकर भाजपा के सामने चुनोती पेश कर पा रहे हैं, न अलग-अलग होकर बीजेपी का मुकाबला कर पा रहे हैं। सूरत-ए-हाल यह है कि अगर सभी दल एकजुट होकर भाजपा को चुनौती देने की कोशिश करते हैं तो भाजपा के पक्ष में हिन्दू वोट लामबंद हो जाता है और यदि यह दल अलग-अलग लड़ते हैं तो बीजेपी विरोधी वोट बंटने से भाजपा की बल्ले-बल्ले हो जाती है।
यह ऐसा पेंच है जिसमें सपा-बसपा और कांग्रेस समेत सभी दलों के नेता उलझे हुए हैं। इसी के चलते 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से गैर भाजपाई दल यूपी में अपनी जड़ें नहीं जमा पा रहे हैं। न तो समाजवादी पार्टी मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे आगे बढ़ पा रही है न ही बसपा दलित-मुस्लिम फार्मूले को अमली जामा पहना पा रही है। सबसे बुरा हाल कांग्रेस का है। किसी भी चुनाव से पहले कांग्रेसी बड़े-बड़े दावे करते मिल जाते हैं लेकिन नतीजों में उनके प्रत्याशी जमानत तक नहीं बचा पाते हैं। खैर, उप-चुनाव के नतीजों को आधार माना जाए तो 2022 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी को विपक्ष से कड़ी चुनौती मिलने की संभावनाएं काफी कम हैं।
ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि उप-चुनाव के नतीजे आने से पहले समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने स्वयं कहा था कि उपचुनाव के नतीजे 2022 के चुनाव की दिशा तय करेंगे। बहरहाल, उप-चुनाव के नतीजों ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि भाजपा अपना वोट बैंक बचाने में सफल रही। सपा-बसपा या कांग्रेस उसके वोट बैंक में सेंधमारी करने में पूरी तरह से असफल रही। यही नहीं सपा-बसपा को उसके परम्परागत यादव-दलित वोट भी नहीं मिले। इसी तरह से पुरूष मुस्लिम वोटर जरूर सपा के साथ जरूर खड़े नजर आए, लेकिन मुस्लिम महिला वोटरों का झुकाव भाजपा की तरफ भी देखा गया। संभवतः कोरोना काल में मोदी-योगी सरकार ने दोनों हाथों से अनाज बांटकर मुस्लिम महिलाओं का दिल जीत लिया, उनके लिए घर चलाना आसान हो गया होगा।
वैसे, ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि उप-चुनाव को आम तौर पर सत्ता का चुनाव माना जाता है, लेकिन हमेशा ऐसा ही नहीं होता है। 2018 में तीन सीटों पर हुए लोकसभा उपचुनाव में सत्तारूढ़ बीजेपी को मिली करारी हार ने यह मिथक तोड़ दिया था। इसलिए अबकी बार हुए सात सीटों पर हुए उपचुनाव को लेकर जहां बीजेपी काफी सतर्क थी वहीं विपक्ष 2018 के नतीजों से उत्साहित था। इसलिए 2022 के आम चुनावों के पहले इस उपचुनाव को सत्ता के सेमीफाइनल और योगी सरकार के काम-काज की परीक्षा के तौर पर पेश किया जा रहा था। इसीलिए बीजेपी शीर्ष नेतृत्व से लेकर आम कार्यकर्ता तक चुनाव में पूरे जी-जान से जुटे रहे। सभी सीटों पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह के साथ सभाएं कीं। प्रदेश संगठन महामंत्री सुनील बंसल ने खुद चुनाव प्रबंधन की हर सीट पर बैठकें कीं। उपमुख्यमंत्रियों की रैलियां हुईं तो मंत्रियों को कैंप करवाया गया। भाजपा का केन्द्रीय आलाकमान भी लगातार चुनाव पर नजर जमाए हुए था।
उधर, सपा मुखिया अखिलेश यादव प्रत्याशियों के पक्ष में प्रेस में दिए बयानों तक ही सीमित रहे। बसपा प्रमुख मायावती भी घर से नहीं निकलीं। वहीं, कांग्रेस की यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी ने उप-चुनाव के समय यूपी का रुख ही नहीं किया। वह ट्विट के सहारे चुनाव जीतना चाह रही थीं। विपक्ष ने कोरोना काल में योगी सरकार की लापरवाही, हाथरस कांड से लेकर विकास दुबे के एनकाउंटर की आड़ में ब्राह्मण वोटों की सियासत गरमाने की कोशिश खूब की लेकिन यह दांव चल नहीं पाया। ब्राह्मण बहुल सीट देवरिया से 20 हजार वोटों से जीत हासिल कर बीजेपी ने साबित कर दिया कि ब्राह्मणों का उस पर भरोसा बरकरार है। हाथरस कांड पर पूर देश में बवाल मचा था। इसे दलित बनाम ठाकुर बनाने की पूरी कोशिश की गई थी। लेकिन, टूंडला और घाटमपुर की सुरक्षित सीट भी बीजेपी शानदार अंतर से जीतने में सफल रही। जबकि 2022 में सत्ता वापसी का सपना देख रहे अखिलेश यादव अपनी परंपरागत सीट तक काफी संघर्ष के बाद बचाने में सफल हो पाए, यहां से सपा की जीत का अंतर घट गया। उन्नाव की बांगरमऊ सीट पर सपा तीसरे नंबर पर खिसक गई। यह सीट बीजेपी विधायक कुलदीप सेंगर की विधानसभा सदस्यता रद्द हो जाने के चलते खाली हुई थी। सपा ने यह सीट जीतने के लिए उप-चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस की कद्दावर नेता अनु टंडन को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया था, लेकिन वह कोई गुल नहीं खिला सकीं। बुलदंशहर सीट से आरएलडी प्रत्याशी की जमानत तक जब्त हो गई। यहां से सपा ने आरएलडी को समर्थन दिया था। हालांकि, उपचुनाव में सपा को 23 फीसदी से अधिक वोट मिले हैं, लेकिन बीजेपी से यह करीब 13 फीसदी कम हैं।
बात बसपा की कि जाए तो उपचुनाव से आम तौर पर परहेज करने वाली बीएसपी ने 18 फीसदी से अधिक वोट बटोरे। बीजेपी से नजदीकी के आरोपों और पार्टी से खिसकते नेताओं के बीच बीएसपी ने साबित कर दिया कि उसने अपना बेस बचाकर रखा है। लेकिन, जीत की रेस से वह अब भी काफी दूर हैं। बुलंदशहर में 2017 की तरह इस बार भी बीएसपी दूसरे नंबर पर रही लेकिन घाटमपुर में उसे कांग्रेस ने पीछे छोड़ दिया। मलहनी में बीएसपी तीसरे से चौथे नंबर पर खिसक गई। 2022 में जिस बीजेपी से उसको लड़ाई लड़नी है, उसका वोट प्रतिशत बीएसपी का दोगुना है। इसलिए पार्टी को दलित वोटों के बेस में अन्य वर्गों के वोट का जोड़ बढ़ाना होगा।
उधर, कांग्रेस अपने सियासी चेहरों की चमक जमीन पर नहीं बिखेर सकी। पार्टी के शीर्ष चेहरों के दौरों और आक्रामक आरोपों से उम्मीद तलाश रही कांग्रेस के लिए इनकी चमक अभी जमीन पर बेअसर ही दिख रही है। चुनाव को लेकर पार्टी कितनी गंभीर थी, इसे इससे समझा जा सकता है कि टूंडला में कांग्रेस प्रत्याशी का पर्चा तक खारिज हो गया। कांग्रेस को अपने बूते 7.50 फीसदी वोट मिले हैं। उन्नाव व घाटमपुर में कांग्रेस मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनकर उभरी लेकिन बाकी चार सीटों पर उसकी जमानत जब्त हो गई। लब्बोलुआब, यह है कि अब जनता नेताओें के झूठे वादों और बहकावे में नहीं आती है। वह हर चीज का अपने हिसाब से आकलन करके दूध का दूध, पानी का पानी करने में सक्षम है। ऐसा ही 2022 के विधान सभा चुनाव में होगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। इसके साथ ही विपक्ष को बीजेपी के ’हिन्दुत्व’ का भी तोड़ निकालना होगा।
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