पैसा या प्रतिष्ठा
– डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
जीवन में सब कुछ एक साथ पा जाना संभव नहीं होता है। सभी प्रकार के गुण और संपदाओं का स्वामी कोई तभी हो सकता है जबकि उसे दैवी संपदा का वरदान प्राप्त हो तथा पुरुषार्थ का परिपालन पूरी सात्विकता और निरपेक्षता के हो। ऎसे में जो प्राप्त होता है वह अक्षय तथा असीम आत्म आनंददायी होता है और वह लम्बे समय तक टिका रहकर अपने वाली कई पीढ़ियों तक के लिए लाभकारी बना रहता है।
लेकिन दैवी संपदा और वास्तविक पुरुषार्थ के इतर जो-जो सम्पदा और लोकप्रियता प्राप्त होती है वह अपने आगमन से पूर्व ही बाहर निकलने और पलायन के रास्तों को खुला रखकर आती है ताकि आसुरी मनोवृत्ति के लोगों के पास ज्यादा समय तक कैद होकर रहने की विवशता न रहे।कुछ दशकों पहले तक का वह जमाना लद गया जबकि आदमी के लिए समाज और क्षेत्र में प्रतिष्ठा पाने के लिए खूब सारे अच्छे कर्म करने पड़ते थे, लोक व्यवहार के लिए आदर्श गुणों का अवलंबन करना होता था और ऎसा प्रेरक व्यक्तित्व तैयार करना होता था जिससे कि और लोगों तक को प्रेरणा प्राप्त हो सके।
ऎसे ही श्रेष्ठीजनों को समाज तहेदिल से स्वीकार कर उनका सम्मान और आदर किया करता था और वस्तुतः यही प्रतिष्ठा थी। इसे पाने के लिए लोग अपनी पूरी जिन्दगी अच्छे कर्मों और सदाचरणों में झोंक दिया करते थे तब कहीं जाकर प्रतिष्ठा का कोई शाश्वत मुकाम पाने की स्थिति में पहुँच पाते थे।ऎसे लोग हर क्षेत्र में और हर समाज में होते थे जिनके लिए कहा जाता था कि इनका सर्वस्पर्शी व अजातशत्रु व्यक्तित्व सभी को सहज स्वीकार्य होता था और पूरा क्षेत्र एवं समुदाय इनका हृदय से आदर सम्मान किया करता था।समाज या क्षेत्र का कोई सा विवाद हो, इनकी बात सभी को स्वीकार्य हुआ करती थी और यही कारण था कि सामाजिक सौहार्द एवं शांति के साथ विकास की सनातन परंपरा कई-कई स्वरूपों में दृश्यमान होकर आनंद की भावभूमि का सृजन करने में समर्थ थी। असल में यही प्रतिष्ठा हुआ करती थी।
पर कालान्तर में मूल्यों और सामाजिक संरचनाओं से लेकर आदमी के जेहन भर में मुद्राएं हावी होने लगी और इसका परिणाम यह हुआ कि हम लोग मुद्रावान और महामुद्रावान तो होते चले गए लेकिन प्रतिष्ठा का ग्राफ निरन्तर नीचे गिरता चला गया।आज प्रतिष्ठा की मूल अवधारणा गायब हो गई है और उसका स्थान ले लिया है चलाचल सम्पत्ति ने। आज हम जिसे लोकप्रियता का जामा पहना रहे हैं वह एकतरफा ही है और उसमें दूसरे छोर की वास्तविक भावनाओं का प्रतिबिम्ब नहीं है बल्कि यह सब ठीक उसी तरह है जैसे बरसाती नदी-नाले उफनते रहे हैं चाहे रास्ते में तटों या किनारे वाले इलाको में बसे लोगों को यह पसंद आए या न आएं, भीगना तो है ही, तटों को भी जलप्लावन के खतरों से दो-चार होना ही है। इसमें दूसरे छोर की विवशताओं का भी कोई अंत नहीं है।यह समाज का दुर्भाग्य ही है कि आज समाजोन्मुखी प्रवृत्तियां, निष्काम सेवा और परोपकार की भावनाएं गौण होकर मुद्रार्चन के अनुष्ठानों पर जोर दिया जाने लगा है और ऎसे में प्रतिष्ठा पाने या बनाए रखने की चिंता छोड़कर हम लोग उस दिशा में भाग रहे हैं जहां अपना बहुत कुछ होने का संतोष तो है लेकिन उससे कहीं ज्यादा परिमाण में उद्विग्नताएं और अशांति का भंवर निरन्तर उछाले मार रहा है।
प्रतिष्ठाहीन समृद्धि का कोई अर्थ नहीं है। आज चाणक्य से लेकर लालबहादुर शास्त्री तक को लोग किसलिए दिल से याद करते हैं इसे हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए वरना हाल के दशकों में कितने महान-महान लोगों की श्रृंखलाएं आयी और चली गई, मगर किसे फुर्सत है उन्हें याद करने की। कालजयी प्रतिष्ठा आदशार्ंंे और गुणों के साथ ही समाजोन्मुखी अनुकरणीय प्रवृत्तियों से ही प्राप्त हो सकती है, धन-वैभव और भोग-विलासिता के अपार संसाधनों से नहीं। पैसों से प्राप्त प्रतिष्ठा का कोई मतलब नहीं है यदि वह पैसा समाज की सेवा के काम न आ सके।