वे ही काम करें जो अपने जीवन के लिए निर्धारित हैं और जिन्हें करने में वास्तविक आनंद की अनुभूति होती है। आनंद प्राप्ति के दो मार्ग हैं। एक मार्ग वह है जिसमें आदमी को वे ही कर्म करने चाहिएं जो इंसान के लिए निश्चित किए गए हैं और जिनका अवलम्बन करने से हमें भीतर से प्रसन्नता होती है।सही अर्थों में देखा जाए तो यही प्रसन्नता और उल्लास का भाव हृदय से लेकर चेहरे तक छाया और पूरे आभामण्डल में पसरा होता है। इसका अहसास हम स्वयं भी कर सकते हैं और हमारे संपर्क में आने वाले दूसरे लोग भी।इस मार्ग पर अपनी दृष्टि और दिशा शुचिता पूर्ण और सर्वथा शुद्ध हुआ करती है जिसमें प्रत्येक कर्म का लक्ष्य समाज और देश होता है और ऎसे में मनुष्योचित सारी मर्यादाओं और जीवन के अनुशासन का पालन करते हुए हम मनुष्यता के साथ आगे बढ़ते हुए दिव्यत्व और दैवत्व का रास्ता पकड़ लेते हैं जहाँ न कोई तनाव है और न किसी की उलाहना। न कोई हमारे बारे में कुछ कह सकता है, न करने की हिम्म्त जुटा सकता है। ऎसे में हमारी मानसिक और शारीरिक तुष्टि का क्रम पूरी ऊर्जा और उत्साह के साथ निरन्तर बना रहता है।जब हम स्वार्थों और विकारों से मुक्त रहकर कोई काम करते हैं तब हमारे लिए सारे मार्ग सुरक्षित और उत्साहपूर्ण होते हैं और ऎसे माहौल में कर्मयोग को आकार देने का अलग ही मजा है जो औरों के लिए भले ही अगोचर हो, परन्तु हमें भीतरी आनंद और ताजगी से ऎसा भरा हुआ रखता है कि जीवन का हर क्षण स्वर्ग के बराबर प्रतीत होता है और किसी भी क्षण मृत्यु की आहट होने पर भी प्रसन्नता से मौत को भी स्वीकार करने का उल्लास बना रहता है।कर्म और व्यवहार शुचितापूर्ण एवं सत्यं शिवं सुन्दरं होने की स्थिति में जीता हुआ आदमी ही वास्तव में मनुष्य के रूप में सफल है और ऎसे लोगों पर ही विधाता प्रसन्न रहता है।दूसरी प्रकार के लोगों की किस्म को देख कर लगता है कि जैसे विराट विश्व में पैदा होने के बावजूद उनका चिंतन संकीर्ण, स्वार्थपूर्ण और स्व केन्दि्रत है और लगता है जैसे विधाता ने इन लोगों को अपने घर भरने के लिए ही पैदा किया हुआ है। इन लोगों को न अपने कुटुम्बी दिखते हैं, न अपना समाज और क्षेत्र, न देश।इनका पूरा संसार अपने आप तक ही सिमटा हुआ होता है और ऎसे में इनकी प्रत्येक गतिविधि का प्रयोजन स्व के लिए होता है। ये अपने कर्मयोग को पूरा करते हुए जिन्दगी भर उस नज़रबंद कैदी की तरह रहा करते हैं जिसके लिए जेल की चहारदीवारियों तक ही संसार का वजूद है और जो कुछ करना है इन्हीं सीमाओं के भीतर रहकर, और वह भी सिर्फ अपने लिए, अपने साथ रह रहे नज़रबन्दियों या चंद लोगों के लिए ही, जिनसे हमारा संबंध या संपर्क है।इस संकीर्ण मानसिकता के साथ जो लोग काम करते हैं वे किसी सार्वजनिक कचरा घर की तरह समृद्धि तो प्राप्त कर खुद भण्डारी होने का दम तो भर सकते हैं लेकिन विराट और व्यापक फैले हुए संसार के तमाम आनंदों से दूर रहते हैं। सिर्फ अपने बड़े और लोकप्रिय होने अथवा सम्पत्तिशाली होने का भ्रम ही दिन-रात इन्हें ऎसा बाँधे रखता है कि ये न और कुछ सोच पाते हैं, न औरों के बारे में सोचने की स्थिति में होते हैं।