संपूर्ण भारत कभी गुलाम नही रहा: छल प्रपंचों की कथा-भाग (3)
हिंदू शक्ति के बिखराव के इस काल को यद्यपि हम अच्छा नही मानते पर फिर भी इस काल में विदेशी ‘संस्कृति नाशक’ इस्लामिक आक्रांताओं को देश में न घुसने देने का ‘राष्ट्रीय संकल्प’ तो अवश्य जीवित था। इसी संकल्प ने सदियों तक देश की हस्ती नही मिटने दी, और देश की हर प्रकार से रक्षा की। हमारे लिए उचित होगा कि हिंदू शक्ति के इस ‘राष्ट्रीय संकल्प’ को भी स्वतंत्रता संघर्ष का एक ‘सांझा स्मारक’ माना जाए। यह स्मारक देश में उस समय की उन सभी शक्तियों और राजाओं को या राजवंशों को समर्पित होना चाहिए जिन्होंने किसी भी प्रकार से विदेशी संस्कृति नाशकों का प्रतिरोध और विरोध किया।
जिन लोगों ने ‘हिंदू इतिहास’ के इस उज्ज्वल पृष्ठ को अथवा काल को अथवा स्मारक को भारतीय इतिहास से लुप्त करने का या इसे कम महत्व देने का प्रयास किया है, उनके उस प्रयास के पीछे कारण यही है कि इस देश का इतिहास किसी भी प्रकार के ‘राष्ट्रीय संकल्प’ से हीन करके प्रस्तुत किया जाए। जिससे कि हिंदू जाति में अपने अतीत के प्रति कोई जिज्ञासा अथवा श्रद्घा भाव उत्पन्न ना हो। इसीलिए रघुनंदन प्रसाद शर्मा ने लिखा है-
‘भारत का इतिहास आज जिस रूप में सुलभ है उस पर दृष्टि से विचार करने पर निराशा ही हाथ लगती है, क्योंकि उससे वह प्रेरणा मिलती ही नही, जिससे भावी पीढ़ी का कोई मार्गदर्शन हो सके। रोथ, वेबर, व्हिटलिंग, कूहन आदि लेखक इस बात के लिए कृतसंकल्प हंै कि जिस प्रकार से भी हो भारत का प्राचीन गौरव नष्ट किया जाए। उनके लिए यह असहाय और अन्य अन्याय की बात ही रही है कि जब उनके पितर वनचरों के समान गुजारा कर रहे थे, उस समय हिंदुओं के भारतवर्ष में पूर्ण सभ्यता और आनंद का डंका बज रहा था।’
कदाचित इसी मानसिकता के कारण भारत का इतिहास कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि जैसे ही यहां मौहम्मद बिन कासिम आया तो ये देश मानो तुरंत ही मर गया था, फिर उसके पश्चात कभी उठा ही नही और मरे हुए को ही लगभग तीन सौ वर्ष पश्चात महमूद गजनवी के द्वारा आकर रौंद दिया गया। स्वतंत्रता के समारकों की इस उपेक्षा को अंतत: ये राष्ट्र कब तक सहन करेगा? जीवितों को मारने का या अपनी जीवन्तता को अपनी मृत्यु समझने की आत्मप्रवंचना से हम कब आंखें खोलेंगे? तीन सौ वर्ष के लंबे इतिहास के लंबे घपले को सहन करना राष्ट्र की निजता, देश के सम्मान और हिंदुत्व के गौरव को तिलांजलि देने के समान है। संसार में सचमुच एक हम ही हैं जिन्होंने धर्मनिरपेक्षता जैसी एक मानवताविहीन, धर्मविहीन, आस्था विहीन और राष्ट्रीय गौरव के प्रति सर्वथा मूल्य विहीन विचार धारा को पकड़कर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का आत्मघाती प्रयास किया है। नही तो क्या बात है कि हमारे पास अपने राष्ट्रीय गौरव के कथ्य, तथ्य और सत्य होने के उपरांत भी हम उन्हें एक माला में पिरोकर ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का हनुमान चालीसा बनाकर प्रत्येक बच्चे के हाथ में सौंपने से बचते जा रहे हैं? हिंदुत्व इस देश का राष्ट्र धर्म है जो इसकी गौरवमयी सांस्कृतिक जीवन पद्घति होती है और उस संस्कृति का प्रतीक कोई एक ऐसा शब्द प्रत्येक देश अपने लिए चुनता है, जिससे उस देश की महानता और उस देश का गौरव स्पष्ट होता हो। पता नही भारत इस विषय में चुप क्यों है?
हो गये तीन से आठ
भारतीय राजनीतिक शक्तियां हर्ष के पश्चात एक से तीन हो गयीं। ये सारी की सारी शक्तियां भारत में प्रतापी चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित करने के लिए संघर्ष करने लगीं। इनकी संघर्ष की यह भावना ही हमारे लिए कष्टकारी बनी। गुर्जर प्रतिहार शासक, पाल शासक और राष्ट्र कूट शासक परस्पर उलझने लगे। फलस्वरूप इनकी शक्ति का पतन और क्षरण होने लगा। तब देश के विभिन्न भागों में कई राजवंश उभरे। इन सारे राजवंशों में से प्रमुख राजवंशों की संख्या आठ थी। इस प्रकार शक्ति का एकीकरण होने के स्थान पर विघटन होने लगा। सार्वभौम सत्ता राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में आवश्यक होती है, जिसका इन आठ राजवंशों की उपस्थिति के कारण अब अभाव सा हो गया। परंतु हमारा मूल विषय है कि हमारा देश कभी पूर्णत: गुलाम नही रहा, तो इसी विषय पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जाएगा।
सर्वप्रथम हम नये आठ राजवंशों के विषय में सूक्ष्म सी जानकारी लेते हैं। गुर्जर प्रतिहार वंश के पतन अथवा हृास काल में इस वंश के भग्नावशेषों पर ही नए आठ राजवंशों में से कई ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के स्वर्णिम सपने बुनने प्रारंभ किये थे। इनमें जेजाकभुक्ति (आजकल का बुंंदेलखण्ड) का चंदेल राजवंश सर्वप्रमुख है। इसका प्रथम शासक नन्नुक था। ये राजवंश प्रारंभ में गुर्जर प्रतिहार वंश का सामन्त था। गुर्जर प्रतिहारों से मुक्त होकर इस वंश ने गोपगिरि (ग्वालियर) भास्वत (भिलसा) काशी को भी अपने साम्राज्य में मिलाया। महमूद गजनी ने दसवीं शताब्दी के अंत में जब भारत पर आक्रमण करने आरंभ किये तो उस समय राजा धंग चंदेल इस राज्य का स्वामी था।
(2) चंदि का कल्चूरि राज्य
इस वंश की राज्य की स्थिति आजकल के मध्य प्रदेश के जबलपुर के आसपास थी। इनकी राजधानी का नाम त्रिपुरी था। यह राजवंश प्राचीन है, परंतु गुर्जर प्रतिहार शासकों के काल में इसकी स्थिति केवल एक सामंत की सी थी। इस वंश की स्थापना कोकल्ल प्रथम ने की थी। गजनी के आक्रमण के पूर्व इस वंश के कई शासक आए। गजनी के आक्रमण समय कोकल्ल द्वितीय शासन कर रहा था। चेदि के अलावा कलचूरि वंश का एक अन्य राज्य भी था जिसे इतिहास में ‘सरयूपार का कल्चूरि राज्यÓ कहा जाता है। इसकी स्थिति सरयू और गण्डक नदियों के मध्य थी।
(3) मालवा का परमार वंश
चेदि के पश्चिम में धारा नगरी में मालवा का परमार वंश शासन कर रहा था। परमार राजपूत आबू पर्वत के समीपवर्ती चंद्रावती तथा अचल गढ़ के क्षेत्र में निवास करते थे। कालांतर में वे वहां से मालवा आ बसे थे। प्रारंभ में ये लोग भी गुर्जर प्रतिहार शासकों के अधीन थे, परंतु इस वंश की शक्ति क्षीण होने पर अन्य वंशों की भांति ये वंश भी स्वतंत्र हो गया। इस वंश का प्रतापी शासक मुंज था जो कि 973 ई. के लगभग राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ था। उससे पूर्व सीयम इस राज्य पर शासन रहा था। सीयम का मुंज (मूंज के खेत में मिलने से) दत्तक पुत्र था। सीयम को संन्यास लेने पर मुंज ही शासक बना।
इसने अपने राजवंश की सीमाओं में वृद्घि की। 995 ई. के लगभग इसके शासन का अंत हो गया। बाद में इसके भाई सिन्धुराज ने शासन किया। सिंधुराज अपने पिता के द्वारा मुंज के गोद लेने के उपरांत उत्पन्न हुआ था। इसी सिंधुराज का लड़का राजा भोज था। गजनी के तुर्कों के आक्रमण के समय अपने राजवंश का शासक यही भोज ही था। उसका नाम भारतवर्ष में प्रचलित दन्तकथाओं में अब तक बड़े सम्मान से लिया जाता है।
(4) राजपूताना के राज्य
राजपूताना के अनेक राजपूत राज्य 8वीं नौवीं शती में गुर्जर प्रतिहार सम्राटों के आधिपत्य में रहे थे। इनमें चाहमानों का शाकम्भरी का राज्य (वर्तमान साम्भर) चित्तौड़ का गुहिल या गहलोत राजवंश (जिसमें आगे चलकर महाराणा प्रताप उत्पन्न हुए) धनवर्गता का गुहिलवंश वर्तमान हरियाणा और दिल्ली (ढिल्लिका) का तोमरवंश, इत्यादि प्रमुख थे। ये सभी राजवंश गुर्जर प्रतिहार वंश के कभी सामन्त थे।
गुर्जर प्रतिहारों के पतन के काल में इन वंशों ने अपना अपना राज्य विस्तार करना आरंभ किया। शाकम्भरी का प्रथम शासक आठवीं शती के आरंभ में चंद्रराज था। इस वंश में आगे चलकर दुर्लभराज शासक बना, उसका उत्तराधिकारी गोविंद राज बना। जो कि गुर्जर शासक नागभट्ट (795-833 ई.) की राजसभा में सम्मानपूर्ण स्थान रखता था। इसके काल में सिंध के शासक बशर ने आक्रमण किया था, जिसे इस राजा ने असफल किया था। शाहम्भरी का पूर्ण स्वतंत्र राजा सिंहराज था। गजनी के तुर्कों के आक्रमण के समय सिंहराज का उत्तराधिकारी विग्रहराज शाकम्भरी पर शासन कर रहा था। चौहान (चाहमान) वंश की एक शाखा नडोल पर दूसरी धौलपुर तथा तीसरी प्रतापगढ़ के प्रदेशों पर शासन कर रही थी। ये तीनों चाहमान शासकों की शाखाएं थीं जो कि कभी गुर्जर प्रतिहार सम्राटों की सामन्त थीं।
राजपूतानों का एक अन्य महत्वपूर्ण राजवंश गुहिलोत था, इसकी दो शाखाएं मेदपाट (मेवाड़) और धवगर्ता (चित्तौड़) थी। मेदपाट के प्रतापी शासक बप्पारावल का उल्लेख हमने पूर्व में किया है। मेदपाट की राजधानी कभी आधार नगरी (उदयपुर के पास) थी। कालांतर में चित्तौड़ बनी। बहुत संभव है कि अकबर के आक्रमण के समय जब राणा उदयसिंह मेवाड़ छोड़कर भागने को विवश हुए तो पुरानी राजधानी आधार नगरी को ही उदयपुर के नाम से बसाया हो। दसवीं शती में इस वंश ने स्वतंत्र शासकों के रूप में कार्य करना आरंभ किया।
दिल्ली के तोमर भी प्रारंभ में गुर्जर प्रतिहार वंश के सामन्त थे। तोमर राजा गोग्य ने पृथूदक (वर्तमान पिहोबा) में तीन विष्णु मंदिरों का निर्माण कराया था। यह राजा गुर्जर प्रतिहार वंश के महेन्द्रपाल प्रथम (885-908) का समकालीन था और उसके प्रभुत्व को स्वीकार करता था। यह वंश 12वीं शताब्दी के मध्य तक दिल्ली पर शासन करता रहा। हां, बाद के दिनों में यह राज्य चाहमानों के आधिपत्य में चला गया था। चाहमान विशाल देव ने तोमरों की सत्ता दिल्ली से समाप्त की थी जिससे दिल्ली और हरियाणा पर चाहमानों या चौहानों का शासन स्थापित हो गया।
मुख्य संपादक, उगता भारत