राजीव कुमार
सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया है कि अगर किसी विधायक या सांसद को किसी भी न्यायालय से दो साल या उससे अधिक की सजा हो जाती है, तो वे पद पर नहीं रहेंगें और चुनाव भी नहीं लड़ पाएंगे। इसके साथ हीं इस फैसले में यह प्रावधान भी है कि जेल से कोई व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को पक्षपात पूर्ण बताया और इसे समाप्त कर दिया। इसके अनुसार अगर किसी विधायक या सांसद को निचली अदालत से सजा मिल जाती है, तो उन्हें तीन महीने का समय दिया जाता था, जिससे कि वे उच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय से सजा मिलने की स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकें। इस बीच जबतक कि उन्हें अंतिम अपीलीय न्यायालय से सजा नहीं मिल जाए, सदस्यता से वंचित नहीं किया जा सकता था और न हीं उन्हें चुनाव लड़ने से रोका जा सकता था। हालांकि अगर कोई व्यक्ति जो विधायक या सांसद नहीं है, उसे सजा मिली होती थी, तो वह चुनाव नहीं लड़ सकता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना मानी जाती है, लेकिन इस पर सवाल तो उठाया हीं जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने राजनीतिक व्यवस्था पर नहीं बल्कि न्यायिक व्यवस्था पर सवाल उठाया है। भारत में तीन स्तरीय न्यायपालिका है। इसके कारण जिला स्तरीय न्यायालय से सजा मिलने पर उच्च न्यायालय और उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने की व्यवस्था की गई है, ताकि न्याय में किसी तरह की कोई चूक की संभावना को रोका जा सके। हालांकि उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद भी सजा माफी के लिए राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका की भी व्यवस्था संविधान में की गई है, लेकिन इसे अंतिम न्यायालय नहीं कहा जा सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि किसी भी विधायक या सांसद को अगर दो साल या उससे अधिक की सजा निचली अदालत से मिल जाती है, तो उसे उसके पद से क्यों हटाया जाना चाहिए। अगर उसे ऊपरी अदालत में अपील करने का अधिकार है, तो फिर ऊपरी अदालत के फैसले का इंतजार क्यों नहीं करना चाहिए। इस बात की संभावना तो होती हीं है कि निचली अदालत के फैसलों को ऊपरी अदालत ने खारिज कर दे। कई मौकों पर निचली अदालत से दोषमुक्त हुए व्यक्ति को ऊपरी अदालत में सजा मिल जाती है और कई बार इसके उलट स्थिति भी होती है। ऐसे में अगर किसी विधायक या सांसद को निचली अदालत में सजा मिलने के बाद उसके पद से उसे हटा दिया जाता है और ऊपरी अदालत में उसे दोषमुक्त करार दे दिया जाता है, तो वैसी स्थिति में उसके पद से हटाने, वहां चुनाव कराने में होने वाले खर्च के लिए जिम्मेदार किसे ठहराया जाएगा। क्या फिर उसे विधायक या सांसद बनाया जाएगा, जैसा कि किसी सरकारी नौकरी करने वाले को फिर से पदस्थापित किया जाता है।
क्या निचली अदालत के जज को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। कई मामलों में ऐसा हुआ है और निचली अदालत से सजा पाए व्यक्ति को ऊपरी अदालत ने दोषमुक्त करार दिया है। इसलिए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि किसी विधायक या सांसद के साथ भी ऐसा हो और निचली अदालत से अगर उसे दो साल या उससे अधिक समय की सजा मिल जाए और ऊपरी अदालत उसकी सजा को कम कर दे या फिर उसकी सजा हीं समाप्त कर दे। निचले स्तर पर न्यायपालिका में भ्रष्टाचार भी कम नहीं है और इसे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने भी माना है तथा कई बार इस पर इन अदालतों के द्वारा टिप्पणी भी की गई है।.
ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिरकार सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला केवल राजनीति की गंदगी को ऊजागर करता है, या फिर न्यायपालिका की कमजोरियों को भी। यह सच है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला राजनीति के अपराधीकरण को कम करने के लिए है और संभव है कि इससे अपराधी चरित्र वाले लोगों को राजनीति में प्रत्यक्ष तौर पर आने से रोकने में मदद मिलेगी। लेकिन सवाल यहीं खत्म नहीं होता है। सुप्रीम कोर्ट ने ऊपरी अदालत के फैसले का इंतजार किए बिना विधायकों या सांसदों की सदस्यता खत्म करने या फिर उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की बात इसलिए की है, क्योंकि ऊपरी न्यायालय का फैसला आने में काफी देर होता है। कई बार तो, अंतिम फैसला आने में दस या बीस साल तक लग जाते हैं। न्याय मिलने में होने वाली इस देरी का फायदा एक तरफ अपराध करने वाले लोग उठाते हैं, तो दूसरी तरफ वे लोग भी उठाते हैं, जो किसी को अपराध में फंसाने की कोशिश करते हैं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने साफ तौर पर न्यायपालिका की खामियों की ओर इशारा किया है, जिसका खामियाजा विधायकों और सांसदों को भुगतना पड़ेगा, जिनके ऊपर आपराधिक मुकदमा चल रहा है।
आखिरकार अगर न्यायपालिका न्याय देने में देर करती है, तो इसके लिए जिम्मेदार मुकदमा करने वाला या फिर जिसके ऊपर मुकदमा किया गया है, वह व्यक्ति कैसे हो सकता है। उसे तो उच्चतम न्यायालय तक पहुंचने का अधिकार मिला हुआ है और वह उसका उपयोग करेगा हीं। अगर न्यायलय इन मुकदमो को समय पर नहीं निपटा पाती है, तो इसके लिए जिम्मदार कौन है, न्यायपालिका या फिर तथाकथित अपराधी,जिसे निचली अदालत से सजा मिल गई हो।
न्यायपालिका में होने वाली देरी के लिए दूसरे को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है। अगर अपराधियों को राजनीति से दूर रखना है या फिर अपराध को कम करना है तो सबसे पहले न्याययिक व्यवस्था में सुधार करना चाहिए। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को आगे आना होगा। अगर सरकार कोई कदम नहीं उठाती है, तो उसे न्यायपालिका में सुधार यथा न्यायालयों तथा न्यायधीशों की संख्या बढ़ाने, मुकदमो की सुनवाई एक तय समय सीमा के भीरत करने, इसके लिए जांच ऐजेंसियों को निर्देश देने और पूरा न करने पर जांच ऐजेंसी के अधिकारियों को सजा देने आदि के लिए सरकार को नर्देश नहीं बल्कि आदेश देना चाहिए। राष्ट्रीय महत्व के मुकदमे जिसमें राजनीति से जुड़े लोगों यानी पद पर रहने वाले लोगों के साथ-साथ घोटालों आदि जिससे राष्ट्र को बड़ा नुकसान हो रहा है, के मुकदमों की सुनवाई के लिए विशेष व्यस्था करने तथा एक समय सीमा तय करने के लिए सरकार पर दबाव डालना चाहिए। आखिरकार न्यायपालिका अपने अंदर के सुधार के लिए आगे कब बढ़ेगा। न्यायपालिका की कमियों की सजा दूसरों को क्यों भुगतना पड़े। हालांकि इस फैसले पर पुनर्विचार के लिए अपील की जा सकती है, लेकिन इससे न्यायपालिका की कमियों को तो दूर नहीं किया जा सकता है। न्यायपालिका में बड़े पैमाने पर सुधार की आवश्यकता है और अगर सुधार नहीं किया जाएगा तो इससे धीरे धीरे लोगों का विश्वास उठ जाएगा और यह लोकतंत्र के लिए सबसे बुरा दिन होगा।
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