बिहार विधानसभा चुनावों के संदेश
बिहार चुनावों के परिणामों से कई संदेश निकलते दिखाई दे रहे हैं । सबसे पहले तो नितीश बाबू के सुशासन को लोगों ने नकारकर भी उन्हें प्रदेश की कमान सौंप दी है । यह केवल इसलिए संभव हो पा रहा है कि भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करने के बावजूद भी मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में नितीश बाबू के नाम पर ही अपनी मोहर लगा दी है । इस पर संजय राऊत की वह टिप्पणी भी ध्यान रखनी चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि बिहार चुनावों के बाद यदि नीतीश कुमार फिर मुख्यमंत्री बनते हैं तो उन्हें शिवसेना का शुक्रगुजार होना चाहिए । सचमुच उनकी इस चुटकी में बल है । इस चुनाव परिणाम का दूसरा संदेश यह है कि भाजपा ने चाहे सीटें बढ़ा ली हैं परंतु आरजेडी ने भी जिस प्रकार शानदार बढ़त हासिल की है ,उससे लगता है कि थोड़े से संतुलन के बिगड़ते ही सत्ता इस समय आरजेडी के हाथों में होती। यह तब और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब आरजेडी के पास नीतीश और मोदी जैसे चेहरे थे। सारा प्रशासनिक तंत्र उनके हाथ में था । बहुत बड़े साधनों के साथ ये दोनों महारथी चुनावी महाभारत में उतरे थे। जबकि आरजेडी के तेजस्वी यादव के पास उनके मुकाबले बहुत कम साधन थे। इसके बावजूद वह इतनी शानदार सफलता लेकर उभरे हैं तो इसे उनकी एक उपलब्धि मानना ही चाहिए।
इधर चिराग पासवान है जिन्होंने अपनी फजीहत करा ली है। वह जिस जोश के साथ चुनावी समर में उतरे थे अब उनका वह जोश दूर हो गया है और होश भी आ गया है ।यदि वह भाजपा और जेडीयू के साथ मिलकर लड़ते और उनसे कुछ सीटें अपने लिए ले लेते तो आज उनके पास अपने विधायक भी होते और एनडीए का गठबंधन और भी अधिक ताकत के साथ सत्ता में लौटता। इस सब के उपरांत भी नितीश बाबू को कम करके आंका जाना गलती होगी। उन्होंने सत्ता विरोधी लहर और कोरोना जैसे महा संकट के दौरान फिर सत्ता में वापसी की है तो यह उनके भी नेतृत्व की बड़ी सफलता है।
इसी चुनाव में ओवैसी ने सीमांचल में जो कुछ करके दिखाया है उसके भी दूरगामी परिणाम होंगे। सांप्रदायिक शक्तियां किसी क्षेत्र विशेष में पहले ऐसे ही पैर पसारती हैं। बाद में उनका यह पैर पसारना एक कैंसर के रूप में निकल कर सामने आता है । निश्चय ही सीमांचल में जो कुछ आज हुआ है उसके दूरगामी परिणाम होंगे । ओवैसी जैसे संप्रदायिक राजनीतिक व्यक्ति का बिहार के सीमांचल से चमकना बिहार ही नहीं बल्कि देश की राजनीति के लिए भी अपशकुन है । इससे ओवैसी के इरादे और बुलंद होंगे और वह भीम और मीम के अपने नारे को लेकर आगे बढ़ेंगे। जिसका प्रभाव उत्तर प्रदेश में भी दिखाई देगा। इस प्रकार दलित मुस्लिम के असंवैधानिक गठजोड़ को लेकर भारत के इस्लामीकरण की प्रक्रिया की दिशा में ओवैसी आगे बढ़ेंगे । निश्चय ही इन चुनावों से ओवैसी को जिन्ना बनने की खुराक मिली है।
अब समय आ गया है जब केंद्र की मोदी सरकार को दलित मुस्लिम गठजोड़ को सांप्रदायिक और जातिगत गठजोड़ करार देकर इस प्रकार के गठजोड़ो पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून लाना चाहिए। क्योंकि जाति और संप्रदाय के आधार पर राजनीति करना असंवैधानिक है। इससे देश के टूटने की प्रक्रिया को बल मिलता है।
इस चुनाव में कई और चेहरों की प्रतिष्ठा दांव पर थी, जिनमें से कुछ चमक गए हैं तो कुछ मुरझा गए हैं। सबसे अधिक दावे करने वाले लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान पूरी तरफ फ्लॉप हो गए हैं तो आखिरी समय में पाला बदलने वाले सन ऑफ मल्लाह काफी फायदे में दिख रहे हैं।
चिराग पासवान ने इस चुनाव में एनडीए से अलग होकर अलग चुनाव लड़ने का फैसला किया। लोक जनशक्ति पार्टी ने 134 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे, लेकिन एक भी सीट हासिल करती नहीं दिख रही है। चिराग पासवान ने चुनाव में काफी बढ़चढ़कर दावे किए थे और नीतीश कुमार के खिलाफ जमकर बयानबाजी की थी। उन्होंने यहां तक कहा था कि इस बार बीजेपी और एलजेपी की सरकार बनेगी और नीतीश कुमार जेल भेजे जाएंगे। हालांकि, चुनाव नतीजों ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। बीजेपी ने अपने कोटे से वीआई को 11 सीटें दीं।
सन ऑफ मल्लाह नाम से फेसम विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के प्रमुख मुकेश साहनी फायदे में दिख रहे हैं। महागठबंधन की ओर से शीट शेयरिंग में नजरअंदाज किए जाने की वजह से नाराज साहनी ने महागठबंधन के प्रेस कॉन्फ्रेंस में ही साथ छोड़ने का ऐलान कर दिया था। इसके बाद वह एनडीए में शामिल हो गए। इस लिहाज से माना जा रहा है कि मुकेश साहनी काफी फायदे में रहे और बिना किसी शोर-शराबे, आरोप-प्रत्यारोप के उन्होंने चिराग से काफी अच्छा प्रदर्शन किया है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत