इतिहास पर गांधीवाद की छाया, अध्याय — 14 (2)
मुस्लिम और राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम
हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस के प्रारम्भिक काल में तो मुसलमान कांग्रेसी मंचों पर दिखाई दिए , पर धीरे – धीरे जैसे कांग्रेस आगे बढ़ती गई वैसे – वैसे ही मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग होता चला गया। कुछ कालोपरान्त जब मुसलमानों को यह लगने लगा कि अब कांग्रेस का उद्देश्य भारत की स्वाधीनता प्राप्त करना हो गया है तो वे कांग्रेसी मंचों से ओझल होते चले गए । मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे कुछ गिने – चुने मुस्लिम चेहरे यदि 1947 या उसके बाद भी कांग्रेस में दिखाई दिए तो उनकी सोच भी राष्ट्रवादी सोच नहीं थी। देश से पहले उनके लिए अपना संप्रदाय था । हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि देश के क्रान्तिकारी आन्दोलन के साथ काम करने वाले मुसलमानों की संख्या तो सर्वथा नगण्य ही थी।
कांग्रेस के पहले अधिवेशन की रिपोर्ट करते हुए, ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ ने 5 फरवरी, 1886 को कहा, “केवल एक ‘महान जाति’ की अनुपस्थिति विशिष्ट रही; भारत के मुसलमान वहाँ नहीं थे। वे अपने अभ्यस्त अलगाव में बने रहे।”
इस टिप्पणी में बहुत कुछ अंतर्निहित है मुसलमानों को कांग्रेस के नेता भी ‘महान जाति’ मानते थे , गांधीजी इस्लाम को एक ‘मजबूत धर्म’ मानते थे । यहाँ पर टिप्पणीकार कह रहा है कि ‘एक महान जाति’ कांग्रेस के मंच पर उपस्थित नहीं थी , साथ ही उसने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह अपने ‘अभ्यस्त अलगाव’ में थी अर्थात उन्हें आदतन कांग्रेस के इस मंच पर नहीं रहना था । उनका स्वभाव है कि जब तक अपने स्वार्थों की पूर्ति की बात हो , तब तक साथ बने रहो और जब बात राष्ट्र की होने लगे तो चुपचाप खिसक लो।
मुस्लिम समाज और ब्रिटिश शासक
मुस्लिमों द्वारा कांग्रेस के किसी भी कार्यक्रम या किसी भी योजना का पूर्ण बहिष्कार करने का प्रचार किया गया । इसके पीछे भी कारण था कि मुसलमानों को अपने हित ब्रिटिश शासकों की चाटुकारिता करने में अधिक दिखाई दे रहे थे। उनके द्वारा कांग्रेस के मंचों के पूर्ण बहिष्कार का जितना ही अधिक प्रचार किया जाता था , कांग्रेसी नेता उतने ही अधिक विचलित होते जाते थे। कांग्रेस की बढ़ती विचलन से मुस्लिम समाज के तत्कालीन नेता बड़े खुश होते थे । धीरे – धीरे उन्होंने कांग्रेस की विचलन के सामने अपनी इच्छाएं रखनी आरंभ कीं । कांग्रेस उनकी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए अपनी ओर से ‘बोली’ लगाती चली गई। जब गांधी जी ने मंच संभाला तो कांग्रेस ने तेजी से अपना सिर मुसलमानों के जबड़े के बीच में रख दिया । उसका परिणाम यह निकला कि मुसलमानों ने एक देश अलग लेकर कांग्रेस के सिर के बदले में भारत का शीश ही चबा लिया।
जब कुछ मुस्लिम प्रतिनिधि कलकत्ता (1886) में दूसरे कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने गए, तो उन्हें अन्य मुस्लिमों ने बताया कि “हिंदू हमसे आगे हैं। हम उनसे पिछड़ रहे हैं । हम अभी भी सरकार का संरक्षण चाहते हैं और उनसे (हिंदुओं से) जुड़कर हम कुछ हासिल नहीं कर पाएँगे।”
मुस्लिम वकील बद्रुद्दीन तैय्यबजी द्वारा कांग्रेस की अध्यक्षता (मद्रास, 1888) का पुरजोर स्वागत किया गया था। तैय्यबजी ने 18 फरवरी 1888 को सर सैय्यद अहमद खान को लिखे एक पत्र में अपने वास्तविक मंतव्य को स्पष्ट किया, “कांग्रेस से आपकी आपत्ति यह है कि ‘यह भारत को एक राष्ट्र मानती है’। अब मुझे पूरे भारत में किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में नहीं पता, जो इसे एक राष्ट्र के रूप में मानता हो। यदि आपने मेरे उद्घाटन संबोधन को देखा हो, तो आप यह स्पष्ट रूप से पायेंगे कि भारत में कई समुदाय या राष्ट्र अपने स्वयं की विशिष्ट समस्याओं के साथ विद्यमान हैं। उदाहरण के लिए विधान परिषदों को ही लीजिए। यदि एक निकाय के रूप में मुसलमानों को यह पसंद नहीं है कि सदस्यों को चुना जाए तो वे आसानी से इस प्रस्ताव को बदल सकते हैं और अपने हितों के अनुकूल बना सकते हैं। इसलिए, मेरी नीति भीतर से कार्य करने की होगी बजाय कि बाहर रहकर करने की”।
22 जनवरी 1888 को तैय्यबजी को लिखे एक पत्र में, ह्यूम ने लिखा, “अगर हमें सफल होना है तो हमारे पास एक मुस्लिम अध्यक्ष होना चाहिए और वह अध्यक्ष स्वयं आपको होना चाहिए। यह माना जाता है कि आपके अध्यक्ष होने से , सैयद अहमद के निन्दा -भाषणों का उत्तर भारत के मुस्लिमों पर कोई प्रभाव नहीं होगा ।”
तैय्यब का वह घातक प्रस्ताव
‘पायोनियर’ पत्र के सम्पादक को लिखे एक पत्र में, तैय्यबजी ने वर्णन किया कि किस तरह उन्होंने कांग्रेस के संविधान में निम्नलिखित नियम को समाहित करने के लिए पार्टी को बाध्य किया, “मुस्लिम प्रतिनिधियों के मामले में सर्वसम्मति से या लगभग एकमत से किसी भी विषय की प्रस्तावना या किसी भी प्रस्ताव के पारित होने में किसी आपत्ति के आने पर, इस तरह के विषय या प्रस्ताव को छोड़ दिया जाना चाहिए।”
ध्यान रहे कि कांग्रेस के विधान में आए इसी प्रावधान के चलते आगे चलकर मुसलमानों ने जहाँ -जहाँ भी भारतीयता के साथ अपने आपको असहज अनुभव किया , वहीं – वहीं ‘पर्सनल ला’ की दुहाई देकर वे भागते हुए दिखाई दिए । ‘वन्देमातरम’ को न गाने की जिद और उस पर कांग्रेस की तुरन्त सहमति आना या गांधीजी का मुसलमानों को इस पर समर्थन मिलना इसी प्रावधान से जन्मी एक राष्ट्र विरोधी भावना थी।
कांग्रेस के भीतर यदि यह कुसंस्कार पाया जाता है कि वह राष्ट्रविरोधी तत्वों को भी ‘राष्ट्रवादी’ कहकर आज भी पुरस्कृत करती है और चोर ,लफंगे, बदमाश राजा और न्यायाधीश सभी को एक साथ बैठाकर अपनी ‘राष्ट्रीय सोच’ का परिचय देती है तो उसके पीछे यही राष्ट्रघाती प्रावधान एकमात्र कारण है। इस प्रकार की सोच को गांधी जी ने दूध पिला -पिलाकर बड़ा किया।
मुस्लिमों को कांग्रेस से सदा दूर रखने के लिए अंग्रेजों ने भी उनकी पीठ थपथपाने में कभी कमी नहीं छोड़ी । उनके भीतर पाए जाने वाले ‘अलगाववादी कुसंस्कार’ को हवा देना वैसे भी अंग्रेजों के लिए कोई बड़ी बात नहीं थी । यह एक सर्वमान्य सत्य है कि हवा वहीं दी जा सकती है जहाँ पहले से ही अलगाववाद का कीटाणु उपलब्ध हो।
1885 से 1919 तक कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति उसके एक सिद्धांत के रूप में परिवर्तित हो गई । यही वह काल था जब गांधीजी ने कांग्रेस के मंच पर अपनी भूमिका निर्वाह करनी आरम्भ की थी। कांग्रेस के नेता गांधीजी और उनके साथी मुस्लिम तुष्टीकरण के माध्यम से मुस्लिम अलगाववादी नेताओं का मूल्य लगाते गए और वह अपना मूल्य बढ़ाते चले गए। भरसक प्रयास करने के उपरान्त भी गांधी जी और उनके साथी मुस्लिमों की राष्ट्र के प्रति निष्ठा को प्राप्त करने में असफल रहे । उधर अंग्रेज इस स्थिति का लाभ उठाने की हर संभव चेष्टा करते थे । मानो वह उन क्षणों की प्रतीक्षा कर रहे होते थे जब मुस्लिम अलगाववादी नेता कॉन्ग्रेस से किसी बात पर दूर भागें और अपनी कीमत वसूलने के लिए कांग्रेस के सामने अपनी कोई शर्त रखें ।
ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार सदा मुस्लिमों का पक्ष लेती थी । जिससे उनकी शर्त का मूल्य बढ़ जाता था । कांग्रेस के नेता अपनी कुसंस्कारी भावना से प्रेरित होकर मुस्लिम लीग या किसी भी अलगाववादी मुस्लिम नेता के सामने डट कर खड़े होने की अपेक्षा झुक जाना अच्छा मानते थे और कॉंग्रेस की यही वह कमजोर नस थी जिससे मुस्लिम लीग को और भी अधिक ऊर्जा मिल जाती थी।
हमारे देश के क्रान्तिकारी नेता और वीर सावरकर जी जैसे हिन्दूवादी नेता मुस्लिम लीग , कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार की इस राष्ट्र विरोधी नीति का दूर से बैठकर बड़ी गम्भीरता से अध्ययन कर रहे थे । वह समझ रहे थे कि उसका अन्तिम परिणाम क्या होगा ? वे इन तीनों की राष्ट्र विरोधी नीतियों का जितना ही अधिक विरोध करते थे ,ये तीनों मिलकर उतने ही अधिक उन हिन्दूवादी या क्रान्तिकारी नेताओं के विरोध में ‘एक’ होते जाते थे । इन तीनों ने मिलकर ऐसी परिस्थितियां बना दीं थी कि जैसे ये स्वयं तो राष्ट्रवादी हैं और जो वास्तव में राष्ट्रवादी थे वे राष्ट्र विरोधी हैं । सत्ता विरोधियों को इन तीनों ने राष्ट्र विरोधी घोषित किया और उनके द्वारा लिखा गया इतिहास भी उन्हें इसी दृष्टि से देखता रहा है। दुर्भाग्य से वही सोच इतिहास पर आज भी स्पष्ट देखी जा सकती है। मुस्लिम नेताओं ने अपनी अखिल-इस्लामिक योजनाओं को सिरे चढ़ाने के लिए स्वतन्त्रता संग्राम का लाभ उठाया और गांधी जी ने उन्हें ऐसा लाभ उठाने दिया।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत