मुजफ्फर हुसैन
गतांक से आगे…
जिस कृत्य से अपने पड़ोसी का दिल दुखता हो और जिस वस्तु के खाने से अपने साथ रहने वाले के मन में खटास पैदा होती है, उसे इसलाम ने वर्जित किया है। इसलिए आम धारणा यही रही कि सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए भारत गौ-वध पर प्रतिबंध अनिवार्य है। भिन्न भिन्न इसलामी विद्वानों ने अब तक 117 बार फतवे जारी करके गाय के न काटने के लिए मुसलिम बंधुओं से अपील की है। जमीअतुल ओलेमा के अध्यक्ष असद मदनी ने एनडीए सरकार के समय में उर्दू समाचार पत्रों में अपना बयान जारी करके मुसलमानों से आग्रह किया था कि वे बकरी ईद के दिन गाय की कुरबानी न करें।
एक सामान्य बात यह है कि जब अन्य हालात पशु भारत में उपलब्ध हैं तो फिर गाय अथवाा बैल का कुरबानी के लिए चयन करना उचित नही है। यदि हजरत इब्राहीम अपने पुत्र इस्माइल की कुरबानी का संकल्प करके ईश्वर को प्रसन्न कर सकते हैं तो यहां के अल्पसंख्यक मुसलिम बंधु भी गाय और बैल की रक्षा करके अपने देशवासियों का दिल जीत सकते हैं। कुरबानी नाम तो त्याग का है। क्या मुसलिम बंधु देश में शांति स्थापित करने के लिए इतना त्याग नही कर सकते? कोई यह कह सकता है कि सरकार यदि गौ-वध पर पाबंदी के लिए कड़े कानून नही बनाती है तो इसमें कुरबानी करने वाले का क्या दोष है? लेकिन क्या सारे काम कानून के भय से ही होने चाहिए? अपनी आत्मा की आवाज पर हम स्वयं किसी वस्तु के वध पर नैतिक दायित्व के रूप में प्रतिबंध क्यों नही लगा सकते? भारत में गाय और बैल का जो उपयोग होता है, उसे देखते हुए स्वयं मुसलिम ऐसा निर्णय लेंगे तो वह अधिक सुखद और स्थायी होगा।
मुसलमान अपने गौ-पालन के लिए मशहूर है। वह कई स्थानों पर गौशाला स्थापित करने में सहयोग देता है। सूफी संतों ने गायों को पाला है और गौभक्त होने का संदेश दिया है। नागपवुर में एक ऐसे ही मुसलिम संत और उनकी पत्नी गऊशाला चलाया करते थे। ताजुद्दीन बाबा प्रसिद्घ गौभक्त थे। अनेक उर्दू कवियों ने गाय के गुणगान करते हुए कविताएं लिखी है। हिंदी में रसखान इसके लिए मशहूर है तो उर्दू में मेरठ के स्व. कवि मोहम्मद इस्माइल साहब प्रख्यात हैं। उनकी सरल और मधुर कविता को याद करके उर्दू कक्षाओं के विद्यार्थी गौ माता का यशोगान करते हैं।
भारतीय उपखंड का मुसलमान हर मामले में सऊदी अरब को अपना आदर्श मानता है। क्या गाय के पालन के संबंध में भी वह ऐसा करना चाहेगा? यदि नही चाहता है तो फिर उसे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उसका मापदंड दोहरा है। वास्तव में देखा जाए तो सऊदी अरब को गाय के प्रति कोई प्रेम नही होना चाहिए, क्योंकि वह उसके देश का प्राणी नही है। भारत में गाय के प्रति एक विशेष प्रेम का कारण यह है कि गाय इस देश की माटी से जुड़ा हुआ प्राणी है। कृषि प्रधान देश में गाय का वही महत्व है जो अरबस्तान के लिए ऊंट का है। इसके बावजूद अरबी लोग गाय को कितना चाहते हैं और उसके लालन पालन से कितना लाभ उठा रहे हैं, यह भारतीय मुसलमानों को जानने की आवश्यकता है। अरबस्थान जैसे रेगिस्तानी देश में गाय के प्रति इतना ममत्व रखना एक आश्चर्य की बात है। इसलिए हम यहां सऊदी अरब के अल शफीअ फार्म नही बल्कि गऊ-सेवा का आंदोलन है। सऊदी अरब का अल शफीअ फार्म-
अरबस्तान के तेलिया राज हमेशा एक कथन दोहराते रहते हैं। मेरा बाप का बाप यानी परदादा ऊंट पर बैठा करता था। समय बदला तो दादा कार में घूमने लगा। पिता ने विमान को अपना लिया। मैं सुपर सॉनिक विमान में घूमतमा हूं। मेरा बेटा अपोलो जैसे किसी यान में बैठकर यात्रा करना पसंद करेगा। लेकिन उसका बेटा फिर से ऊंट पर बैठ जाएगा। दुनिया के चक्र में सब चीजें समाप्त हो जाती हैँ लेकिन कुदरत की पैदा की हुई चीज नष्ट नही होती। उसका महत्व भी समाप्त नही होता। जिस वस्तु को एक विशेष स्थान के लिए पैदा किया, वहां उसकी जरूरत हमेशा बनी रहती है। इसलिए ऊंट कल जितना अरबस्तान के लिए उपयोगी था उतना ही आने वाले समय में भी रहेगा।
सऊदी अरब के अल खिराज नामक नगर से प्राप्त एक रपट को देखिए जो मश्रेकुल वस्ता नाम के दैनिक ने प्रकाशित की है। सऊदी अरब के अल खिराज नामक स्थान पर जब सूर्य उदय होता है तो हजारों गायें एक विशाल शेड की छाया तले आकर शरण लेती है। यहां कंप्यूटर के द्वारा बढ़ते तापक्रम पर नजर रखी जाती है। उसके अनुसार गायों पर पानीकी बौछारें बरसाई जाती हैं। क्रमश:
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