भक्ति की पहचान है, जब गिर जाए गुरूर
सेवा सिमरन ज्ञान में,
जो रहते हैं लीन।
कोमल चित्त के भक्त में,
लक्षण मिलें ये तीन।। 165 ।।
शांति और पवित्रता,
मन में हो आनंद।
ऐसे भक्त को ही मिलें,
पूरण परमानंद ।। 166 ।।
ओज प्रसाद और माधुर्य,
वाणी के गुण तीन।
शोभा बढ़ै समारोह की,
सबका दिल ले छीन ।। 167।।
बल साहस और दक्षता,
शौर्य संग हो ज्ञान।
हीरे जैसा चमकता,
अद्भुत वह इंसान ।। 168।।
उपासना बदले वासना,
करूणा बदले क्रोध।
घृणा बदले प्रेम से,
जब जग जाए बोध ।। 169 ।।
आत्मा अपने स्वभाव में,
जब स्थिर हो जाए।
सिमरन का सुरूर हो,
यही अध्यात्म कहाय ।। 170 ।।
माया के जो भंवर में,
फंसे हुए इंसान।
भैंस के आगे बीन ज्यों,
है वेदों का ज्ञान।। 171 ।।
शीलता माथे बसै,
होठों पै मुस्कान।
वाणी में माधुर्य हो,
सज्जन की पहचान ।। 172 ।।
उमर घटै तृष्णा बढ़ै,
रहता एक जुनून।
घटै-बढै़ मन भी तेरा,
अटल प्रभु-कानून ।। 173 ।।
भक्ति की पहचान है,
जब गिर जाए गुरूर।
निशिदिन प्रभु के नाम का,
मन में रहै सुरूर।। 174 ।।
हरि हृदय तै पुकारिये,
तुरत मिलै करतार।
निर्मलता तेरे चित्त की,
पल में मिलावै तार ।। 175 ।।
असली रिश्ता छोड़कर,
नकली रहयो तू जोड़।
हरि चरणों में चैन है,
वहीं मिलेगी ठौड़ ।। 176 ।।
दुनिया की कड़वाहट को,
दिलसे मति लगाय।
बाहर रख शिव की तरह,
जनम सफल हो जाए।। 177 ।।
चंदन कटने के बाद में भी,
छोड़े न मूल स्वभाव।
सौम्य स्वभाव के कारनै,
माथे पै सज जाए।। 178 ।।
कितना ही धोओ मीन को,
फिर भी बदबू न जाए।
केतकी के कभी फूल में,
गुलाब की खुशबू न आए।। 179।।
चीता धुनेष और दुष्टï तो,
जब भी झुकें सुजान।
मत समझै सम्मान है,
ले सकते हैं जान ।। 180 ।।
शिकवों का संसार है,
जाको मूल स्वभाव।
ऐसा बिरला कोई है,
जाको हरि में भाव ।। 181 ।।
देख के दौलत का कुंआ,
मन में हर्षित होय।
चूक हुई गिरयो गर्त में,
भीतर भीतर रोय।। 182 ।।
स्वर्ग की इच्छा सुख करें,
पर पुण्य करै कोई और।
बिना पुण्य परलोक में,
कैसे मिलेगी ठौर।। 183 ।।
ज्यों ज्यों मैं ऊंचो उठयो,
साथ छोड़ गये दोष।
आंखें तो चुंधिया गईं,
वाणी हुई खामोश।। 184 ।।
होश न भूलो क्रोध में,
धन में न भूलो धर्म।
सत्ता में रख न्याय को,
हो न सकै दुष्कर्म।। 185 ।।
क्रमश: