गुरु की धमाल, चेलों का कमाल
– डॉ. दीपक आचार्य
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आज का दिन हर तरफ गुरु बनने और बनाने वालों का है। साल भर में एक बार गुरु को याद कर लो, कोटि-कोटि नमन कर लो, पादुका पूजन कर लो, दान-दक्षिणा समर्पित कर दो और खूब सारा आशीर्वाद ले लो।आज का दिन गुरुओं और उनके चेलों के लिए ही है, इसलिए इन दोनों ही पक्षों को श्रद्धा और आस्था के सागर में गोते लगाने दो। बात लेन-देन की जो है। गुरु को शिष्य आज के दिन श्रद्धा के साथ जो कुछ भेंट करना चाहता है उसे स्वीकारना गुरु का धर्म है और अपने शिष्य को दोनों हाथों से आशीर्वाद देना गुरु का फर्ज है। पारस्परिक धर्म संवहन का यह सिक्स लेन हाईवे सिर्फ आज के दिन ही खुलता है।
संसार बसता है आश्रमों में
पहले जमाने में गुरुओं के आश्रम और मठ हुआ करते थे जहां प्रकृति और भगवान का सान्निध्य था। आज गुरुओं के आश्रम से प्रकृति गायब है, भगवान भी किसी कोने में बैठे हैं तो सिर्फ इसलिए कि रखे रखना जरूरी है। सीमेंट कंकरीट और आरसीसी के बने आश्रमों में गुरुजी के लिए एसी रूम्स और आलीशान गाड़ियां हैं और वे सारे साधन-संसाधन उपलब्ध हैं जो सांसारिकों को आनंद की अनुभूति कराते हैं।कहने को बाबाजी संसार छोड़कर वैराग्य धारण कर चुके हैं मगर असलियत ठीक उलट है। बाबाजी को वह हर वैभव और भोग चाहिए जो आम आदमी को आनंद देता रहा है। ईश्वर की उपासना में तल्लीन और सच्चे गिनती के वैरागियों को छोड़ दिया जाए तो आजकल त्याग, तपस्या, वैराग्य और सादगी जैसे शब्द न गुरुओं के पास हैं न उनके चेलों की फौज के पास।
गुरु हो गए सरकारी नौकर
ज्ञान देने वाले गुरुओं ने नौकरी कर ली है और अब गुरु की पदवी से निवर्तमान होकर सरकारी नौकर की श्रेणी में गौरवान्वित हो गए हैं। समाज को मार्गदर्शन देने वाले बाबाओं के लिए अब पैसे और प्रतिष्ठा वाले लोग ही संसार हो कर रह गए हैं।
भगवान को भूले, स्वार्थों में रमे
कई बाबा तो ऎसे हैं जिनका उन सभी लोगों से चोली-दामन का साथ हो गया है जिनसे वे सारी सामग्री और प्रतिष्ठा मिलती है जो आम सांसारिक को जिन्दगी भर अभीप्सित होती है। कितने सारे गुरु तो ऎसे हैं जो महंत से लेकर महामण्डलेश्वर और पीठाधीश्वर की उपाधि धारण किये हुए हैं जिनके लिए ईश्वर का सामीप्य प्रधान होना चाहिए मगर वे राजपुरुषों के आगे-पीछे घूमते और उनका प्रशस्तिगान करते नज़र आते हैं।
पूरे संसारी बन बैठे हैं गुरु
कहाँ तो गोविन्द के आगे गुरु की महिमा को स्वीकारा गया है और कहां अपने ये गुरु, जो अपने ‘अहं ब्रह्मास्मि’भाव तथा दैवदूत की भूमिका को भुलाकर ऎसे-ऎसे कामों में रमे हुए हैं कि इन्हें संत या गुरु स्वीकारने को भी मन नहीं करता। संसार को नश्वर मानकर त्याग बैठे, वैराग्य धारण कर चुके लोगों से तो वे संसारी अच्छे हैं जो जिस स्थिति में हैं उसे स्वीकारते हैं। इसमें न दोहरा-तिहरा चरित्र भरा कोई आडम्बर है, न पाखण्ड या झूठ-फरेब। जैसे हैं वैसे दिखते भी हैं, रहते और स्वीकारते भी।
खुद की मुक्ति नहीं, औरों को सीख
गुरुओं का अपना इतना तगडा नेटवर्क है कि आम लोगों में जबरन यह भ्रम घुसा दिया गया है कि गुरु बनाओ नहीं तो न ईश्वर मिल सकते हैं, न मुक्ति। इन लोगों को शायद पता नहीं है कि हमारे शास्त्रों में ‘श्रीकृष्णं वंदे जगदगुरु’और ‘भवानीशंकरौवंदे श्रद्धाविश्वासरूपिणो…’ तक कहा गया है। फिर जिन लोगों ने गुरु कर रखे हैं उनका चाल-चलन,चरित्र, कथनी-करनी, जीवन व्यवहार कितना बदला, सुधरा और दिव्यता पा गया है यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। जिन्होंने बरसों से गुरु कर रखे हैं वे भी कौनसी उपलब्धि हासिल कर पाए, सिवाय किसी गुरु के नाम की कंठी या फोटो वाला लॉकेट धारण कर नए बंधन में फंस जाने के।
नकली गुरुओं की भरमार
किसम-किसम के गुरुओं की भारी भीड़ में आजकल यह तय करना मुश्किल हो चला है कि कौन असली है और कौन नकली। गुरु के बारे में कहा गया है कि वह करुणासिंधु, दयामय, पतितपावन, नैया पार लगाने वाले, दीनन व भक्तन हितकारी, मोह विनाशक, भवबंधन हारी, माया-मोह के बंधन काटने वाले, काम, क्रोध, मद, मत्सर आदि से मुक्ति प्रदान करने वाले हों।
गुरु के शाश्वत लक्षण हुए गायब
गुरु के बारे में शास्त्रों में स्पष्ट वर्णित है कि गुरु के पद पर वही प्रतिष्ठित हो सकता है जो सारे द्वन्द्वों से परे,त्रिगुण रहित, अज्ञान को नष्ट कर ज्ञान की रोशनी प्रदान करने वाला, चैतन्य, शाश्वत और शांत, भुक्ति-मुक्ति प्रदाता,निरंतर ब्रह्मानंद में रहने वाला, परमसुख देने वाला, तत्व को जानने वाला हो और शिष्य को संसार के मायामोह से ऊपर उठाकर ईश्वर से साक्षात्कार कराने और आत्मजागरण में समर्थ होना चाहिए।इतने सारे गुण किस गुरु में हैं, इस विषय पर गंभीरता से चिंतन करने पर सच्चे भक्तों को निराशा ही हाथ लगती है। अपने आपको गुरु बना व बता कर लोगों को चरण पूजवाने और कान में मंत्र फूूंकवाने वाले गुरुओं के लिए भी गुरु पूर्णिमा का यह पर्व आत्मचिंतन का पर्व है।