प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की ‘पड़ोस पहले’ की विदेश नीति
भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 26 मई 2014 को अपने प्रधानमन्त्रित्व काल का शुभारम्भ किया था । उस समय उन्होंने अपने सभी पड़ोसी देशों के समकक्ष शासनाध्यक्षों को अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया था। ऐसा करके प्रधानमन्त्री श्री मोदी ने अपनी सरकार की विदेश नीति की दिशा का स्पष्ट संकेत दिया था कि भारत के दक्षिण एशियाई पड़ोसी उसकी राजनयिक प्राथमिकता सूची में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने अपनी विदेश नीति के संकेत के माध्यम से यह भी स्पष्ट किया था कि हम एक नए युग का शुभारम्भ कर रहे हैं। जिसमें हम सबको साथ मिलकर बड़े लक्ष्य प्राप्त करने हैं। उनका स्पष्ट सन्देश था कि एक दूसरे को नीचा दिखाने, एक दूसरे के देशों में तोड़फोड़ कराने या एक दूसरे को अस्थिर करने की कुटिल चालों को छोड़कर हम नए विश्व के निर्माण के लिए साथ मिलकर काम करें और मानवता का उपकार करना अपनी-अपनी विदेश नीति का प्रमुख आधार बनाएं।
बड़ा भारत का सम्मान
प्रधानमन्त्री श्री मोदी के इस संकेत को पाकिस्तान ने सही सन्दर्भ में या तो समझा नहीं, या समझने का प्रयास नहीं किया । उसने भारत के साथ अपनी परम्परागत शत्रुता को यथावत जारी रखा। इसके साथ- साथ चीन भी अपनी परम्परागत कुटिल नीतियों से बाज नहीं आया। इतना ही नहीं, उसने नेपाल को भी भारत के विरुद्ध उकसाने का काम किया। जबकि श्री मोदी अपनी सरकार की नई विदेश नीति के साफ़ सन्देश और संकेतों के साथ आगे बढ़ते रहे। जिसका परिणाम यह हुआ कि वैश्विक मंचों पर भारत की आवाज को स्पष्ट रूप से वैसा ही समझा जाने लगा जैसा हमारे देश के प्रधानमन्त्री , विदेश मन्त्री या भारत का कोई भी प्रतिनिधि समय – समय पर बोलता रहा। इसके विपरीत पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री इमरान खान तक की बात को वैश्विक मंचों पर विश्व नेताओं ने हल्के में लेना आरम्भ किया। प्रधानमन्त्री श्री मोदी की सरकार की नीतियों से विश्व में भारत का सम्मान बढ़ा है। श्री मोदी ने अपनी विदेश नीति में ‘पड़ोस पहले’ की नीति को प्रमुखता देने का वचन दिया।
मोदी सरकार की ‘पड़ोस पहले’ की नीति कांग्रेस के नेतृत्व वाली पूर्व की सरकारों के बहुत अधिक अनुकूल ही कही जाएगी, क्योंकि कांग्रेस की सरकारों का दृष्टिकोण भी यही रहा था कि पड़ोसी देशों से मित्रता का भाव रखा जाए। पूर्व की कांग्रेसी सरकारों और वर्तमान मोदी सरकार की कार्यशैली में अन्तर केवल इतना आया है कि कांग्रेस के समय में देश का नेतृत्व पाकिस्तान जैसे उपद्रवी और आतंकवादी देश के सामने घुटने टेकता सा दिखाई देने लगा था , जबकि वर्त्तमान प्रधानमंत्री श्री मोदी के शासनकाल में भारत ने सिर उठाकर जीना सीखा है और ‘पड़ोस पहले’ की बात को मन – मस्तिष्क में रखकर भी स्वराष्ट्र के सम्मान को प्राथमिकता देना अपनी वरीयता सूची में प्रथम स्थान पर रखा है। कहने का अभिप्राय है कि वर्तमान में भारत सरकार की विदेश नीति आत्मसम्मान की कीमत पर किसी भी देश के साथ समझौता न करने की है।
बदलते भारत को पड़ोसियों ने भी समझा
वर्तमान सरकार ने बांग्लादेश के साथ द्विपक्षीय सम्बन्ध नीति को यथावत जारी रखते हुए अवामी लीग पर अधिक निर्भरता दिखाई है और तीस्ता नदी विवादों से दूरी बनाए रखी है। इसी प्रकार बर्मा, अफगानिस्तान और श्रीलंका सहित किसी भी पड़ोसी देश के साथ कुल मिलाकर वैसे ही सम्बन्ध बनाए रखने का प्रयास किया है , जैसे स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात से कांग्रेसी सरकारों ने बनाने का प्रयास किया था । यद्यपि अब विदेश नीति के प्रभावी स्वरूप और स्पष्टता के कारण पड़ोसी देश पहले की तरह अपने देश की भूमि को भारत के विरुद्ध आतंकवादी गतिविधियों को प्रोत्साहित न करने व प्रयोग न होने देने के प्रति सजग होते दिखाई दे रहे हैं। पड़ोसी देशों की समझ में यह बात आ गई है कि आज का भारत वह भारत में नहीं है जो अपने आत्मसम्मान को गिरवी रखकर दूसरों के सामने झुकने वाला था, अब वह दूसरों के आत्मसम्मान का सम्मान करते हुए भी अपने सम्मान के प्रति पूर्णतया सजग है।
हम सभी यह जानते हैं कि कांग्रेस की सशक्त प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के शासनकाल में श्रीलंका से हमारे सम्बन्ध बहुत अधिक खराब हो चुके थे। उस समय यह भी खतरा दिखाई देने लगा था कि अमेरिका भारत के सुदूर दक्षिण में आकर अपनी पैठ जमा सकता है ,और श्रीलंका में अपना कोई सैन्य बेड़ा भेजकर भारत के लिए स्थायी संकट खड़ा कर सकता है । श्रीमती इन्दिरा गांधी के बाद जब राजीव गांधी ने देश की कमान संभाली तो उनके शासनकाल में भारत को श्रीलंका में अपनी शान्ति सेना इसीलिए भेजनी पड़ी थी कि यदि भारत इसमें देरी करता तो उस समय अमेरिका श्रीलंका में आकर वहाँ की स्थितियों को संभालने की तैयारी कर चुका था। अमेरिका का वहाँ आना भारत के लिए किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं होता।
चीन के हस्तक्षेप को किया सीमित
प्रधानमंत्री श्री मोदी की सरकार ने श्रीलंका के साथ राजनीतिक सम्बन्धों को अविश्वसनीयता की अंधेरी सुरंगों से बाहर निकालने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने बड़ी ही सावधानी से इस देश के साथ भारत के सांस्कृतिक सम्बन्धों को फिर से जीवित करने का सराहनीय कार्य किया। जिससे हमें लगने लगा है कि भारत के दक्षिण में श्रीलंका नाम का कोई शत्रु नहीं अपितु एक मित्र ही रहता है। इस प्रकार की नीति रणनीति से हम दक्षिण से बहुत कुछ सुरक्षित हो गए हैं। यद्यपि चीन के प्रति श्रीलंका का झुकाव या कहिए कि चीन का श्रीलंका में रुचि लेना अभी भी भारत के लिए चिन्ता का विषय है।
बात यदि मालदीव की करें तो यह देश भी कुछ समय पहले भारत के लिए एक खतरा बन चुका था और भारत को लगने लगा था कि एक चुनौती यहाँ से भी खड़ी हो रही है। मालदीव जिस प्रकार धीरे-धीरे चीन के निकट जा रहा था उससे भारत की चिन्ता बढ़ती जा रही थी, परन्तु अब स्थितियों में यहाँ भी परिवर्तन आया है। मालदीव सरकार ने चीन के विरुद्ध कुछ ऐसे बयान दिए हैं, जिससे चीन से उसकी दूरी का अनुमान लगाया जा सकता है। चीन भारत को मालदीव और श्रीलंका के माध्यम से जिस प्रकार घेर रहा था उससे भारत की चिन्ताएं दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थीं , परन्तु अब भारत के कूटनीतिक व राजनयिक प्रयासों के चलते इन दोनों देशों में चीन के हस्तक्षेप को कम करने में हमें सफलता मिली है।
पाकिस्तान के प्रति भारत की नीति
प्रधानमन्त्री मोदी की पाकिस्तान के प्रति विदेश नीति की यदि समीक्षा की जाए तो उनके आलोचकों की इस बात में प्रथम दृष्टया बल प्रतीत होता है कि उन्होंने पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों को बहुत अधिक खराब कर लिया है, पर यदि सिक्के के दूसरे पक्ष पर विचार किया जाए तो पाकिस्तान जैसे चिर -परिचित शत्रु के साथ सम्बन्धों की समीक्षा में इतनी कड़वाहट पैदा हो जाना स्वाभाविक है। पाकिस्तान के बारे में हम सभी जानते हैं कि वह भारत को अस्थिर और विखण्डित करने के षड़यंत्र में अपने जन्म के पहले दिन से ही लग गया था। पाकिस्तान ने धीरे-धीरे ऐसी स्थितियां बनाईं कि भारत के भीतर ही पाकिस्तान की आवाज को उठाने वाले लोग दिन -प्रतिदिन मुखर होते चले गए । एक समय था जब उनके मजबूत ‘वोट बैंक’ पर राजनीतिक दलों की नजरें लगी रहती थीं। इस ‘वोट बैंक’ को भुनाने के लिए उनका तुष्टीकरण करना धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों की विवशता होती जा रही थी या कहिए कि इन धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों की तुष्टिकरण की नीति ने उन्हें इतना विवश कर दिया कि वह इस ‘वोट बैंक’ के मनोभावों के अनुकूल अपने आप को ढालने लगा ।
पाकिस्तान ने बड़ी सधी सधायी विदेश नीति के अंतर्गत इस ‘वोट बैंक’ को अपने अनुसार ढालना आरम्भ कर दिया । जिससे ‘वोट बैंक’ की राजनीति भारत-पाकिस्तान के सम्बन्धों पर हावी – प्रभावी होने लगी। फलस्वरूप पाकिस्तान भारत के भीतर बैठे अपने समर्थकों के माध्यम से सरकारों को कमजोर करने की अपनी रणनीति में सफल होता दिखाई देने लगा। जिससे सरकारों का पाकिस्तान के प्रति कठोर होने का दृष्टिकोण या इच्छा शक्ति कमजोर पड़ने लगी।
मोदी जी ने भारत की राजनीति के इस दुर्बलतम पक्ष को पहले दिन से समझ लिया था। उन्होंने भारत में पाकिस्तान समर्थक ‘वोट बैंक’ की कोई परवाह नहीं की। उन्हें पता था कि यहाँ से वोट नहीं मिलने। इसलिए उन्होंने इस ‘वोट बैंक’ की ओर से पूर्णतया उदासीन रहते हुए पाकिस्तान के प्रति अपनी कठोर नीति का परिचय देना आरम्भ किया। वह पाकिस्तान के प्रति अपनी विदेश नीति के प्रति जितने सावधान थे उतने ही भारत में पाकिस्तान समर्थक ‘वोट बैंक’ के प्रति भी सावधान रहे। यही कारण रहा कि उन्होंने जब भी देश या देश से बाहर सभाओं को सम्बोधित किया तो अपने आपको 130 – 35 करोड़ भारतीयों का प्रतिनिधि या प्रधानसेवक कहा । कहीं पर भी उन्होंने यह आभास नहीं होने दिया कि भारत के भीतर भी पाकिस्तान समर्थक एक ‘वोट बैंक’ है ।
भारत के भीतर पाकिस्तान समर्थक इस ‘वोट बैंक’ का ध्यान रखने वाली सरकारों को पाकिस्तान के प्रति अपनाई जाने वाली विदेश नीति में भारत के हितों का सौदा करना तो अच्छा लगता था पर उसके विरुद्ध कठोर बोलना उन्हें अच्छा नहीं लगता था।उन्हें डर रहता था कि यदि वह ऐसा करेंगे तो भारत में प्रतिक्रियास्वरूप उनका ‘वोट बैंक’ उनके हाथ से खिसक सकता है। नेताओं की इस प्रकार की तुष्टीकरण और भय प्रकट करने वाली नीति के चलते पाकिस्तान समर्थक लोगों का मनोबल भारत में बढ़ता गया । यही कारण रहा कि ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे – इंशाअल्लाह इंशाअल्लाह’ – जैसे नारे लगाने वाले लोग खुले घूमने लगे और भारत विरोधी नारे लगाकर शासन प्रशासन को आतंकित करने का काम करने लगे। इससे पाकिस्तान को भारत के विरुद्ध विश्व मंचों पर यह कहने का अवसर उपलब्ध हुआ कि भारत में मानवाधिकारों का उल्लंघन हो रहा है और भारत किसी विशेष वर्ग को जबरन अपने साथ लगाए रखना चाहता है । जबकि यह विशेष वर्ग किसी अलग देश की मांग कर रहा है । इससे भारत के समक्ष अपनी क्षेत्रीय अखण्डता को बचाए और बनाए रखने का गम्भीर प्रश्न उत्पन्न हो गया।
पाकिस्तान को किया मित्रविहीन
जबकि प्रधानमन्त्री मोदी ने पाकिस्तान के विरुद्ध अनपेक्षित रूप से विश्व मंचों पर एक ऐसा अभियान चलाया जिसमें उसे अलग-थलग कर देने में उन्हें सफलता मिली । अब पाकिस्तान उनकी विदेश नीति की सफलता से अपने आपको ठगा हुआ सा अनुभव करता है । पाकिस्तान को वैश्विक पटल पर मित्रविहीन कर देने का परिणाम यह आया है कि वह भारत से कश्मीर को अलग करने की अपनी योजनाओं को भूल गया है और अब उसे यह डर सताने लगा है कि उसका सिंध और बलूचिस्तान भी उसके हाथ से निकल सकता है। गिलगित और बालटिस्तान को तो वह अपने हाथ से निकला हुआ ही समझ चुका है।
सर्जिकल स्ट्राइक के बाद से पाकिस्तान का भारत के प्रति भय स्पष्ट दिखाई देने लगा है। इतना ही नहीं अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत की मजबूत सैन्य शक्ति का लोग लोहा मानने लगे हैं । 2016 के अपने स्वतन्त्रता दिवस के भाषण में प्रधानमन्त्री श्री मोदी ने जिस प्रकार बलूचिस्तान का उल्लेख किया उससे पाकिस्तान की नींद उड़ गई । पहली बार भारत के किसी प्रधानमंत्री ने लालकिले की प्राचीर से दूसरे देश के किसी प्रान्त में चल रहे आजादी के संघर्ष को अपना समर्थन देकर यह सिद्ध किया कि यदि पाकिस्तान भारत विरोधी शक्तियों को उकसा सकता है तो ऐसे में भारत भी हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठ सकता । प्रधानमंत्री श्री मोदी के सफल कूटनीतिक अभियान का ही परिणाम है कि कुलभूषण जाधव विवाद में भी आशाजनक मोड़ आया है । कुलभूषण जाधव के मामले में पाकिस्तान अब फूंक-फूंक पर कदम रख रहा है , जबकि अभिनन्दन के मामले में तो भारत की सफल कूटनीति ने पाकिस्तान को 24 घंटे में ही घुटने टेकने के लिए विवश कर दिया था । अब पाकिस्तान की संसद के भीतर यह खुलासा भी हो गया है कि यदि अभिनन्दन को समय रहते भारत को नहीं लौटाया जाता तो भारत अगले दिन पाकिस्तान पर रात 9:00 बजे हमला करने वाला था । जिससे पाकिस्तान के नेतृत्व की टांगों में कंपकंपी आ गई थी। भारत में उस समय यदि कोई दुर्बल इच्छाशक्ति वाला प्रधानमन्त्री रहा होता तो पाकिस्तान निश्चय ही कुलभूषण जाधव को अब तक फांसी पर लटका चुका होता ।
नेपाल भी आ रहा है सही रास्ते पर
यह प्रधानमंत्री श्री मोदी ही थे जिन्होंने नेपाल में 2015 में आए विनाशकारी भूकम्प के बाद भी इस पड़ोसी देश की सहायता वैसे ही करना उचित समझा जैसे एक बड़ा भाई छोटे भाई की सहायता करता है । यह अलग बात है कि इसके उपरान्त भी चीन के संकेत पर खेल रही वहाँ की सरकार ने भारत के विरोध में अपने सुर निकालने आरम्भ किए । परन्तु अब हम देख रहे हैं कि केपीएस ओली की सरकार भी चीन के दुराशय को समझ गई है और अब वह भारत के प्रति अपने हठ और दुराग्रह को त्यागती हुई सी दिखाई दे रही है । फलस्वरूप नेपाल के जिस नए संविधान ने काठमांडू और नई दिल्ली के बीच दरार पैदा कर दी थी वह अब पटती सी दिखाई दे रही है । इसी प्रकार मधेसी नाकाबंदी के कारण दोनों देशों में जो दूरी बनी थी उस पर भी अब पुल बनता दिखाई दे रहा है। चीन के खतरनाक इरादों को नेपाल के लोग समझ रहे हैं और नेपाली जनमानस का वहाँ की सरकार पर अब बहुत अधिक मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ चुका है। जिस कारण सरकार अपनी गलतियों की समीक्षा कर रही है। नेपाल ने कुछ समय पहले जिस प्रकार भारतीय क्षेत्र को अपने नक्शे में दिखाकर एक विवाद को जन्म दिया था, उस पर अब वह गम्भीरता से पुनर्विचार कर रहा है। इसके अतिरिक्त अयोध्या को लेकर जिस प्रकार वहाँ के प्रधानमंत्री ओली ने अतार्किक बयान दिया था, उससे भी अब वह पीछे हट गए हैं।
सुदूरस्थ देशों के प्रति भारत की नीति
प्रधानमंत्री श्री मोदी ने पूर्व की सरकारों की लीक से हटकर सुदूरस्थ देशों के साथ सम्बन्ध बनाने में भी एक ठोस पहल की है । मॉरीशस एक ऐसा देश है जो भारत से बहुत दूर एक दूसरे भारत के नाम से जाना जाता है । उसने भारतीय संस्कृति को अपने यहाँ बहुत उत्तमता से सुरक्षित और संरक्षित रखा है। इस बात की पूर्व सरकारें उपेक्षा करती आ रही थीं, परन्तु सांस्कृतिक रूप से अपने निकट रहने वाले इस देश का मोदी सरकार विशेष ध्यान रख रही है।
मॉरीशस और सेशेल्स के द्वीप देशों की यात्रा और हिन्द महासागर रिम एसोसिएशन के साथ सम्बन्ध बनाने के अतिरिक्त, मोदी सरकार ने हिन्द महासागर क्षेत्र (आईओआर) में भारत के लिए एक मजबूत आधार तैयार किया है। ऊर्जा, सामरिक, और आर्थिक दृष्टिकोण से ये सारे दौरे महत्वपूर्ण थे और इन दौरों ने हिन्द महासागर में भारत की समुद्री भूमिका को स्पष्ट कर दिया ।
मोदी सरकार की विदेश नीति के विशेषज्ञों की माने तो मोदी की पहल से दक्षिण-पूर्व एशिया में भारत की ‘एक्ट ईस्ट’ नीति में भी ऐसी आशाजनक नवीनता और गम्भीरता देखने में आई, जो 1990 के दशक की नीति का नवीन संस्करण कही जा सकती है। वास्तव में यदि भारत की इस नीति की समीक्षा की जाए तो पता चलता है कि एक्ट ईस्ट दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार और निवेश सम्बन्धों को बढ़ाने में भारत की उत्सुकता को प्रकट करती है।
जानकारों का मानना है कि प्रधानमन्त्री श्री मोदी की नीतियों के फलस्वरूप भारत के जापान के साथ सम्बन्धों में नया मोड़ आने से यह देश भारत के और निकट आया। भारत के जापान के साथ सम्बन्ध गहरे हुए और 2014 में ही बढ़कर ‘विशेष सामरिक एवं वैश्विक साझेदारी’ तक पहुँच गए। मोदी और उनके समकक्ष शिन्ज़ो आबे के बीच व्यक्तिगत भाईचारे द्वारा परिभाषित निर्बाध समन्वय, अवसंरचना सहयोग, परमाणु ऊर्जा और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति मोदी सरकार की उपलब्धियों को रेखांकित करती है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत