प्रमोद भार्गव
हाल ही में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने पहली बार चांद की सतह पर प्रत्यक्ष पानी का साक्ष्य खोजने का दावा किया है। चांद पर पानी की यह खोज नासा की स्ट्रेटोस्फियर ऑब्जरवेटरी फॉर इंफ्रारेड एस्ट्रोनॉमी (सोफिया) ने की है। नासा आर्टेमिस कार्यक्रम के तहत 2024 तक चांद की सतह पर मानव को भेजने की तैयारी में है। भारत भी 2022 में गगनयान के माध्यम से चंद्रमा पर मानव उतारने की तैयारी में है। इस अभियान के अंतर्गत नासा ने दावा किया है कि उसे चंद्रमा पर पर्याप्त रूप से पानी मिला है। यह पृथ्वी से दिखने वाले दक्षिण ध्रुव के एक गड्ढे में अणुओं के रूप में नजर आया है। यह पानी सूरज की किरणें पड़ने वाले क्षेत्र में मौजूद क्लेवियस क्रेटर (गड्ढे) में मिला है। इस खोज से वैज्ञानिकों को भविष्य में चांद पर इंसानी बस्ती बसाने में मदद मिल सकती है। हालांकि भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो के 2008 में छोड़े गए चंद्रयान-1 ने 11 साल पहले 2009 में ही चंद्रमा पर पानी होने के सबूत दे दिए हैं। ग्रहों पर पानी की संभावना मंगल और बृहस्पति पर भी जताई गई है।
नासा मुख्यालय में विज्ञान मिशन के निदेशक एवं एस्ट्रोफिजिक्स विभाग के निदेशक पॉल हट्र्ज ने कहा है कि सोफिया ने चंद्रमा के दक्षिणी गोलार्ध स्थित धरती से दिखाई देने वाले सबसे बड़े गड्ढों में से एक क्लेवियस क्रेटर में पानी के अणुओं (एच-2-ओ) का पता लगाया है। पूर्व के परीक्षणों के दौरान चंद्रमा की सतह पर हाइड्रोजन के तत्व की मौजूदगी का पता चला था। लेकिन हाइड्रोजन व पानी के निर्माण के लिए जरूरी तत्व हाइड्रॉक्सिल की गुत्थी नहीं सुलझी थी। इस गुत्थी के सुलझने के बाद चांद पर पानी उपलब्ध होने की पुष्टि हो गई है। यह पानी पहले के अनुमानों से 20 प्रतिशत अधिक है। हालांकि अफ्रीका के सहारा रेगिस्तान में मौजूद पानी की तुलना में सौ गुना कम है। ‘नेचर एस्ट्रोनॉमी’ में प्रकाशित अध्ययन में दर्ज डेटा के अनुसार, 100 से 412 पार्ट प्रति मिलियन की सांद्रता में पानी का पता चलता है। साथ ही कोलोरैडो विवि के पॉल हेन ने कहा है कि चांद पर चालीस हजार वर्ग किमी से ज्यादा क्षेत्र में पानी होने की संभावना है। बावजूद सवाल उठ रहे हैं कि चांद पर वायुमंडल नहीं है, फिर पानी के अवयवों का निर्माण कैसे हो रहा है? यह प्रश्न सही है लेकिन प्रकृति के रहस्यों को पूरी तरह जान लेना असंभव है, इसलिए चांद पर पानी की उपलब्धता प्रकृति के अज्ञात रहस्यों को जानने की दिशा में एक नई पहल भी हो सकती है।
22 अक्टूबर 2008 को भेजे गए भारतीय मिशन चंद्रयान-1 ने भी चांद पर पानी होने के सबूत दिए हैं। यह पानी चंद्रयान में मौजूद उपकरण मून इंपैक्ट प्रोब ने तलाशा था। इस ऑर्बिटर के जरिए नबंवर 2008 में चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर गिराया गया था। सितंबर 2009 में इसरो ने बताया कि चांद की सतह पर पानी चट्टान और धूलकणों में भांप के रूप में उपलब्ध है। ये चट्टानें दस लाख वर्ष से भी ज्यादा पुरानी बताई जा रही हैं। चंद्रमा पर मून इंपैक्ट प्रोब भेजने का सुझाव वैज्ञानिक एवं राष्ट्रपति रहे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम ने दिया था। उनका कहना था कि जब चंद्रयान ऑर्बिटर चांद के इतने करीब जा ही रहा है तो इसके साथ एक इंपैक्टर भी भेज दिया जाए। यह हमारी खोज से नए आयाम जोड़ेगा। इसी इंपैक्टर ने चांद पर पानी तलाशा। एक अन्य उपकरण रोवर के साथ ‘प्रज्ञान’ भी चंद्रयान-2 के साथ चांद पर उतारा गया है। यह प्रज्ञान भी दक्षिणी ध्रुव पर उतरने के बाद यहां की सतह में पानी और खनिजों की खोज में लगा है। हालांकि चंद्रयान-2 मिशन असफल रहा, इसलिए इसके अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे हैं।
भारत के चंद्रयान-1 और अमेरिकी नासा के लुनर रीकॉनाइसेंस ऑर्बिटर ने चंद्रमा पर चौतरफा पानी उपलब्ध होने के संकेत दिए हैं। गोया, चंद्रमा की सतह पर पानी किसी एक भू-भाग में नहीं, बल्कि हरतरफ फैला हुआ है। इससे पहले की जानकारियों से सिर्फ यह ज्ञात हो रहा था कि चंद्रमा के ध्रुवीय अक्षांश पर अधिक मात्रा में पानी है। इसके अतिरिक्त चंद्रमा पर दिनों के अनुसार भी पानी की मात्रा बढ़ती व घटती रहती है। ‘नेचर जिओ साइंस जर्नल’ में छपे लेख के मुताबिक चंद्रमा पर पानी की उत्पत्ति का ज्ञान होने के साथ ही, इसके प्रयोग के नए तरीके ढूढ़े जाएंगे। इस पानी को पीने लायक बनाने के लिए नए शोध होंगे। इसे हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विघटित कर सांस लेने लायक वातावरण निर्मित करने की भी कोशिशें होंगी। इसी पानी को विघटित कर इसे रॉकेट के ईंधन के रूप में भी इस्तेमाल किया जाएगा।
दरअसल, चंद्रमा पर हीलियम की खोज करके उससे पृथ्वी पर फ्यूजन पद्धति से ऊर्जा की समस्या का हल करने की परिकल्पना वैज्ञानिकों के दिमाग में है। परंतु फिलहाल चंद्रमा पर गहरा सन्नाटा पसरा है। यहां जीवनदायी तत्व हवा, पानी और अग्नि नहीं है। ये तत्व नहीं हैं इसलिए, जीवन भी नहीं है। यहां लगभग साढ़े 14 दिन के बराबर एक दिन और साढ़े 14 दिन के बराबर ही रातें होती हैं। इसीलिए पृथ्वी के साढ़े उनतीस दिन के बराबर चंद्रमा का एकदिन माना जाता है। पृथ्वी पर ऐसी विचित्र स्थिति कहीं नहीं है। बावजूद यहां मानव को बसाने की तैयारी में दुनिया के वैज्ञानिक जुटे हैं। जबकि फिलहाल यहां वायुमंडल भी नहीं है।
चंद्रमा पर जब पानी की संभावनाएं शून्य थीं, तब रूस और अमेरिका खर्चीले होने के कारण चंद्र-अभियानों से पीछे हट गए थे। यहां मानवयुक्त यान भेजने के बावजूद चंद्रमा के खगोलीय रहस्यों के नए खुलासे नहीं हो पाए थे। मानव बस्तियां बसाए जाने की संभावनाएं भी नहीं तलाशी जा सकीं थीं। गोया, दोनों ही देशों की होड़ बिना किसी परिणाम पर पहुंचे ठंडी पड़ती चली गई। किंतु 90 के दशक में चंद्रमा को लेकर फिर से दुनिया के सक्षम देशों की दिलचस्पी बढ़ने लगी। ऐसा तब हुआ जब चंद्रमा पर बर्फीले पानी और भविष्य के ईंधन के रूप में हिलियम-3 की बड़ी मात्रा में उपलब्ध होने की जानकारियां मिलने लगीं। वैज्ञानिक दावा कर रहे हैं कि ऊर्जा उत्पादन की फ्यूजन तकनीक के व्यावहारिक होते ही ईंधन के स्रोत के रूप में चांद की उपयोगिता बढ़ जाएगी। यह स्थिति आनेवाले दो दशकों के भीतर बन सकती है।
गोया, भविष्य में उन्हीं देशों को यह ईंधन उपलब्ध हो पाएगा, जो अभी से चंद्रमा तक के यातायात को सस्ता और उपयोगी बनाने में जुटे हैं। जापान और भारत की चंद्रमा के परिप्रेक्ष्य में प्रौद्योगिकी दक्षता सस्ती होने के साथ परस्पर पूरक भी है। इसीलिए दोनों देश चंद्र मिशन से जुड़े कई पहलुओं पर साथ-साथ काम भी कर रहे हैं। दूसरी तरफ जापान ने हाल ही चंद्रमा पर 50 किमी लंबी एक ऐसी प्राकृतिक सुरंग खोजी है, जिससे भयंकर लावा फूट रहा है। चंद्रमा की सतह पर रेडिएशन से युक्त यह लावा ही अग्नि रूपी वह तत्व है, जो चंद्रमा पर मनुष्य के टिके रहने की बुनियादी शर्तों में से एक है। इन लावा सुरंगों के इर्द-गिर्द ही ऐसा परिवेश बनाया जाना संभव है, जहां मनुष्य जीवन-रक्षा के कृत्रिम उपकरणों से मुक्त रहते हुए, प्राकृतिक रूप से जीवन-यापन कर सकेगा।
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