◙ *प्रार्थना और भक्ति…*
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_“हमनें बहुत से अंधविश्वासियो से सुना है कि श्री तुलसीदास जी अड गये कि ‘हे ईश्वर, हम तो तुझे धनुष-बाण लिये हुए ही देखना चाहते है।’. तुकाराम जी के लिए सुना है कि उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि ‘हम इस शरीर में तेरा निराकार स्वरुप नहीं देख सकते, अत: तू शरीर धारण करके चतुर्भुजी स्वरुप में दर्शन दे’।_
_“वस्तुतः प्रार्थना का इससे अधिक दुरुपयोग नहीं हो सकता। प्रार्थना है आत्मा को ईश्वर तक उठाने के लिए, न कि ईश्वर को आत्मा तक गिराने लिए। जो लोग ईश्वर का अवतार मानते है वे ईश्वर तक अपना उत्तरण (उठना) नहीं चाहते, किन्तु अपने तक ईश्वर का अवतार (गिरना) चाहते है। इसी लिए मनुष्य ऐसी कल्पनायें करते करते गिर जाता है और उन्नति के स्थान में अवनति कर बैठता है।”_
_“भक्ति शब्द संस्कृत के ‘भज् सेवायाम्’ धातु से बनता है। यदि हम ईश्वर के सच्चे सेवक है तो उसकी आज्ञा का पालन करेंगे, न कि ईश्वर को अपनी मनमानी बातें करने पर बाधित करेंगे। उस सेवक के लिए क्या कहा जाता है जो अपने स्वामी से अपनी मनमानी कराना चाहता है? इसी प्रकार जो लोग भक्ति के बहाने इस प्रकार की इच्छायें रखते है वह अपने आत्मा को दूषित करते है। ईश्वर तो ऐसी सत्ता नहीं है जो ऐसे मूर्खों के कहने से अपने नियम टाल दें।”_
– पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय जी
[स्त्रोत: “आस्तिकवाद”, पृ. ३४९-३५०, संस्करण २००८ ई. प्रस्तुति: राजेश आर्य]