सलीम अख्तर सिद्दीकी
इस एक लाइन के सवाल पर वैसे तो जनमत होना चाहिए। कोई एक व्यक्ति, दल या फिर खुद सरकार अपने से यह तय नहीं कर सकती कि सोशल मीडिया पर अंकुश लगाना चाहिए या नहीं। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में उभरते इस ताकतवर मीडिया माध्यम ने जितनी तेजी से अपना विस्तार किया है उसने जनता की सबसे बड़ी जरूरत मीडिया की ताकत को उसके हाथ में दे दिया है। लेकिन जनता के हाथ की यह मीडियाई ताकत क्या खुद जनहित के खिलाफ जा रही है? उस दिन 11 जुलाई को दिवंगत पत्रकार उदयन शर्मा की याद में जो लोग सोशल मीडिया के सवाल पर बोल रहे थे, उनका स्वर तो कमोबेश यही था।
दिल्ली में आयोजित उस कार्यक्रम का विषय बड़ा दिलचस्प रखा गया था। ‘क्या सोशल मीडिया देश का एजेंडा बदल रहा है?’सवाल भी मौजूं था और बोलनेवाले भी कोई साधारण लोग नहीं थे। केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने सोशल मीडिया की ताकत को आंका तो पत्रकार राजदीप सरदेसाई का मानना था कि देश का एजेंडा सोशल मीडिया तो क्या कोई भी राजनीतिक दल तय नहीं कर सकता। देश का एजेंडा यहां की जनता तय करती है और करती करेगी। राजदीप सरदेसाई की इस बात में दम था कि सोशल मीडिया पर अधिकतर देश का मध्यम वर्ग हावी है, जो इस हैसियत में नहीं है कि देश का एजेंडा तय कर सके। वह बहुत चंचल है। इसलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। उनकी इस राय से सभी को इत्तेफाक था। सरदेसाई का कहना था कि सोशल मीडिया की ताकत को कुछ ज्यादा करके आंका जा रहा है। इसलिए भारतीय जनता पार्टी सोशल मीडिया पर दो सौ करोड़, तो कांग्रेस सौ करोड़ रुपये खर्च करने जा रही है। हालांकि मनीष तिवारी ने अपने विचार रखते हुए सरदेसाई की इस बात का यह कहते हुए खंडन किया कि पता नहीं सरदेसाई को किस स्रोत से ऐसी जानकारी है, लेकिन कम से कम कांग्रेस सोशल मीडिया पर सौ करोड़ तो क्या दो करोड़ रुपये भी खर्च करने का इरादा नहीं रखती।
इस बात में दो राय नहीं कि आज की तारीख में देश में ही नहीं, दुनिया में सोशल मीडिया ताकत बना है, लेकिन इतना नहीं कि वह देश का एजेंडा तय करने लगे। मिस्र की क्रांति और खाड़ी के अन्य देशों में हुए राजनीतिक बदलावों में सोशल मीडिया के योगदान का बहुत उदाहरण दिया जाता है। जो लोग मिस्र आदि का उदाहरण देते हैं, वे भूल जाते हैं कि भारत उन देशों से कई मामलों में अलग है। वे बहुत छोटे देश हैं। दूसरे, वहां का मीडिया इतना आजाद नहीं है। तीसरे, सोशल मीडिया की पहुंच अधिकांश लोगों तक है। इसलिए पूरी तरह से आजाद सोशल मीडिया वहां अपना असर दिखाता है। भारत में मीडिया पूरी तरह से आजाद है, शायद जरूरत से ज्यादा। भारत में अभी इंटरनेट की पहुंच एक चौथाई आबादी तक भी नहीं है। वह भी शहरों में बसती है, जहां हमारा अधिकांश मध्यम वर्ग निवास करता है। यही वजह है कि जब अन्ना का आंदोलन होता है, तो उसमें सोशल मीडिया अपनी भूमिका तो निभाता है, लेकिन उसका दायरा सीमित रहता है। उसमें भागीदारी भी मध्यम वर्ग की ही होती है। दिल्ली से बाहर उसकी धमक सुनाई नहीं देती। देश के अन्य शहरों में ‘जंतर मंतर’ नहीं बनते।
भारत में 15-20 करोड़ जो लोग तथाकथित रूप से सोशल मीडिया से जुड़े हैं, उनमें कई करोड़ तो ऐेसे होंगे, जिन्होंने अपना एकाउंट बनाने के बाद उसे अपडेट भी नहीं किया होगा। हजारों ब्लॉग ऐसे हैं, जो बना दिए गए, लेकिन उन पर एक भी पोस्ट नहीं डाली गई। यही हाल फेसबुक का भी है। बच्चों ने फेसबुक पर अपने साथ ही अपने माता-पिता और दादा-दादी के भी एकाउंट बना दिए, जो नियमित रूप से संचालित नहीं होते। सिर्फ संख्या के आधार पर तय नहीं किया जा सकता कि सोशल मीडिया ताकतवर हो गया है। यह भी जरूरी नहीं कि सोशल मीडिया से जुड़ा हर आदमी राजनीतिक समझ रखता है या उसकी उसमें दिलचस्पी हो। हजारों ब्लॉगों में चंद ही ऐसे हैं, जिन पर राजनीतिक पोस्ट लिखी जाती हैं या उन पर बहस होती है। ज्यादातर ब्लॉग कविताओं और किस्से-कहानियों से भरे हुए हैं। यही हाल फेसबुक और ट्विटर का भी है। जब यह हाल है, तो पता नहीं यह कैसे कहा जा रहा है कि भारत में सोशल मीडिया बहुत ताकतवर हो गया है।
सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने की बात करने की बजाय फिलहाल तो सोशल मीडिया को समझना जरूरी है। अभिव्यक्ति की आजादी के बेजा इस्तेमाल को रोकने का काम वह सरकार कैसे कर सकती है जो खुद अभिव्यक्ति के आजादी की हिमायती हो? यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि जो जितना कम सोशल मीडिया को जानता है, वह अंकुश लगाने की उतनी ही अधिक वकालत करता है।हैरत की बात यह है कि देश की राजनीतिक पार्टियां भी सोशल मीडिया के पीछे इतनी दीवानी हो गईं कि उस पर सौ-दौ सौ करोड़ रुपये खर्च करने के लिए तैयार हैं? वैसे देखा जाए, तो भाजपा सोशल मीडिया के पीछे कुछ ज्यादा ही दीवानी है। इसकी शायद वजह यह है कि नरेंद्र मोदी हर समय सोशल मीडिया में छाए रहते हैं। उनके फॉलोवर भी ज्यादा संख्या में हैं। जब फेसबुक पर कोई भाजपा या नरेंद्र मोदी के खिलाफ कुछ लिखता है, तो उसका विरोध करने वालों का तांता लग जाता है। यही हाल ब्लॉग और इंटरनेट न्यूज पोर्टलों और अखबारों की वेबसाइटों का भी है। ऐसा क्यों होता है? इसकी दो वजह हो सकती हैं। एक, सोशल साइटों पर हिंदुत्व मानसिकता के लोग हावी हैं, जो शहरी वर्ग से आते हैं और उसी मध्यम वर्ग का हिस्सा हैं, जिसकी पहुंच सोशल मीडिया तक ज्यादा है। दो, यह बात सच है कि भाजपा सुनियोजित तरीके से उसका इस्तेमाल कर रही है।
भाजपा सोशल मीडिया के माध्यम से भ्रम फैलाने पर तुली है कि देश अब बदलाव चाहता है। लेकिन उसकी दिक्कत यह है कि यह भ्रम उन्हीं लोगों में फैल रहा है, जो इसको फैला रहे हैं। सोशल मीडिया के बारे में अक्सर कहा भी जाता है कि इस पर लिखने और पढ़ने वाले एक ही हैं। भारतीय जनता पार्टी यह भूल रही है या इससे जानबूझकर अनजान बन रही है कि देश की 80 प्रतिशत आबादी आज भी गांवों में निवास करती है, जहां उसके फैलाए जा रहे भ्रम को देखने वाले बहुत कम लोग हैं और यही वे लोग हैं, जो देश का एजेंडा तय करते हैं। अगर वह यह सोच रही है कि चंद करोड़ लोगों तक पहुंचकर वह देश का एजेंडा तय करेगी, तो वह भ्रम में है।
मनीष तिवारी भले ही कहें कि कांग्रेस का सोशल मीडिया पर कुछ भी खर्च करने का इरादा नहीं है, लेकिन कांग्रेस भी इसे आज के दौर की ताकत मानकर चल रही है। कांग्रेस को समझ लेना चाहिए कि देश का एजेंडा देश की वह जनता तय करेगी, जो सोशल मीडिया से तो नहीं जुड़ी है, लेकिन सरकार से अपेक्षा रखती है कि वह उसकी उसकी समस्याओं को हल करेगी। फिलहाल तो देश की जनता इस पशोपेश में लगती है कि आखिर उसे अपनी समस्याओं से कब छुटकारा मिलेगा।
हां, पारस्परिक विद्वेष और घृणा फैलाने के मामले में सोशल मीडिया जरूर ताकतवर बन गया है। इसकी बानगी हम पिछले साल उत्तर-पूर्व के लोगों के बारे में फैलाई गई अफवाह के परिणास्वरूप दक्षिण भारत से उत्तर-पूर्व के लोगों के पलायन में रूप में देख चुके हैं। सांप्रदायिक घृणा फैलाने में भी उसका योगदान बढ़ रहा है। शायद यही वजह है कि सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी सोशल मीडिया को ‘नियंत्रण’ करने की तो नहीं, लेकिन उस पर ‘अंकुश’ लगाने की बात जरूर करते हैं। ऐसे में यह जन बहस का विषय हो सकता है कि क्या सोशल मीडिया पर सरकारी अंकुश लगाना जरूरी है या जनता अपने भाग्य का फैसला खुद कर लेगी?
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