गांधीजी मुस्लिमों को कोरा चेक मत दो
भाई परमानंद
गतांक से आगे…..
दुर्भाग्य से इन दिनों इंग्लैंड में मजदूर मंत्रिमंडल (लेबर गवर्नमेंट) टूट गया और उसका स्थान राष्टï्रीय सरकार ने ले लिया। भारत मंत्री अब सेसुअल होर बना। यह बड़ा पक्का रूढ़िवादी था।
गांधी जी ने आगाखान से, जो उस समय मुस्लिम प्रतिनिधियों का नेता था, बातचीत आरंभ की। गांधी जी अपने दिमाग में एक नया मत लेकर हिंदुस्तान से लंदन गये थे। वे चाहते थे कि मुसलमानों को कोरा चेक पेश करके राजी किया जाए। कोरे चेक का अर्थ यह था कि मुसलमान चौदह ही नही, जितनी चाहें, मांगे लिख दें। गांधी जी उन सबको कांग्रेस की ओर से स्वीकार कर लेंगे।
हमें उनकी उस थियरी का पता लग गया था। इस कारण उनके लंदन जाने से पूर्व हिंदू महासभा की ओर से एक शिष्ट मंडल उन्हें दिल्ली में मिला। हमने हिंदू महासभा की स्थिति और मुसलमानों की सांप्रदायिकता स्पष्टïतया गांधी जी के सम्मुख रखी। उसके साथ ही उनसे यह कहा, आप मुसलमानों को कोरा चेक पेश करने का विचार छोड़ दें, अन्यथा महासभा इसका विरोध करेगी। परंतु किसी दूसरे की बात सुनना गांधी जी की आदत के खिलाफ था। लंदन में उन्होंने आगाखान के सामने कोरा चेक रख ही दिया। आगाखान और सेमुअल होर मिल गये। राजनीति जो थी। गांधी और आगाखान में रात को जो बातें होतीं, वे अगली सुबह स्वयं आगाखान के द्वारा ही भारत मंत्री सेमुअल होर को पहुंच जाती।
इसका परिणाम यह हुआ कि सेमुअल होर न मुसलमानों, ईसाईयों, ऐंग्लो इंडियनों और अछूतों के प्रतिनिधियों से मिलकर अल्पसंख्यकों का एक समझौता तैयार कर लिया। इस प्रकार गांधी जी को कोरे चेक के बदले कोरा जवाब मिल गया। एक बैठक में डॉक्टर अंबेडकर से उनकी झड़प हो गयी। डा. अंबेडकर अछूतों के लिए पृथक स्थान मांगते थे। इस पर गांधी जी ने धमकी दी कि यदि अछूतों को पृथक स्थान दिये गये तो वे अपनी जान की बाजी लगाकर उसका विरोध करेंगे। सांप्रदायिक समस्या का निश्चय न हो सका। इसलिए गांधी जी आदि ने सरकार से कह दिया कि वही इसका निर्णय दे। ब्रिटिश सरकार ने यह निर्णय सांप्रदायिक निर्णय केे रूप में दिया।
सरकार ने सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा पहली अगसत 1933 को की। इसने एक प्रकार से देश के कई टुकड़े कर दिये और सांप्रदायिकता को संविधान में इस प्रकार प्रविष्टï कर दिया कि सांप्रदायिक समस्या का हल करना असंभव हो गया। हिंदू बहुसंख्या की स्थिति को तो इतने गौण बना दिया। मुसलमानों और ऐंग्लो इंडियनों को इसने इतने स्थान दे दिये कि स्वयं उन्हें भी इसकी कल्पना न थी और उससे भी अधिक जो भारत सरकार उन्हें देना चाहती थी। फेडरेल एसेंबली में हिंदुओं की चौहतर प्रतिशत आबादी को चौंतीस प्रतिशत कर दिया गया। पंजाब में मुसलमानों को हिंदुओं की अपेक्षा उन्नीस स्थान अधिक दिये गये। इसी प्रकार बंगाल में हिंदू चालीस प्रतिशत थे और मुसलमान चौंतीस प्रतिशत। परंतु सांप्रदायिक निर्णय ने हिंदुओं को 21 और मुसलमान 34 प्रतिशत कर दिया। यह सब गांधी जी और कांग्रेस की गलत नीति और सरकार के प्रति अप्रभावी विरोध का परिणाम था। यदि गांधी जी इंग्लैंड जाकर आगाखान जैसे व्यक्तियों से बातचीत करने के स्थान में अंग्रेज राज्यमर्मज्ञों से बातचीत करते तो बेहतर परिणाम की आशा हो सकती थी। कांग्रेस ने सांप्रदायिक निर्णय को जहर का प्याला कहकर हिंदुओं को चुपके के पिलाने की लज्जाजनक नीति स्वीकार की।
स्वयं भाई जी से इन बातों सुनना चाहिए क्योंकि वे अधिकार वाणी से बता सकते हैं जब स्वराज पार्टी ने केन्द्रीय एसेंबली में जाने का कार्यक्रम बनाया तब उसने अधिकारपूर्वक कहा कि उसके सदस्य सरकार के विरूद्घ अंदर से लड़ाई करके देश को स्वतंत्र करवा देंगे। स्वराज पार्टी के संस्थापक बाबू चितरंजनदास और पंडित मोतीलाल, दोनों बड़े वकील थे। उनका दिमाग वकालत से भरा था। वे समझते थे कि यदि वे अपने तर्कों और भाषणों से यह सिद्घ कर देंगे कि द्वैध शासन गलत है। तो सरकार इस संविधान को बदलने पर बाध्य हो जाएगी।
स्वतंत्रता प्राप्त करने का ढंग शायद योग्य वकीलों की ही समझ में आ सकता है। इतिहास बताता है कि संसार में स्वतंत्रता प्राप्त करने का एक ही तरीका है, और वह है युद्घ। फिर स्वतंत्रता किसी गैर के देने से नही मिल सकती। यह तो शक्ति से प्राप्त की जाती है। हां, स्वायत्त शासन बिना युद्घ के भी प्राप्त कयिा जा सकता है यदि शासक दल पर पर्याप्त दबाब डाला जा सके। अमरीका ने इंग्लैंड से लड़ाई लड़कर स्वतंत्रता प्राप्त की थी। परंतु आयरलैंड लड़ाई लड़कर भी स्वतंत्रता प्राप्त नही कर सका। दबाव डालकर कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और आयरलैंड ने स्वायत्त शासन प्राप्त कर लिया।
जब छह वर्ष एसेंबली में रहने के पश्चात स्वराज पार्टी ने एसेंबली को छोड़ने का निश्चय किया तब पंडित मोतीलाल ने लाहौर कांग्रेस अधिवेशन में कहा कि उन्होंने एसेंबली से जाकर बड़ी सख्त भूल की है। इस तरीके से वे देश को एक इंच भी स्वतंत्रता की ओर नही ले सके।
कांग्रेसी नेताओं की कार्यवाईयों को देखकर मैं तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि उन्होंने स्वतंत्रता के नाम पर अपने अपने प्रयोग या तजरबे करने के लिए देश को इन तजरबो का निशाना बना रखा है। एक समय कहा गया, कौंसिलों में जाना हराम है। फिर एसेंबली में जाकर कांग्रेसी नेता आजादी के जंग अंदर से लड़ेंगे। अंत में बताया गया, एसेंबली में जाकर हम देश को एक इंच भी आजादी की ओर नही ले जा सके और पांच वर्ष बीत गये। गांधी जी ने कहा अब संसदीय मनोवृत्ति कांग्रेस में सदा के लिए बनी रहेगी। फिर सत्याग्रह के निमित्त एसेंबलियों को छोड़ना कांग्रेस का बड़ा धर्म बन गया।
क्रमश: