‘बैंकरोलिंग एक्सटिंक्शन’ नामक जारी एक ताज़ा रिपोर्ट की मानें तो भारत के दो सबसे बड़े बैंक, स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया और एचडीऍफ़सी, लगभग 6984 मिलियन डॉलर ऐसे क्षेत्र में निवेश कर चुके हैं जिनसे जैव विविधता को नुकसान हो रहा है।
दरअसल पोर्टफोलियो अर्थ नामक संस्था द्वारा इस अपनी तरह की इस पहली रिपोर्ट में दुनिया के 50 सबसे बड़े बैंकों और उनके द्वारा उन निवेशों पर गौर किया गया है, जिन्हें सरकारें और वैज्ञानिक जैव-विविधता को हो रहे नुकसान के लिये बड़ा जिम्मेदार ठहराते हैं। जैव-विविधता को नुकसान पहुँचाने वाले जिन क्षेत्रों में इन बैंकों ने वित्त पोषण किया है उनमें मुख्य रूप से खनन, कोयला उत्पादन और ऐसे इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण जिससे जैव विविधता को नुकसान होता है, शामिल हैं।
यहाँ ये साफ़ करना ज़रूरी है कि भारत के दोनों ही बैंक कुल हुए निवेश के बेहद छोटे हिस्से के लिए ज़िम्मेदार हैं और शीर्ष दस वित्त पोषक बैंकों की लिस्ट में नहीं हैं, लेकिन भारत जैसी अर्थव्यवस्था और जैव विविधता वाले देश के लिए यह एक चिंता की बात है।
लिस्ट में शामिल भारतीय बैंकों के निवेश अमेरिकी और चीनी बैंकों की तरह सीधे तौर पर पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं लगते लेकिन इन दोनों बैंकों को भी अपने निवेशों के लिए 48 दूसरे बैंकों के साथ कटघरे में खड़ा किया गया है।
साल 2019 में इन सभी बैंकों ने कुल मिलाकर 2.6 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर ऐसे क्षेत्रों में निवेश किये हैं जो पृथ्वी की जैवविविधता को भरी नुकसान पहुंचा रहे हैं। इन सभी बैंकों में जैव विविधता को सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाने के लिए ज़िम्मेदार जो दस बैक हैं, वो हैं बैंक ऑफ अमेरिका, सिटीग्रुप, जेपी मॉर्गन चेज़, मिज़ूओ फाइनेंशियल, वेल्स फ़ार्गो, बीएनपी पारिबा, मित्सुबिशी यूएफजे फाइनेंशियल, एचएसबीसी, एसएमबीसी ग्रुप, और बार्कलेज़।
बात एशिया की करें तो नीचे दिए टेबल से स्थिति साफ़ दिखती है
देश | बैंक |
भारत | स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, एचडीएफसी |
सिंगापुर | डीबीएस |
चीन | ओसीबीसी, चाइना कंस्ट्रक्शन बैंक, बैंक ऑफ चाइना, एग्रीकल्चरल बैंक ऑफ चाइना, इंडस्ट्रियल एण्ड कॉमर्शियल बैंक ऑफ चाइना |
ऑस्ट्रेलिया | नेशनल ऑस्ट्रेलिया बैंक्स, कॉमनवेल्थ बैंक ऑफ ऑस्ट्रेलिया |
मलेशिया | सीआईएमबी बैंक, मलेशियन बैंकिंग |
दक्षिण कोरिया | शिंहान फाइनेंशियल ग्रुप |
इंडोनेशिया | बैंक मंदीरी |
जापान | एसएमबीसी, मिजुहो फाइनेंशियल, नोरिंचुकिन बैंक, मितसुबिशी फाइनेंशियल |
जैव विविधता को नुकसान पहुँचाने वाले क्षेत्रों का वित्त पोषण करने से पहले इनमें से किसी भी बैंक ने न तो कोई ऐसी निगरानी व्यवस्था बनाई जो इस बात पर नज़र रखती कि यह निवेश जैव विविधता को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं, और न ही इस नुकसान को रोकने की कोई व्यवस्था बनाई।
पोर्टफोलियो अर्थ के लिज़ गलाहर ने अपनी बात रखते हुए कहा, “आधी दुनिया की जीडीपी प्रकृति और इसके द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाओं के लिए ऋणी है। अब वक़्त है कि हम वित्तीय प्रणाली को रीसेट करें जिससे इसके प्रभावों के लिए इसे पूरी तरह से जवाबदेह ठहराया जा सके।”
लिज़ की संस्था ने रैंकिंग तैयार करने की प्रक्रिया के लिये इस बात पर भी गौर किया है कि बैंकों ने अपनी नीतियों में प्रकृति के लिए अपनी जवाबदेही को तरजीह दी है। जो बात इस रिपोर्ट को ख़ास बनाती है वो यह है कि यह हमें मौका देती है कि हम देख पायें कि वित्तीय क्षेत्र किस तरह से जैव-विविधता को रहे नुकसान में तेज़ी लाने में भूमिका निभा रहा है।
जो तीन मुख्य माँग इस रिपोर्ट के ज़रिये सामने रखी गयीं हैं वो हैं कि:
• बैंकों को अपने निवेशों का न सिर्फ़ खुलासा करना चाहिए बल्कि प्रकृति पर उन निवेशों के प्रभाव को कम भी करना चाहिए। साथ ही बैंकों को नए जीवाश्म ईंधन, वनों की कटाई, अतिवृष्टि और पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश को अपने स्तर से रोकना चाहिए।
• सरकारों को जैव विविधता विनाश में बैंकों की भूमिका की रक्षा करना बंद कर देना चाहिए और उनके दिए ऋण से होने वाले नुकसान के लिए बैंकों को उत्तरदायी ठहराने के लिए नियमों को फिर से लिखना चाहिए।
• खाताधारकों का इस बात पर नियंत्रण होना चाहिए कि उनका पैसा कैसे निवेश किया जाता है। उनके पास बैंकों को पृथ्वी को गंभीर नुकसान पहुंचाने से रोकने का अधिकार भी होना चाहिए।
रिपोर्ट पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए यूनिवर्सिटी ऑफ ब्रिटिश कोलम्बिया में प्रोफेसर और आईपीबीईएस ग्लोबल असेसमेंट रिपोर्ट के मुख्य लेखक काई चैन कहते हैं, “एक ऐसी दुनिया की कल्पना करिये जिसमें परियोजनाओं के लिये तभी पूंजी दी जाए, जब यह जाहिर किया जाए कि वे सभी के लिये धरती की पूर्णता और सुरक्षित जलवायु को बहाल करने की दिशा में सार्थक और सकारात्मक योगदान करेंगे। यह रिपोर्ट एक ऐसे ही भविष्य की परिकल्पना करती और उस दिशा में रास्ता बताती है। वैश्विक सतत अर्थव्यवस्था दरअसल जलवायु तथा पारिस्थितिकीय संकट से निपटने के लिये मानवता के बहुप्रतीक्षित रूपांतरण का केन्द्र होती है, और उसके केन्द्र में वे बैंक और वित्तीय संस्थान होते हैं जिनके निवेश से पूरी दुनिया में विकास को ताकत मिलती है।
काई चैन की बात का दूसरा पहलू दिखाते हुए अमेजॉन वाच की क्लाइमेट एवं फिनांस डायरेक्टर मोइरा बिर्स कहती हैं, “अगर अमेजॉन के वर्षावनों को बचाना है और हमें धरती पर अपना भविष्य बरकरार रखना है तो वित्तीय संस्थाओं को जैव विविधता को बेरोकटोक नुकसान पहुंचा रहे उद्योगों पर ट्रिलियन डॉलर खर्च करने से रोकना होगा। अमेजॉन के वर्षावनों में इस वक्त कृषि कारोबार, खनन और जीवाश्म ईंधन जैसे उद्योग स्थानीय लोगों के अधिकारों को रौंद रहे हैं। बड़े बैंकों से कर्ज और जोखिम अंकन (अंडरराइटिंग) प्राप्त ये उद्योग बेरहमी से वनों को काट रहे हैं।”
चर्चा का एक अलग आयाम बताते हुए स्टैंड.अर्थ के एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर टॉड पगलिया ने कहा, “आज के दौर में वे ही वित्तीय संस्थाएं दूरदर्शी कही जाएंगी जो हमारे महासागरों, वनों और जलवायु के पुनरुद्धार सम्बन्धी परियोजनाओं में निवेश कर रही हैं। हमें अनेक सदियों के दौरान बैंकों द्वारा पृथ्वी के दिल, फेफड़ों और अन्य अंगों को नुकसान पहुंचाने वाली गतिविधियों में निवेश किये जाने से हुई क्षति की भरपाई करनी होगी। वह भी बहुत कम समय में।”
टॉड की बात को आगे ले जाते हुए कार्बन ट्रैकर इनीशियेटिव के संस्थापक और अधिशासी अध्यक्ष मार्क कैम्पोनाले कहते हैं, “एक ऐसी जटिल दुनिया में जहां उपभोक्ता की बढ़ रही ताकत वैश्विक जीवन स्तर में उठान से जुड़ी है, हम कुदरत के दुर्लभ संसाधनों की अपरिवर्तित मांग को देख रहे हैं। सुधार के कदम उठाने में सरकारों की सामूहिक नाकामी और मुनाफे के लक्ष्य के कारण आयी तेजी के मद्देनजर बुरे कॉरपोरेट पक्षों को दुनिया के महासागरों, वातावरण और जंगलों का शोषण करने से रोकने के लिये अब कोई खास बाधा बाकी नहीं रह गयी है। मगर फिर भी बैंकिंग प्रणाली के रूप में एक ताकतवर चीज अब भी मौजूद है जो कॉरपोरेट के लालच के इस अंतहीन सिलसिले पर रोक लगा सकती है।”
मार्क आगे कहते हैं कि, “यह रिपोर्ट हमें बताती है कि सरकारों और वित्तीय नियामकों के पास एक ऐसा नियम-आधारित समुचित तंत्र विकसित करने के लिये ज्यादा समय नहीं है, जो हालात की निगरानी करने के साथ-साथ यह भी सुनिश्चित करे कि बैंक इस कॉरपोरेट लूट को अब बेरोकटोक तरीके से आर्थिक खाद-पानी नहीं दे सकते।”
मार्क की बात से सहमत अर्थ एडवोकेसी यूथ की हाना बेगोविच कहती हैं, “पारिस्थितिकी सम्बन्धी संकट को बढ़ावा देने में अपनी भागीदारी को लेकर अब बैंकों को अपनी आंखें खोलनी होंगी और अपने उन फैसलों और कदमों की जिम्मेदारी लेनी होगी, जिनकी पारिस्थितिकी तंत्रों के बड़े पैमाने पर विध्वंस में भागीदारी साफ जाहिर होती है। हमारी मांग है कि बैंक जिम्मेदारी लें और अपने उन तौर-तरीकों को बदलें, जिनके जरिये इस वक्त पुरानी व्यवस्था को बरकरार रखने की कोशिश की जा रही है। इस रिपोर्ट को पढ़ते हुए यह लगातार स्पष्ट होता जा रहा है कि आज का वैश्विक तंत्र मानवता को धरती की पुनरुत्पादक क्षमता की सीमाओं को लगातार तोड़ने और धरती पर जीवन को चलाने वाले नैसर्गिक कानून के उल्लंघन की न सिर्फ इजाजत दे रहा है, बल्कि कई तरीकों से उसे प्रोत्साहित भी कर रहा है। मूलरूप से अनंत आर्थिक विकास और प्राकृतिक संसाधनों के कभी न खत्म होने वाले शोषण पर आधारित वैश्विक तंत्र को बरकरार रखने से हम इस धरती पर जीवन को इंसान के मालिकाना हक वाली सम्पत्ति बना डालेंगे, जिसके वजूद का औचित्य इस बात से तय होगा कि इंसान के फायदे और आर्थिक लाभ के लिये उसका शोषण किस हद तक किया जा सकता है।
और अंततः, विविड इकॉनमिक्स के निदेशक रॉबिन स्मेल ने कहा, “बैंक हमारी जैव-विविधता को बर्बाद करने वाले तंत्र का प्रमुख हिस्सा हैं। वे आपूर्ति श्रंखला को पूंजी मुहैया कराते हैं। मौजूदा कानूनी प्रणाली उन्हें जिम्मेदारी और जवाबदेही से बचा रही है। यही वजह है कि नुकसानदेह गतिविधियों के समाधान में मदद की सम्भावनाएं भी कमजोर पड़ जाती हैं। बच निकलने के इन कानूनी रास्तों को बंद किये जाने से बैंकों को अपने द्वारा वित्तपोषित परियोजनाओं के जैव-विविधता पर पड़ने वाले असर का अधिक सुव्यवस्थित तरीके से समाधान निकालने और प्रमुख आपूर्ति श्रंखलाओं में व्याप्त गतिविधियों को रूपांतरित करने के लिये मजबूर होना पड़ेगा।”