हमें गुरु शिष्य परम्परा को पुनर्जीवित करना ही होगा
पूनम नेगी
वैदिक ऋषियों ने अज्ञान को नष्ट करने वाले ब्रह्म रूपी प्रकाश को गुरु की संज्ञा दी है। अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं, तत्पदं दर्शितं येन, तस्मै श्री गुरुवे नम: कह कर भारतीय मनीषा ने जिस गुरु तत्व की अभ्यर्थना की है, वह अपने आप में अनूठी है। हमारी सनातन संस्कृति में गुरु को महज व्यक्ति नहीं ऐसी मार्गदर्शक सत्ता माना गया है जो भ्रम व अज्ञान के सभी आवरण हटाकर शिष्य के अन्तस को आत्मज्ञान की ज्योति से आलोकित कर देता है। इसी चिर पुरातन गुरु-शिष्य परम्परा के कारण प्राचीन काल में हमारा भारत आत्मविद्या के शीर्ष पर था। संस्कृति के पुण्य प्रवाह में हमारी आध्यात्मिक धरा के तप:पूत आचार्यों के आत्मज्ञान की प्रखर ऊर्जा ने समूचे राष्ट्रजीवन को प्रकाशमान किया था तथा अपने सुपात्र शिष्यों के माध्यम से इस दिव्य आत्मविद्या के सतत प्रवाहमान बने रहने की व्यवस्था भी सुनिश्चित की थी। शाश्वत जीवन मूल्यों और सुसंस्कारों के सतत बीजारोपण की इस अमूल्य परम्परा ने हमारे भारत को दुनिया का सर्वाधिक महान राष्ट्र और विश्वगुरु बनाया था।
भारत की गुरु-शिष्य परम्परा की महत्ता को उजागर करता पाश्चात्य दार्शनिक शोपेनहॉवर का यह कथन वाकई काबिलेगौर है कि विश्व में यदि कभी कोई सर्वाधिक प्रभावशाली व सर्वव्यापी सांस्कृतिक क्रांति आई है तो वह केवल उपनिषदों की भूमि-भारत से। जिज्ञासु शिष्यों ने ज्ञानी गुरु के समीप बैठकर उनके प्रतिपादनों को क्रमबद्ध कर उपनिषदों के रूप में दुनिया को जो दिव्य धरोहर दी है, उसका कोई सानी नहीं है। शोपेनहॉवर का कहना था, ‘यदि मुझसे पूछा जाए कि आकाश मंडल के नीचे कौन सी वह भूमि है, जहां के मानव ने अपने हृदय में दैवीय गुणों का पूर्ण विकास किया तो मेरी उंगली भारत की ओर ही उठेगी। यदि मैं स्वयं से पूछूं कि वह कौन सा साहित्य है जिससे अब तक ग्रीक, रोमन व यहूदी विचारों में पलते आये यूरोपवासी प्रेरणा ले सकते हैं तो मेरी उंगली केवल भारत की ओर ही उठेगी।’
विश्वमंच से भारत की पुरातन ज्ञान सम्पदा का गौरवगान करने वाले स्वामी विवेकानंद का कहना था, हमें गर्व है कि हम अनंत गौरव की स्वामिनी इस भारतीय संस्कृति के वंशज हैं, जिसके महान गुरुओं ने सदैव दम तोड़ती मानव जाति को अनुप्राणित किया है। समय की प्रचण्ड धाराओं में जहां यूनान, रोम, सीरीया, बेबीलोन जैसी तमाम प्राचीन संस्कृतियां बिखरकर अपना अस्तित्व खो बैठीं, वहीं एकमात्र हमारी भारतीय संस्कृति इन प्रवाहों के समक्ष चट्टान के समान अविचल बनी रही क्योंकि हमें हमारी आत्मज्ञान सम्पन्न दिव्य-विभूतियों का सशक्त मार्गदर्शन सतत मिलता रहा।
भारत की गुरु-शिष्य परंपरा की प्रासंगिकता के बारे में गायत्री महाविद्या के महामनीषी युगऋषि पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य बेहद तर्कपूर्ण बात कहते हैं, गुरु-शिष्य परम्परा यानी आत्मज्ञान की पूंजी को आने वाली पीढिय़ों तक पहुंचाने का दिव्य सोपान। प्राचीनकाल में जब किसी आत्मज्ञान के जिज्ञासु साधक के अंतस में अन्र्तप्रज्ञा जाग्रत होती थी तो वह किसी ऐसे सुपात्र को खोजता था जिसे उस आत्मज्ञान को हस्तांतरित कर सके। भारत में यह सिलसिला बिना किसी बाधा के सदियों तक लगातार चलता रहा। पौराणिक युग में परशुराम, कणाद, वशिष्ठ, विश्वामित्र, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, सांदीपनि, व्यास, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, अगत्स्य आदि ऋषि महर्षियों की सुदीर्घ श्रंखला ने हमारे देश को ऐसे-ऐसे नररत्न दिये, जिनका आज भी कोई सानी नहीं है। वन प्रांतों के शांत, शुद्ध व यज्ञधूम्र से पवित्र गुरुकुलों में तत्वदर्शी गुरु अपने अन्तज्र्ञान को अटूट विश्वास, पूर्ण समर्पण और गहरी घनिष्ठता के माहौल में अपने शिष्यों तक पहुंचाते थे।
वैदिक युग में शुरू हुई यह परम्परा 18वीं-19वीं सदी तक क्रमिक रूप से कायम रही। भारतीय इतिहास में गुरु की भूमिका समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के साथ साथ क्रान्ति को दिशा दिखाने वाली भी रही है। जनार्दन पंत के शिष्य एकनाथ, गहिनीनाथ के शिष्य निवृत्तिनाथ, निवृत्तिनाथ के शिष्य ज्ञानेश्वर, स्वामी निगमानंद के शिष्य योगी अनिर्वाण, गोविंदपाद के शिष्य शंकराचार्य, शंकरानंद के शिष्य विद्यारण्य, कालूराम के शिष्य कीनाराम, भगीरथ स्वामी के शिष्य तैलंग स्वामी, ईश्वरपुरी के शिष्य महाप्रभु चैतन्य, पूर्णानंद के शिष्य विरजानंद, विरजानंद के शिष्य दयानंद, रामकृष्ण परमहंस के शिष्य विवेकानंद व उनकी शिष्या निवेदिता, प्राणनाथ महाप्रभु के शिष्य छत्रसाल, समर्थ रामदास के शिष्य शिवाजी, चाणक्य के शिष्य चंद्रगुप्त, रामानंद के शिष्य कबीर, कबीर के शिष्य रैदास, दादू के शिष्य रज्जब, विशुद्धानंद के शिष्य गोपीनाथ कविराज, पतंजलि के शिष्य पुष्यमित्र तथा बंधुदत्त के शिष्य कुमारजीव, सर्वेश्वरानंद जी के शिष्य श्रीरामशर्मा आचार्य। ये कुछ ऐसे नाम हैं जो इस परंपरा में देवसंस्कृति के पन्नों में पढ़े जा सकते हैं। ऐसे ही महान गुरुओं व आचार्यों की छत्रछाया कारण आज भी हमारा राष्ट्र प्राणवान बना हुआ है।
भारतीय वांग्मय में हमें गुरुकुल व्यवस्था के विहंगम दिग्दर्शन होते हैं। वैदिक काल में शिक्षा को व्यवस्थित रूप देने के क्रम में सर्वप्रथम दो प्रश्न उभरे। प्रथम ‘क्या’ सिखाया जाए तथा द्वितीय ‘कैसे’ सिखाया जाए? इन प्रश्नों के अन्तर्गत उन विषयों का समावेश हुआ जिनके ज्ञान से मानव समाज में उपयोगी भूमिका निभाने में सक्षम हो सका। प्राचीन काल में शिक्षारूप यह उच्च कोटि का कार्य नगरों और गाँवों से दूर रहकर शान्त, स्वच्छ और सुरम्य प्रकृति की गोद में किया जाता था। इनका संचालन राजाश्रय व जनसहयोग से होता था। इन गुरुकुलों में हर वर्ण के छात्र साथ पढ़ते थे। गरीब-अमीर में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। सबको समान सुविधाएं दी जाती थी। गुरुकुल में प्रवेश करने के आठ साल की उम्र निर्धारित थी। छांदग्योपनिषद् को उद्धृत करके स्वामी दयानंद सरस्वती बताते हैं – गुरुकुल में छात्रों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जाता था-1. वसु – 24 साल की उम्र तक शिक्षा प्राप्त करने वाले। 2. रुद्र- 36 साल की उम्र तक शिक्षा प्राप्त करने वाले। 3. आदित्य- 48 साल की उम्र तक शिक्षा प्राप्त करने वाले। भोजन के लिए विद्यार्थियों को भिक्षाटन करना होता था पर निर्धारित नियमों के साथ। दिन में एक बार सिर्फ एक दरवाजे पर झोली फैलाना। इन गुरु आश्रमों में विद्यार्थियों को शाकाहार व ब्रह्मचर्य का पालन कठोरता से करना होता था। इस गुरुकुलीय शिक्षा का मूल उद्देश्य आध्यात्मिक विकास और चरित्र निर्माण के साथ विद्यार्थी को स्वावलंबी बनाना तथा भावी जीवन की चुनौतियों के लिए तैयार करना था। शिक्षा पूरी होने पर बच्चे के अभिभावक अपनी श्रद्धा और सामथ्र्य के अनुसार गुरु को जो भी देते थे, वे उसे प्रेम से स्वीकार करते थे। वह गांवों की जागीर से लेकर लौंग के दो दाने तक कुछ भी हो सकता था। शिक्षा पूर्ण हो जाने पर गुरु शिष्य की परीक्षा लेते थे। शिष्य अपने सामथ्र्य अनुसार दीक्षा देते थे किंतु गरीब विद्यार्थी उससे मुक्त कर दिए जाते थे और समावर्तन संस्कार संपन्न कर उसे अपने परिवार को भेज दिया जाता था।
बताते चलें कि इन गुरुकुलों में सहशिक्षा का भी प्रचार था। स्त्री और पुरुषों की समान शिक्षा को लेकर यह गुरुकुल कितने अधिक सक्रिय थे, इसके कई उदाहरण मिलते हैं। मनुस्मृति में लड़के व लड़की दोनों की शिक्षा पर काफी बल दिया गया है। उत्तर रामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में लव-कुश के साथ पढऩे वाली आत्रेयी नामक स्त्री का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार आठवीं शताब्दी के कवि भवभूति के समय भी बालक-बालिकाओं की सह-शिक्षा का प्रचलन था। अपने ग्रन्थ मालती-माधव में भवभूति ने भूरिवसु एवं देवराट के साथ कामन्दकी नामक स्त्री के एक ही पाठशाला में शिक्षा प्राप्त करने का वर्णन किया है। इसी प्रकार पुराणों में कहोद और सुजाता, रूहु और प्रमदवरा की कथाएं वर्णित हैं।
हमारे ये गुरुकुल कई मायनों में विशिष्ट थे। यहां दी जाने वाली शिल्प, वास्तु, संगीत, नृत्य, कला आदि ज्ञान की विभिन्न लौकिक धाराओं की शिक्षा दीक्षा पर पर कभी भी ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं रहा। यहां अन्य वर्णों के लोग भी गुरु के गरिमामय पद पर बैठने के अधिकारी थे। पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में सबसे अधिक संख्या शूद्र सन्तों की रही जिनको तत्कालीन समाज के सभी वर्णों से मान्यता मिली तथा भरपूर सम्मान भी। मीरा बाई क्षत्राणी थीं और शिष्य बनी सन्त रविदास की। सन्त कबीर जुलाहे थे और बहुत सारे ब्राह्मण-क्षत्रियों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया था।
प्राचीन भारत में तक्षशिला, पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, मिथिला, धारा, तंजोर, काशी, कर्नाटक, नासिक आदि की शिक्षा संस्थाएं समूचे आर्यावर्त में प्रसिद्ध थीं। हिन्दू सम्प्रदायों एवं मठों के आचार्यों के प्रभाव से ईसा की दूसरी शताब्दी के लगभग मठ शिक्षा के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गये थे। इनमें शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि के मठ प्रसिद्ध थे। बौद्ध विहारों में भी सार्वजनिक शिक्षण संस्थाएं स्थापित हुई थीं। इन संस्थाओं में धार्मिक ग्रन्थों का अध्यापन एवं आध्यात्मिक अभ्यास कराया जाता था। अशोक (300 ई. पू.) ने बौद्ध विहारों की विशेष उन्नति करायी थी। इनमें गुरु किसी एक कुल का प्रतिनिधि न होकर सारे विहार का ही प्रधान होता था। इनमें नालन्दा विश्वविद्यालय (450 ई.), वल्लभी (700 ई.), विक्रमशिला (800 ई.) प्रमुख शिक्षण संस्थाएं थीं। इन संस्थाओं का अनुसरण करके हिन्दुओं ने भी मन्दिरों में विद्यालय खोले जो आगे चल कर मठों के रूप में परिवर्तित हो गये। ‘पृथ्वीराज विजय’ (10वीं सदी) में अजमेर के आसपास की अनेक शिक्षा संस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं। कथासरितसागर के अनुसार विश्वविद्यालय को धनिक नागरिकों द्वारा आर्थिक सहयोग दिये जाते थे। संपन्न लोगों द्वारा अपने परिजनों की स्मृति में शिक्षण संस्थाएं चलाने की परंपरा को समाज में बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त थी। नालंदा में गुप्त राजाओं का सहयोग था। विक्रमशिला की स्थापना परमार राजा धर्मपाल ने की थी। राजा भोज ने धार में भोजशाला की स्थापना की थी। अशोक, कनिष्क, चन्द्रगुप्त (द्वितीय) हर्ष, धर्मपाल, भोज आदि राजा शिक्षा व्यवस्था में रुचि के लिए प्रख्यात हैं। चीनी यात्री हुएनसांग के अनुसार विश्वविख्यात शिक्षा केन्द्र नालंदा के लिए 500 व्यापारियों ने 10 कोटि स्वर्ण मुद्राएं देकर जमीन खरीदी थी।
समझना होगा विद्या व शिक्षा का भेद
भारत सदा से विद्या का उपासक रहा है। शास्त्रज्ञ कहते हैं- सा विद्या या विमुक्तये अर्थात सच्ची विद्या वह है जो हमारे अन्तस से प्रभुत्व को मिटाकर देवत्व की भावना जाग्रत करती है, हमें जीवन का सत्य स्वरूप और सन्मार्ग दिखाती है। पश्चिमी चिंतन में गुरु का कोई महत्व नहीं है, इसीलिए वे लोग शिक्षा व विद्या का भेद नहीं जानते। आज यूरोप की भौतिक उन्नति, प्रगति, विकास और ज्ञान का सम्बन्ध आधुनिक शिक्षा से है। मगर यह शिक्षा सिर्फ पुस्तकीय ज्ञान, सूचना संग्रह, डिग्रियों और शारीरिक सुख भोगों तक सीमित है। वहां शिक्षक और छात्र तो हैं; पर गुरु और शिष्य नहीं। शिक्षा तो है; पर विद्या और दीक्षा नहीं। हम सब भलीभांति जानते हैं कि देश में मशीनी मानव विकसित करने वाली इस शिक्षा की बुनियाद अंग्रेजों के शासन में पड़ी थी। मैकाले प्रणीत शिक्षा पद्धति के कारण हमारी नई पौध अपनी जड़ों से कटती चली गयी। आज स्थिति यह है कि पढ़ाई शिक्षक की नौकरी है और छात्र जानकारियों का यह पुलंदा इसलिए बटोर रहे हैं ताकि भविष्य में मोटी कमाई कर सके। अर्थात आज शिक्षा का मूल मकसद पैसा कमाना हो गया है। यही कारण है कि समूचे देश में कुकुरमुत्तों की तरह उगे पांच सितारा स्कूल व कालेजों की भरमार ने पुरातन भारत के दिव्य शैक्षिक लक्ष्यों को पलीता लगा दिया है। आज के शिक्षक छात्रों से डरने लगे हैं। विद्यालय भ्रष्टाचार, ट्यूशन, नकल, नंबर बढ़ाने और हिंसक आंदोलन जैसी प्रवृत्तियों के साथ नग्नता, गुंडागर्दी, दलाली और राजनीति के अड्डे बन गये हैं। इनमें केवल अधिकारों की बात होती है, कत्र्तव्य भावना की नहीं। आर्थिक उदारीकरण ने शिक्षा जगत का कबाड़ा कर दिया है। आज जितना अधिक शिक्षा का प्रभाव बढ़ रहा है, उतना ही मानसिक प्रदूषण भी बढ़ रहा है। शिक्षा बढ़ रही है पर जीवन विद्या घट रही है।
भारत का जीवन-दर्शन रहा है शिक्षा-विद्या, भोग योग, भौतिकता आध्यात्मिकता, शरीर-आत्मा, प्रकृति परमात्मा आदि का सन्तुलन एवं समन्वय। हम भारतीय अज्ञान के नहीं, ज्ञान के उपासक रहे हैं। जीवन के हर क्षेत्र में विशुद्ध रूप में ज्ञान की प्रतिष्ठापना करना हमारी संस्कृति की विशेषता रही है। पश्चिमी जगत मनुष्य का आकलन इस बात से करता है कि तुम्हारे पास क्या है! क्योंकि उनका जीवन दर्शन भोगप्रधान है। जबकि भारतीय चिंतन में व्यक्ति को इस तराजू पर तौला जाता है कि तुम क्या हो! क्योंकि हमारा भारतीय दर्शन आत्मप्रधान है। एक समय हमारी देवभूमि की इसी ज्ञान-संपदा ने विश्व को दिशा देने का महत्वपूर्ण कार्य किया था। अंग्रेजों के आगमन के पूर्व भारतीय समाज में बेकारी की समस्या नहीं थी। भारतीय समाज में कर्म के अनुसार जातियां तो थीं पर जातिवाद नहीं था। दो शताब्दियों की गुलामी ने हमें पाश्चात्य सोच का गुलाम बना दिया। यदि इस दृश्य को बदलना है तो हमें गुरु शिष्य परम्परा को पुनर्जीवित करना ही होगा।
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