ओ३म्
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मनुष्य के जीवन में सुख व दुःख की दो अवस्थायें होती हैं। सभी को सुख प्रिय तथा दुःख अप्रिय होता है। मुख्यतः हम जीवन भर वही कार्य करते हैं जिससे हमें सुखों की प्राप्ति तथा दुःखों की निवृत्ति होती हैं। जो प्रत्यक्ष दुःख होते हैं उनके निवारण के लिये तो सभी प्रयत्न करते हैं परन्तु इसके साथ अपनी बुद्धि से विचार कर भविष्य काल में प्राप्त होने वाले दुःखों का अनुमान कर उनके निवारण के लिये भी हम प्रयत्न करते हैं। सुखों की प्राप्ति तथा दुःखों के निवारण में हमारी बुद्धि व ज्ञान का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। जो मनुष्य ज्ञानी होता है वह सुखों की वृद्धि तथा दुःखों के दूर करने के साधनों को जान सकता है व उन्हें प्रयोग में ला सकता है। जिस मनुष्य को ज्ञान नही होता उसे इसके लिये दूसरों की शरण लेनी पड़ती है। भविष्य के दुःखों से यदि बचना है तो इसके लिये हमें अपने ज्ञान में वृद्धि कर विद्वानों व श्रेष्ठ पुरुषों को अपना मित्र व सखा बनाना चाहिये। ऐसा करके हम अपने लिये उचित जीवन शैली का चुनाव कर सकते हैं जिसका पालन करने से दुःख कम होते हैं। हम यह भी जानते हैं कि मनुष्य अल्पज्ञ प्राणी है। मनुष्य कितने भी प्रयत्न कर लें वह अल्पज्ञ अर्थात् सीमित ज्ञान को ही प्राप्त हो सकते हैं, सर्वज्ञ नहीं हो सकते। अतः उसे अपने से अधिक ज्ञान वाले लोगों का सान्निध्य व सहयोग लेना होता है जिससे उनके ज्ञान में निरन्तर वृद्धि होती रहे। संसार में मनुष्यो में विद्वान व ऋषि आदि ज्ञान की दृष्टि से औरों से अधिक जानते हैं। अतः ऐसे लोगों की संगति करनी लाभप्रद होती है।
सब मनुष्यों को विद्वानों की संगति करनी चाहिये। विद्वान मनुष्यों के अतिरिक्त संसार मे एक ऐसी भी सत्ता है जिसने इस संसार को बनाया है, वही इसे चला रही है अर्थात् उससे इसका पालन हो रहा है। उस अनादि व नित्य सर्वशक्तिमान सत्ता ने ही सभी अनादि व अविनाशी चेतन जीव सत्ताओं को जन्म दिया है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य ही होती है। ऐसा सम्भव नही है कि किसी जीव व प्राणी का जन्म तो हो परन्तु मुत्यु न हो। अतः हम सभी को कालान्तर में मरना है। इस तथ्य को हमें स्मरण रखना चाहिये और जन्म के कारण ‘कर्म’ पर विचार करना चाहिये। इस कार्य में दर्शन ग्रन्थों का अध्ययन करने से निश्चय होता है कि हमारे जन्म का कारण हमारे पूर्वजन्मों में किये गये कर्म ही हंै। जिन कर्मों का भोग पूर्वजन्म में मृत्यु आदि होने के कारण नहीं हो पाता, उन्ही कर्मों के सुख व दुःख रूपी फलों का भोग करने के लिये मनुष्यादि अनेक योनियों में से किसी एक योनि में परमात्मा से जन्म प्राप्त करते हैं। यह सृष्टि व जन्म-मरण का चक्र अनादि काल से चल रहा है तथा अनन्त काल तक इसी प्रकार से चलता जायेगा। इसकी पुष्टि ईश्वर प्रदत्त वेद ज्ञान तथा वेदों के मर्मज्ञ ऋषियों के ग्रन्थों में उनके प्रामाणिक वचनों सहित युक्ति व तर्क से भी होती है। अतः हमें कर्म के स्वरूप व उसके परिणाम व फलों को जानकर सुख प्रदान करने वाले कर्मों को ही करना चाहिये जिससे हमें सुखों की प्राप्ति होती रहे। हमें उन कर्मों का त्याग करना चाहिये जिनका परिणाम दुःख होता है। शास्त्रों के अध्ययन से यह भी विदित होता है शुभ व पुण्य कर्मों का फल सुख तथा अशुभ, पाप तथा वेद निषिद्ध कर्मों का फल दुःख होता है। हमें यह भी जानना चाहिये कि हमें इस जन्म के कर्मों का फल अगले अनेक जन्मों में मिल सकता व मिलता है। अतः यदि इस जन्म में हम कोई भी पाप व अशुभ कर्म करेंगे तो हमें अवश्य ही आगामी जन्म लेकर उनके फल भोगने होंगे। इस वेद ज्ञान को जानकर हमें वेद निषिद्ध कर्मों सहित अशुभ व पाप कर्मों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। ऐसा करके हम अपने वर्तमान जीवन सहित भावी जन्मों अर्थात् पुनर्जन्मों को भी सुखदायक बना सकते हैं।
विद्वानों की संगति व उनसे ज्ञानार्जन करने सहित हम स्वाध्याय से भी अपने जीवन को ऊपर उठा सकते हैं। ज्ञान प्राप्ति के साधनों पर विचार करते हैं तो हमें विदित होता है कि माता, पिता तथा विद्यालय के आचार्यों से प्राप्त ज्ञान सहित पुस्तकों के अध्ययन करने का भी जीवन में अत्यन्त महत्व होता है। संसार में दो प्रकार का साहित्य है जिसमें अपौरुषेय वेद तथा पौरुषेय अर्थात् मनुष्यों द्वारा रचित ग्रन्थ आते हैं। मनुष्य अल्पज्ञ होते हैं। वह वेदों की सहायता के बिना अपने ज्ञान से जो रचनायें करते हैं उसमें अविद्या व अज्ञान को होना सामान्य बात होती है। इसके विपरीत वेद ईश्वरीय ज्ञान होने से उसमें सभी सत्य विद्यायें हैं जिनका अध्ययन करने से मनुष्य को निभ्र्रान्त ज्ञान प्राप्त होता है। वेदों को हम वेदांगों का अध्ययन कर अन्य ग्रन्थों की भांति पढ़ व जान सकते हैं। बिना वेदोंगों का अध्ययन किये आज के जीवन में हम वेदों पर ऋषि मुनियों की टीकाओं व वेद विषयक ग्रन्थों को अनुवादों व इतर भाषाओं में प्रणीत वेदानुकूल ग्रन्थों के माध्यम से भी जान सकते हैं। आजकल अधिकांश जिज्ञासु इसी विधि से अध्ययन कर पर्याप्त मात्रा में ज्ञान व सत्य सिद्धान्तों को प्राप्त होते हैं और इससे वह अपने जीवन सहित अन्यों को भी मार्गदेर्शन देते हैं। अतः हमें वेदों के हिन्दी व अंग्रेजी भाष्यों व टीकाओं सहित उपनिषद, दर्शन व मनुस्मृति की हिन्दी आदि भाषाओं की टीकाओं का अध्ययन कर उनके वेदानुकूल भाग ग्रहण करना चाहिये।
वेद एवं इतर वैदिक साहित्य के साथ ही हमें वेदों के महान ऋषि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के वैदिक मान्यताओं पर आधारित ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, पंचमहायज्ञविधि, व्यवहारभानु तथा गोकरुणानिधि सहित ऋषि दयानन्द के जीवन चरित का भी अध्ययन करना चाहिये। इससे हमें ईश्वर द्वारा प्रेरित सभी सत्य सिद्धान्तों का पूरा परिचय मिल जाता है जिससे हम वैदिक जीवन व्यतीत कर सकते हैं जो मनुष्य जीवन को सुखों से युक्त तथा दुःखों से निवृत्त करते हैं। मनुष्य जीवन को सुखी बनाने के लिये ही वेदों व वैदिक ग्रन्थों में मनुष्यों के पांच नित्य कर्तव्यों का निर्धारण किया गया है। यह कर्तव्य हैं प्रथम, ईश्वर की उपासना वा ब्रह्मयज्ञ, दूसरा देवयज्ञ अग्निहोत्र, तीसरा पितृयज्ञ, चतुर्थ अतिथि यज्ञ तथा पंचम बलिवैश्वदेवयज्ञ। इन यज्ञों को करने से हमें अनेक सुखों की प्राप्ति होने सहित दुःखों की निवृत्ति भी होती है। इनका सेवन करने से मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। आत्मा को अपने यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है तथा वह ईश्वर के भी सत्यस्वरूप व गुण-कर्म-स्वभावों से परिचित हो जाता है। ईश्वर उपासना की सत्य एवं ईश्वर का प्रत्यक्ष कराने वाली विधि का ज्ञान होकर ईश्वर की प्राप्ति होती है। देवयज्ञ अग्निहोत्र करने से वातावरण शुद्ध व पवित्र होता है तथा रोगों का शमन होता है। इससे सुगन्ध का विस्तार तथा दुर्गन्ध का निवारण होता है। वायु में रहने वाले सभी प्राणियों को सुख व उनके दुःखों की निवृत्ति होती है। यज्ञ करने वाले मनुष्य को यज्ञ के श्रेष्ठ कार्य होने तथा इससे ईश्वर की आज्ञा पालन होने से परमात्मा से भी विशेष सुख लाभ होते हैं। ज्ञान की वृद्धि तथा बुद्धि की उन्नति भी होती है। अतः देवयज्ञ अग्निहोत्र भी सभी मनुष्यों को नित्य प्रति करना चाहिये। इसी प्रकार से पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेव यज्ञ करने से भी अनेकानेक लाभ होते हैं और मनुष्य का वर्तमान एवं भविष्य का जीवन सुखमय होता है। इसी कारण से वेदों की संस्कृति को यज्ञीय संस्कृति कहा जाता है जो कि विश्व की सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है।
हमें हमारा जन्म व शरीर परमात्मा से प्राप्त हुआ है। शरीर के अंग प्रत्यंग सब परमात्मा व उसकी व्यवस्था से बने हैं। हमारी बुद्धि भी परमात्मा ने ही बनाई है। बुद्धि का विषय ज्ञान प्राप्ति है तथा आतमा को सत्य व असत्य का स्वरूप बताना है। यह तभी सम्भव हो सकता है कि जब हम वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कर आध्यात्मिक व सांसारिक ज्ञान की वृद्धि करते हैं। इसके लिये हमें परमात्मा से ही प्रार्थना करनी चाहिये। बुद्धि की शुद्धता एवं पवित्रता की प्राप्ति एवं इसे ईश्वर द्वारा ज्ञान प्राप्ति कराने वा प्रेरित करने की प्रार्थना का एक मन्त्र वेदों से प्राप्त होता है जिसे गायत्री मन्त्र कहा जाता है। यह मन्त्र लोकप्रिय होने से संसार में प्रायः सभी इसे जानते हैं और बहुत से लोग इसके आश्रय से ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना भी करते हैं। ईश्वर सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी होने से हमारी आत्मा में भी विद्यमान होता है। वह हमारी सभी प्रार्थना को सुनता व जानता है। हमारा वह परमात्मा सर्वशक्तिमान व सर्वप्रेरक है। उसकी प्रेरणा से ही हम लौकिक व अलौकिक सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करते हैं। अतः हमें प्रतिदिन प्रातः व सायं गायत्री मन्त्र (यजुर्वेद 36.3) का अर्थ व उसके अनुरूप भावना बना कर पूरी तन्मयता से उसका पाठ व जप करना चाहिये। विद्वानों द्वारा की गई गायत्री मन्त्र की व्याख्याओं को भी पढ़ना चाहिये। शब्दमय गायत्री मन्त्र है ‘ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रयोदयात्।।’ इस मन्त्र के पदों वा शब्दों का अर्थ है‘(ओ३म्) यह प्रभु का मुख्य नाम है। वह (भूः) प्राणों का प्राण(भुवः) दुःखनाशक (स्वः) सुखस्वरूप है। (तत्) उस(सवितुः) सकल जगत् के उत्पादक (देवस्य) दाता प्रभु के(वरेण्यम्) वरण व ग्रहण करने योग्य(भर्गः) विशुद्ध तेज को हम (धीमहि) धारण करें। (यः) वह प्रभु (नः) हमारी(धियः) बुद्धियों को (प्रयेदयात्) सन्मार्ग व श्रेष्ठ कर्मों को करने में प्रेरित करे।
यदि हम गायत्री मन्त्र से उपासना करते हुए ईश्वर से श्रेष्ठ बुद्धि की प्राप्ति व उसे प्रेरित करने की प्रार्थना करते हैं, वेद व वैदिक ग्रन्थों सहित सत्यार्थप्रकाश आदि का स्वाध्याय व अध्ययन करते हैं, पंचमहायज्ञों तथा सत्कर्मों सहित परोपकार व सुपात्रों को विद्या का दान करते हैं, तो निश्चय ही हम सुखों को प्राप्त होंगे। ईश्वर का प्रत्यक्ष करने व दुःखों की सर्वथा निवृत्ति, जिसे मोक्ष करते हैं, उन सब ऐश्वर्यों को प्राप्त करने में सफल होंगे। अतः हमें प्रतिदिन गायत्री मन्त्र के द्वारा ईश्वर से श्रेष्ठ, उत्तम व कल्याण पथ पर अग्रसर कराने वाली बुद्धि व ज्ञान की प्राप्ति के लिये प्रार्थना करनी चाहिये। सृष्टि के आरम्भ काल से ही हमारे पूर्वज ऋषि मुनि गायत्री मन्त्र सहित वेदों का अध्ययन व प्रचार करते थे। इसी विशेषता के कारण उन्होंने विश्व भर में चक्रवर्ती राज्य किया। आज भी यदि हम ऐसा ही करें तो हम पुनः विलुप्त राज्यादि ऐश्वर्य एवं वैभव को प्राप्त हो सकते हैं। हम आर्यों व हिन्दुओं को वेदाध्ययन, वेदाचरण सहित एकमत व संगठित होना चाहियें एवं संगठन को सुदृण करने के लिये विशेष प्रयत्न करने चाहियें। हमें अपने सभी अन्धविश्वासों व कुरीतियों को भी दूर करना चाहिये। वेद विरुद्ध कोई कार्य व आचरण नहीं करना चाहिये। यही वेदों के महान ऋषि दयानन्द जी की शिक्षा है।
-मनमोहन कुमार आर्य