जब हम किन्हीं दो या दो से अधिक लोगों के विषय में ये कहते हैं कि वे तो दोनों या वे सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं, तो सामान्यत: इसका अर्थ कुछ इस प्रकार लेते हैं, जैसे वे एक ही थैली के बट्टे (तोल में काम आने वाले बाट आदि) है। इस बट्टे के साथ चट्टे केवल तुकांत के लिए लगा दिया गया है और इस प्रकार एक मुहावरा बन गया-एक ही थैली के चट्टे बट्टे होने का। परंतु सच ये नही है-चट्टे-बट्टे शब्दों का अपना इतिहास है। पर आज इनके ऊपर समय की रेत इतनी जम गयी है कि इनका वास्तविक स्वरूप हमसे ओझल हो गया है। अपनी संस्कृत और हिंदी को भुलाकर हिंदुस्तानी और हिंग्लिश के प्रति लगाव का परिणाम है ये।
चट्टे बना है चारण से :
संस्कृति में चारण:भ्रमणशील, तीर्थयात्री, घूमने फिरने वाले नट, गवैया, नर्त्तक, भांड, भाट (जिसका मूल अर्थ है वेदादि का गाकर पाठ करने वाला) को कहा गया है। इसी चारण से बिगड़ते-बिगड़ते चाट और चाट से चट्टे बन गया। संस्कृत का चाटुकार शब्द भी इन्हीं अर्थों की निष्पत्ति करता है।
बट्टा बना है भाट्ट से:
संस्कृत में भाटि: का अर्थ मजदूरी, भाड़ा इत्यादि है। भाड़ा शब्द भाटि: से बना है। इसे भाटम् भी कहा जाता था। संस्कृत शब्द भाट्ट का अर्थ भट्ट का अनुयायी, (कुमारिल भट्ट द्वारा स्थापित मीमांसा दर्शन के सिद्घांत का अनुयायी) माना गया है। इसी से शब्द भाट बना और यही भाट कालांतर में बट्टो के साथ बट्टों के रूप में जुड़कर मुहावरे के रूप में रूढ़ हो गया। जैसे प्रवीण का यौगिक अर्थ वीणा बजाने में कुशल से है, परंतु उसका रूढ़िगत अर्थ किसी भी क्षेत्र में महारत प्राप्त कर लेने से हो गया, वैसे ही चारण का यौगिक अर्थ कही लुप्त हो गया और वह केवल नट, भांड, नर्तक तक ही सीमित होकर रह गया। ये लोग अपने स्वामी की प्रशंसा करने में कुशल होते थे और उन्हें प्रशंसित कर उनसे पुरस्कार प्राप्त किया करते थे। इसी प्रकार भाट मीमांसाकार होते थे। राजकीय परिवारों की राजवंशावली को संजोकर रखना और फिर उसे गाकर वीरोचित शैली में उच्चारित करना इनका प्रमुख कार्य होता था। यही इनकी जीविका का साधन बन गया था। राजपूत राजाओं के समय में चंद्रबरदाई जैसे भाटों ने अपने अपने स्वामियों की जीवन गाथा को बढ़ा चढ़ाकर अतिशयोक्ति अलंकार में केवल पुरस्कार पाने की चाह में लिख डाला था। इस प्रकार चाट और भाट एक ही अर्थ को स्पष्टï करते हैं। धीरे धीरे एक ही अर्थ के होने से ये एक ही थैली (अर्थ) के चट्टे-बट्टे बन गये। उन्हीं व्यक्तियों को एक ही थैली के चट्टे-बट्टे कहा जाता है जो किसी की चाटुकारिता में लगे रहते हों या मिथ्या प्रशंसा कर अपना स्वार्थ सिद्घ करते हैं।
हर्ष के समय में चाट-भाट पदों का सृजन
गुप्तकाल में सम्राट हर्षवर्धन के काल में चाट-भाट के राजकीय पद सृजित किये गये थे। इनका कार्य राजा का विषम परिस्थितियों में भी मनोबल बनाये रखना (वेदादि का पाठ करने से व सुनने से मनोबल बढ़ेगा ही) था। कालांतर में इनका कार्य रूपांतरण कर गया। जैसे आजकल भी हम उत्तर भारत में पंडितों के यहां आयोजित होने वाले विवाह समारोहों में वधू पक्ष की कन्याओं द्वारा वर से छंद सुनने की परंपरा को देखते हैं। आजकल वर उल्टी सीधी तुकांत से कुछ छंद सुनाकर अपना कर्त्तव्य पूरा कर लेता है। परंतु इस परंपरा का भी गौरवमयी इतिहास है। प्राचीन काल में वधू पक्ष की कन्याएं वर की योग्यता परखने के लिए उससे वेदों के खण्ड सुना करती थीं। जैसी योग्यता वर की होती थी, वैसा ही उसे पुरस्कार मिलता था। अब आजकल वेदों के खण्ड तो किसी को स्मरण नही होते पर उल्टी सीधी तुकांत वाली कुछ कविताएं या दोहे सुनाकर उसकी पूर्ति कर दी जाती हैं। परंपरा में जंग लग गयी है। जैसे ही वेदादि के मीमांसाकार जब नही रहे तो काल्पनिक रूप से वीर रस की कविताएं भाट लोग अपने स्वामी और उसके पूर्वजों की बनाने में लग गये और उसी से अपना जीविकोपार्जन करने लगे। परंपरा का यह भी जंग लगा स्वरूप ही था। गुप्तकाल और हर्षवर्धन के काल में चाटों भाटों का प्रमुख कार्य सुव्यवस्था और शांति स्थापना का होता था। एक प्रकार से ये लेाग अर्द्घसैनिक बल के प्रमुख हुआ करते थे। राजा इन्हें सीधा वेतन राजाकोश से न देकर राज्य की ओर से भरण पोषण के लिए भूमि दे दिया करता था। धीरे धीरे इस परंपरा में परिवर्तन आया और राजा ने अपने दरबार में ही कुछ ऐसे लोग रखने आरंभ कर दिये जो उसका यशोगान करें। मनोबल बनाए रखने वाले मीमांसाकार मिथ्या यशोगान करने वाले चाट-भाट हो गये। इनका कार्य मिथ्या यशोगान और मिथ्या चाटुकारिता से धन कमाना हो गया।
ऐसे लोग ही तो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे कहे जाते हैं। परंपराएं कहां से चलती हैं और कहां जाकर कैसे विद्रूपित हो जाती हैं? ये मुहाबरा उसी का जीता जागता उदाहरण है। – आर. के. आर्य