विपदा में वफादार हो, कभी न छोडै़ हाथ

राजा की निंदा करै,
अनृत करै व्यवहार।
बड़ों से बोलै झूठ जो,
पतन के हैं आसार ।। 204।।

अपनी करै बड़ाई जो,
और असूया दोष।
दम्भ बढ़ावै धन घटै,
और जगावै रोष।। 205।।

असूया-दूसरों के गुणों में भी दोष देखना

जड़ता और प्रमाद हो,
मन हो चलायमान।
लालची और वाचाल हो,
विद्या से वंचित जान ।। 206।।

तपस्वी हो विद्यार्थी,
तब ही विद्या पाय।
विलासी हो विद्यार्थी,
जीवन भर पछताय ।। 207।।

आशा खावै धैर्य,
दुष्टïता यश को खाय।
स्वास्थ्य को खावे व्याधियां,
रूप बुढ़ापा खाय ।। 208।।

सरिता से सागर कभी,
तृप्त न होने पाय।
तृप्त न होवें नारियां,
कितना ही पुरूष कमाय ।। 209।।

ज्ञानवृद्घ और कुलीन का,
जब तक रहता साथ।
विपदा में वफादार हो,
कभी न छोडै़ हाथ ।। 210।।

शैया तब साथी रहे,
धन दौलत परिवार।
सिमरन साथी स्वर्ग का,
पुण्य बनै पतवार ।। 211।।

धर्म पाप के वसन में,
चले लिपट कर जीव।
प्रवासी वही स्वर्ग का,
जाकी पुण्य पै नींव ।। 212।।

त्यागे पंछी पेड़ को,
जिस पर नही फल फूल।
त्यागें सब गुणहीन को,
गुण आचरण का मूल ।। 213।।

शनै: शनै: सदा धर्म का,
संचय कर इंसान।
धर्म चलेगा साथ में,
जब निकलेंगे प्राण ।। 214।।

मनुष्य देह में तिमिर है,
देवों में अहंकार।
पशुओं से शुभ कर्म का,
छिन जाता अधिकार ।। 215।।

भाव यह है कि मनुष्य योनि में अज्ञान का अंधकार बहुत है, जबकि देव यौनियों में मनुष्य अत्यधिक सुख ऐश्वर्य पाकर अहंकारी हो जाता है और पशु योनि में शुभ कर्म करने का अधिकार छिन जाता है।

आत्मा तो नदी रूप है,
पुण्य कर्म हैं घाट।
सत्य का जल दया लहर है,
धैर्य दोनों पाट ।। 216।।

शरीर भी नदी रूप है,
इंद्रियों के विषय नीर।
काम क्रोध तो मगर है,
धैर्य से मिलै तीर ।। 217।।

आयु विद्या धर्म में,
जो जन होवें ज्येष्ठ।
उनकी नेक सलाह से,
कार्य होवें श्रेष्ठ ।। 218।।

मन वाणी से भी कभी,
मत करना दुष्कर्म।
सतचर्चा सुन कान से,
आंखों में रख शर्म ।। 219।।

ब्रह्मज्ञानी निज ज्ञान से,
नश्वर समझै संसार।
आत्म तत्व अविनाशी है,
जिसे मृत्यु सकै न मार ।। 220।।

केंचुली बदलै सर्प ज्यों,
आत्मा बदलै शरीर।
ज्ञानी को क्रीड़ा लगै,
मूरख मानै पीर ।। 221।।

अन्न धन खावै अधम का,
नष्ट होय ब्रह्मज्ञान।
सदा इनसे रहे दूर जो,
ज्ञानी की पहचान।। 222।। क्रमश:

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