डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा
फेरीवाले अपनी किस्म-किस्म की आवाजों और बोलियों के बहाने भाषा को समृद्ध बनाते थे। सच्चे अर्थों में वे भाषा का विकास करने वाले व्यावहारिक प्रोफेसर थे। उनके शब्द-भंडार, वाक्य, संदर्भ और अनुच्छेद किसी प्रवाहमय सरिता का स्मरण कराती थी।
एक समय था जब फेरीवाले अपनी किस्म-किस्म की आवाजों से हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते थे। अब फेरी वालों की पेट पर लात मारने के लिए बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, मल्टी नेशनल कंपनियाँ बाजार में ऐसे उग आए हैं जैसे बारिश के दिनों में कुकुरमुत्ते। जहाँ फेरीवाले अपनी ऊँची आवाज में हमें अपनी ओर बुलाकर थोड़े-बहुत नफे-नुकसान के साथ सामान के बहाने प्यार बाँटता था, अब वहीं बड़े-बड़े स्टोर के स्पीकरों से निकलने वाली धीमी और भड़काऊ आवाज से दिल का भट्टा बैठ जाता है। फेरीवालों के बिना जीवन नीरस-सा हो गया है। जिनकी यादों में फेरीवाले बसते हैं, वे बड़े सौभाग्यशाली हैं। वरना शॉपिंग माल में जाना, खुद सामान चुनना, खुद सामान ढोना और खुद सामान लेकर बिल काउंटर पर पहुँचना किसी गधे की ढुआई से कम नहीं लगता। हाँ यह अलग बात है कि इस गधे की ढुआई को मॉडर्न होने का प्रतीक माना जा रहा है।
फेरीवाले अपनी किस्म-किस्म की आवाजों और बोलियों के बहाने भाषा को समृद्ध बनाते थे। सच्चे अर्थों में वे भाषा का विकास करने वाले व्यावहारिक प्रोफेसर थे। उनके शब्द-भंडार, वाक्य, संदर्भ और अनुच्छेद किसी प्रवाहमय सरिता का स्मरण कराती थी। वहीं शॉपिंग मॉल में प्री-रेकॉर्डेड सूचनाएँ हमेशा एक ही रोना रोती हैं। एक ही सूचना को बार-बार दोहराना तालाब स्थिर दूषित जल-सा प्रतीत होती हैं। वास्तव में हमने फेरीवालों को नहीं फेरीवालों के बहाने संस्कृति, सभ्यता, परिवेश को खोया है। लॉर्ड मैकाले ने ठीक ही कहा था, किसी देश को गुलाम बनाने के लिए उसकी भाषा और संस्कृति को छिन्न-भिन्न करना काफी होता है। वास्तव में आजकल के शॉपिंग मॉल वही काम कर रहे हैं जो लॉर्ड मैकाले ने किया था।
लच्छेदार, मजेदार, जानदार, शानदार और दमदार शैली में गाकर, बजाकर, सुनाकर, दिखाकर, ललचाकर बेचने की कला यदि किसी में थी तो वह था- फेरीवाला। क्या याद है आपको गंडेरीवाला? वही जो आकर मुहल्ले के एक कोने में बैठ जाता था। हाथ में एक सरौता लिये वह गन्ने को छीलकर कपड़े पर बिछाता और सुरीली आवाज में गाकर कहता, ”पेट का भोजन, हाथ की टेकन होंठों से छीलो, कटोरा भर शरबत पी लो।” तो वहीं कचालू बेचने वाला बच्चों को कचालू पकड़ाते जाता और दुआएँ देते हुए कहता, “ईश्वर का तू नन्हा बंदा, खा कचालू ओ मेरे नंदा।” खजूरवाला आमतौर पर शाम को आता था और दलील देता, “कलकत्ते से मँगाई है और रेल में आई है।“ दूसरी ओर खरबूज़ेवाला लहक-लहककर गाता, “नन्हे के अब्बा चक्कू लाना चख के लेना, फीके या मीठे सच्ची कहना।” सबसे लाजवाब तो ककड़ियों वाला था। वह ककड़ियों को पानी से तर करता रहता, “लैला की उँगलियाँ, मजनूँ की पसलियाँ। तैर कर आई हैं बहते दरियाव में।” दही के बड़े और पकौड़ेवाला आता तो उसके गिर्द एक भीड़ लग जाती थी। “दही के बड़े, मियाँ-बीबी से लड़े।” और “खाओ पकौड़ी, बनो करोड़ी।” पानी के बताशे यानी गोलगप्पेवाला किसी को देखता कि ज़ुकाम हो रहा है तो कहता, “पानी के बताशे खाओ, नज़ला भगाओ।”
अब न वह फेरीवाले रहे और न उनकी तुकबंदियों वाली फेरियाँ। अब तो शॉपिंग माल में कंप्यूटरकृत आवाज में एक ही ध्वनि निकलती है- अटेंशन प्लीज। वी हैव ए ऑफर ऑन पोटाटो। वन पोटाटो ऑन्ली फॉर फाइव रुपीस एंड फाइव फॉर ट्वेंटी रुपिस। सेव फाइव रुपिस। दिस ऑफर वैलिड टिल ट्वेल ओ क्लॉक। हरी अप। टिंग..टाँग। यह सूचना मनुष्य को यंत्र बनाती है। संवेदनाओं को नेस्तनाबूद करती है। यांत्रिक खरीददारी के बहाने हम द्वीप बन जाते हैं। जहाँ एक ग्राहक का दूसरे ग्राहक से कोई संबंध नहीं होता। फेरीवाला के यहाँ सामान के साथ मानवता, प्रेम, अपनापन, दुख-सुख बाँटने का बहाना मिलता था। अब यह सब लापता हो गए हैं। न जाने कहाँ गया वह फेरीवाला।