उपेक्षा न करें मनोरोगियों की
सहानुभूति और संबल दें
– डॉ. दीपक आचार्य
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हमारे आस-पास और अपने क्षेत्र में मनोरोगियों का बोलबाला अर्से से रहा है और रहेगा। हम इन मनोरोगियों को देखकर या इनकी हरकतों को देख-सुन कर अपनी राह ले लेते हैं। इनके बारे में ख्याल रखने की हमें फुर्सत तक नहीं हुआ करती। जबकि समाज की हरकतों और हलचलों तथा दूसरे लोगों के बारे में सोचने-समझने और चर्चाएं करने में हम दिन-रात ऎसे रमे रहते हैं जैसे कि वे लोग हमारे सगे-संबंधी हों या परिचित।हम कई सारे ऎसे लोगों के बारे में भी अनावश्यक चिंतन-मनन करते रहते हैं जिनका हमसे दूर-दूर का रिश्ता नहीं होता। समाज में जीते हुए समाज के लिए जीने और मरने की भावना रखते हुए हमें काम करना श्रेयस्कर है लेकिन हम अपनी ही अपनी धुन में रहने और करने के इतने आदी हो चुके हैं कि हमें खुद को पता नहीं कि हम क्या करने लगे हैं, क्या हो रहा है तथा क्या होगा।
हम जहाँ रहते हैं वहाँ रहने वाले लोगों के बारे में सोचना इंसानियत का तकाजा है लेकिन हम सिर्फ उन्हीं लोगों के बारे में सोचते और करते हैं जिनसे हमारे स्वार्थ की पूत्रि्त हो पाती है। समाज में कई सारे ऎसे लोग हैं जो निराश्रित, अभावग्रस्त और आप्तजन हैं। इनके बारे में सोचना और करना ही वास्तविक समाजसेवा है।
इन सभी प्रकार के अभावग्रस्तों और परेशान लोगों में एक किस्म उनकी है जो मनोरोगी हैं। वैसे देखा जाए तो मनोरोगियों की संख्या हाल के कुछ वर्षों में इतनी बढ़ चली है कि किस-किस की तरफ ध्यान दें। हर किस्म के मनोरोगी हमारे आस-पास हैं। कोई कुर्सी या दर्जा पाने के फेर में, कोई पैसा बनाने, जमीन-जायदाद के सौदों, नाजायज कामों से सम्पत्ति हथियाने के लिए मनोरोगी हुआ घूम रहा है, कई सारे छपास रोगी मनोरोगियों की तरह भटकने लगे हैं, कइयों की हालत ऎसी है जो पुरस्कार, सम्मान और अभिनंदन पाने के लिए मनोरोगियों का बर्ताव करने लगे हैं, कइयों को भाषण का मोह है तो कई सारे लोकप्रियता पाने के लिए उतावले होकर मनोरोगियों जैसा व्यवहार करने लगे हैं।
जात-जात के इन आंशिक या आधे-अधूरे मनोरोगियों के बीच हर इलाके में कुछ ऎसे मनोरोगी भी हैं जो शरीर की संरचना, परिधानों, व्यवहार और वाणी आदि सभी से पूर्ण मनोरोगी लगते हैं और निरन्तर परिव्राजक की तरह विचरण करते रहना और अवांछित प्रलाप इनकी सबसे बड़ी विशेषता है।
ऎसे पूर्ण एवं परिपक्व मनोरोगियों का वजूद हर क्षेत्र की तरह अपने इलाके में भी है। कई मनोरोगियों ने तो अपने क्षेत्र को बरसों से अपनी कर्मस्थली बनाया हुआ है, कई आये और चले गए, कई सारे ऊपर चले गए। खूब सारे आज भी अपने इलाके की गलियों से लेकर सर्कलों, मुख्य मार्गों और चौराहों आदि सभी स्थानों पर पाए जा सकते हैं।
इन सभी की हरकतें अपने लिए भले ही मनोरंजन से कुछ ज्यादा न हों, लेकिन इतना तो तय है कि ये मनोरोगी भी समाज से कुछ अपेक्षाएं रखते हैं। लेकिन हम लोग अपनी जिम्मेदारियों के निर्वाह के प्रति उदासीन होने की वजह से इन लोगों को भाग्य भरोसे छोड़ देते हैं और यही कारण है कि समाज की उपेक्षा के कारण ये मनोरोगी उत्तरोत्तर ज्यादा मनोरोग ग्रस्त होते चले जाते हैं।
इन सभी प्रकार के मनोरोगियों के प्रति उपेक्षा का भाव त्यागकर थोड़ी करुणा, सहानुभूति और संबल के भाव लाएं तथा अपनी ओर से इन सभी को कुछ न कुछ संबल प्रदान करें। यह प्रयास करें कि इन लोगों का पुनर्वास किस प्रकार किया जाए ताकि इन्हें भी सामान्य जिन्दगी का सुख प्राप्त हो सके।
आज हमारी भूमिका ‘निर्बल के बल राम’ वाली होनी चाहिए न कि मनोरंजन प्रधान। ऎषणाओं और स्वार्थों से भरी जिन्दगी से घिरे हुए हम लोगों को सामाजिक जिम्मेदारियों के साथ आगे आना चाहिए वरना क्या पता उद्विग्नता और चरम असंतोष का कोई क्षण हमें भी इनकी श्रेणी में न ला दे।