इतिहास पर गांधीवाद की छाया , अध्याय – 13 ( 1)

गांधीजी का हिंदुत्व
हिन्दुत्व के विषय में यह सत्य है कि यह कभी भी उन्मादी ,उग्रवादी , उत्पाती और दूसरों के जीवन के प्रति हिंसक नहीं हो सकता , परन्तु इसके उपरान्त भी हिंदुत्व कभी भी दूसरों के आतंक , अत्याचार, उग्रवाद और उन्माद को मौन रहकर सहने के लिए भी हमसे नहीं कह सकता। जबकि गांधीजी का हिन्दुत्व मौन रहकर दूसरे के अत्याचारों को सहने की प्रेरणा देता है। वह अपने अस्तित्व को मिटाकर दूसरे को फलने फूलने का अवसर देने की शिक्षा देता है । जबकि भारत का वास्तविक हिन्दुत्व सह – अस्तित्व में विश्वास रखता है । यद्यपि गांधीवाद के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि वह भी सह अस्तित्व की परिकल्पना करता है , पर व्यावहारिक दृष्टिकोण से यदि चिन्तन किया जाए तो पता चलता है कि गांधी जी का सह -अस्तित्व मुसलमानों को अधिक अधिकार देकर हिन्दुओं को उनके सामने ‘मेमना’ बना डालता है। हिन्दू विनाश के षड़यंत्रों और कुचक्रों में लगे लोगों के विरुद्ध जब हिन्दुत्व प्रबल आक्रोश व्यक्त करता है या उनसे प्रतिरोध और प्रतिशोध लेने की बात करता है तो कई लोग ऐसे हैं जिन्हें आत्मरक्षा में हिन्दुत्व की इस सजगता में भी उग्रवाद के दर्शन होते हैं ।
यह कैसा गांधीवाद ?
वास्तव में ऐसे लोग किसी न किसी प्रकार से गांधीवाद के चिन्तन से ही पले – बढ़े हैं । समझ नहीं आता कि यह कैसा गांधीवाद है जो आत्मरक्षा में उठाए गए कदम को भी उग्रवाद कहता है ? जबकि आत्मरक्षा या निज – अस्तित्व को बचाए रखने के लिए तो पशु जगत में भी क्रिया – प्रतिक्रिया होती देखी जाती है।
गांधीजी दिखने में तो सनातनी हिन्दू दिखाई देते हैं , उनके समर्थक गांधीवादियों का कहना है कि उनका निजी जीवन पूर्णतया धर्म से आच्छन्न था । उनके प्रशंसक इतना भी कहते हैं कि उनका यह धर्म हिन्दू धर्म ही था । जो लोग गांधीजी के धर्म को हिन्दू की संज्ञा देते हैं , उन्हें यह पता होना चाहिए कि हिन्दू अपने आप में कोई धर्म नहीं है । भारत का धर्म तो वैदिक धर्म है। हिन्दू भारतीयता की एक जीवन शैली का अंग है , जो वैदिक धर्म से ही निकलकर विस्तार पा गया है। इसका निर्माण पौराणिकवाद से अधिक हुआ है। वैदिक धर्म की अपेक्षा अनेकों कमियों को गले लगा कर चलता दिखाई देने वाला हिन्दू इस सब के उपरान्त भी शस्त्र और शास्त्र का पुजारी है। जबकि गांधीजी न तो शास्त्र के पुजारी हैं और न ही शस्त्र के पुजारी हैं । वे जिस ‘गीता’ को साथ रखने का नाटक करते हैं , उसी ‘गीता’ के इस उपदेश को मानने से इनकार कर देते हैं कि – ‘मैं अधर्मी , नीच और पापियों के संहार के लिए बार-बार जन्म लेना उचित मानूंगा।’
इसके विपरीत गांधीजी अधर्मी , नीच और पापियों के समक्ष आत्मसमर्पण कर खड़े हो जाने की शिक्षा देते हैं । ‘गीता’ को पढ़ने वाले गांधीजी यदि श्रीकृष्ण के स्थान पर होते तो वह अपने ‘अर्जुन’ को अपने विरोधियों के हाथ मर जाने की प्रेरणा देते। इसे हिन्दू का जीवनादर्श नहीं कहा सकता।
राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता है