अपने राजनीतिक स्वार्थों को साधने के लिए आम चुनाव 2014 से लगभग 8-10 माह पूर्व केन्द्र की संप्रग सरकार ने पृथक तेलंगाना राज्य का गठन कर भारत के मानचित्र में 29वें राज्य की स्याही भरने का निर्णय ले लिया है। निर्णय लेते ही आंध्र प्रदेश में विरोध आरंभ हो गया है, जबकि तेलंगाना समर्थकों ने मिठाईयां बांटते हुए जश्न मनाया है। दोनों बातें ही उचित नही हैं। क्योंकि तेलंगाना कोई नया आजाद देश नही बन रहा है और आंध्र प्रदेश यदि विभाजित हो रहा है तो कोई आसमान नही फट रहा है। विभाजन के पश्चात भी भारत के मानचित्र में उसका अस्तित्व बना रहेगा और लोग उसे आंध्र के नाम से ही जानेंगे।
देश में नया राज्य पहली बार नही बन रहा है। इससे पहले भी राज्यों का जन्म हुआ और जन्म ही नही हुआ, अपितु किसी का विलीनीकरण भी हुआ है। जैसे 1902 से पूर्व उत्तर प्रदेश अवध और आगरा नाम के दो प्रांतों में विभक्त था। 1902 में दोनों को मिलाकर संयुक्त प्रांत बनाया गया और राजधानी भी इलाहाबाद से उठाकर लखनऊ लायी गयी। आजादी के बाद संयुक्त प्रांत को उत्तर प्रदेश कहा गया। प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिïकोण से राज्यों का गठन पुनर्गठन होता रहता है। आजादी के समय हमारे पास 15 राज्य थे जो आज बढ़कर 29 हो रहे हैं। इसके साथ ही साथ हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि आजादी के समय हमारे पास 563 रियासतें थीं। वे सारी भी इस प्रकार से राज्य ही थीं आज हम 15 से 29 हुए हैं तो यदि जनभावनाओं का सम्मान करने के नाम पर नये नये राज्य बनाते चले गये तो कहीं 563 पर जाकर ही तो नही रूकेंगे? निश्चित रूप से विचारणीय प्रश्न है। उत्तर प्रदेश को मायावती अपने शासन काल में ही चार भागों में बांटने की सिफारिश कर चुकी थीं। इसलिए उन्होंने तेलंगाना के गठन की घोषणा होते ही उत्तर प्रदेश के विभाजन की मांग भी कर दी है। इसी प्रकार की मांगें देश के अन्य बड़े राज्यों में विभाजन की बाबत उठी हैं।
अब प्रश्न ये है कि ये मांगें आखिर उठती क्यों हैं? यदि सूक्ष्मता से देखा जाए तो पृथक राज्यों की मांगों के पीछे पहला और प्रमुख कारण राजनीतिक होता है। लोग पृथक राज्यों के गठन से कम से कम मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक आदि बनने की अपनी इच्छा को फलीभूत होना देखना चाहते हैं। बड़े राज्य में उनकी यह इच्छा जब पूरी नही हो पाती तो वह छोटे राज्य की वकालत करते हैं और लोगों की भावनाओं को भड़काकर सत्ता सोपान का आनंद उठाते हैं। परंतु यहां यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि बड़े राज्यों में किसी क्षेत्र विशेष का वर्चस्व स्थापित हो जाना सामान्य सी बात है। उस वर्चस्व को तोड़ने के लिए तथा स्वयं को उस वर्चस्व की घुटन से मुक्त करने के लिए भी छोटे राज्यों की मांग की जाती है। यहीं पर यह भी ध्यान दिया जाए कि यदि राज्यों में क्षेत्र विशेष का वर्चस्व स्थापित कर क्षेत्रीय असंतुलन को दूर करने की ओर पूरा और न्यायपरक ध्यान दिया जाए तो ये पृथक राज्य मांगने की स्थिति कभी ना आए। लेकिन कहा जाएगा कि आदमी से गलती होना स्वाभाविक है आखिर राजनीतिज्ञ भी तो आदमी ही हैं। यदि उनमें ऐसी त्रुटियां मिलती हैं तो क्या हो गया? इस पर हमारा मानना है कि राजनीतिज्ञ भले ही आदमी हैं, पर वे आम आदमी नही हैं वे खास आदमी हैं और इसलिए उनसे खास व्यवहार की उम्मीद की जाती है। यह उम्मीद ही उन्हें आदमी से ऊपर उठाती है और देवता बनाती है। यदि वह अपने को देवता स्थापित नही कर पाते हैं तो माना जाएगा कि वे इसके योग्य ही नही थे। हमें ध्यान देना चाहिए कि नये राज्य के बनने पर कितना धन व्यय होता है। निश्चित रूप से उस धनराशि से हजारों गांवों का समग्र विकास हो सकता है। नये राज्य के नये जनप्रतिनिधियों के वेतन आदि का मासिक और वार्षिक व्यय जो नया राज्य बनने पर अब निरंतर होते रहना है यदि वह ना करके निरंतर कुछ गांवों के विकास पर व्यय किया जाए तो आशातीत सफलता के परिणाम आएंगे।
इसलिए हमारी मान्यता है कि क्षेत्रीय असंतुलन की जिस कमी के कारण नये राज्यों की मांग उठती है वह राजनीतिज्ञों के मानसिक असंतुलन के कारण उठती है। पहले उसका ही इलाज किया जाना चाहिए।
अत: राजनीतिज्ञों को उच्च और न्यायपरक व्यवहार निष्पादित करने के लिए प्रशिक्षण दिया जाना अपेक्षित है। अब दूसरी बात पर आते हैं छोटे राज्यों के विषय में कहा जाता है कि इनके द्वारा विकास की प्रक्रिया निर्बाध रूप से हर व्यक्ति तक पहुंचती है। इसलिए छोटे राज्य ही जनता के हित में हैं। इस तर्क को भी राजनीतिज्ञ अपने स्वार्थों के दृष्टिïगत ही देते हैं। ये तो है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य का मुख्यमंत्री अपने हर गांव के प्रधान से संवाद स्थापित नही कर सकता जबकि हरियाणा का मुख्यमंत्री ऐसा कर सकता है। परंतु यह भी आवश्यक नही है कि एक ग्राम प्रधान का अपने मुख्यमंत्री से संवाद करना या स्थापित होना अनिवार्य ही है। यदि ऐसा है तो विधायक, सांसद, जिला पंचायत अध्यक्ष आदि की व्यवस्था क्यों की गयी है? आखिर वे भी तो जनप्रतिनिधि ही हैं और जनता की शिकायतों को दूर करने के लिए ही उनका निर्वाचन किया गया है। यदि वे बीच में व्यर्थ ही बैठे हैं, तो फिर तो हर विधायक अथवा सांसद को ही मुख्यमंत्री बनाना पड़ेगा और वह अपने प्रधानों की सम्मति से शासन चलाएगा।
कुतर्कों से समस्या का समाधान नही होता है। आलस्य और प्रमाद की स्थिति को त्यागकर जनहित में पुरूषार्थ करने की आवश्यकता है। छोटे राज्यों के खिलौने आप चाहे कितने ही बांट लो जब तक ईमानदारी पूर्ण इच्छा शक्ति देश के जनसाधारण की भलाई के लिए काम नही करेगी, तब तक चाहे कितने ही छोटे राज्य स्थापित कर लिये जाएं कोई लाभ नही होने वाला। दोष व्यवस्था में है और उस व्यवस्था के अंतर्गत यदि देखा जाए तो गांव का एक प्रधान भी गांव के लिए मिली धनराशि को अपने चहेतों के लिए या अपने समर्थकों के घरों के सामने के रास्तों पर या अन्य विकास कार्यों पर ही व्यय करता है। साथ ही अपने समर्थकों का काम करके उनकी दबंगई के बल पर (बड़े चातुर्य भाव से उनकी सहमति अपने साथ जोड़कर) विकास कार्यों के लिए मिली धनराशि को पचाने का काम भी करता है। अत: देखा जाए तो यहां भी क्षेत्रीय असंतुलन है। तब क्या गांवों में भी नये नये राज्य बनाने पड़ेंगे?
कुल मिलाकर हमारा कहना ये है कि बड़े राज्यों के रहने से कोई क्षति नही होगी। बस, हमारे जनप्रतिनिधियों के दिल भी बड़े हो जाएं। क्षेत्रीय असंतुलन की स्थिति विकास में कहीं बाधक ना हो पाए इसके लिए आवश्यक है कि जहां जहां विकास का समायोजन सही प्रकार से नहीं हो पा रहा है उन उन क्षेत्रों का सही प्रकार से चिह्नीकरण कर लिया जाए और फिर उन पर विशेष ध्यान देकर कार्य किया जाए। तब हम देखेंगे कि छोटे राज्यों की मांगों का सिलसिला स्वयं ही समाप्त हो जाएगा। समस्या के सही मर्म पर प्रहार करने की आवश्यकता है। दर्द कहीं हो और पट्टी कहीं बांधी जाए तो परिणाम आशानुरूप नही आ सकते। वैसे क्षेत्रीय असंतुलन को भी हमारे नेता और अधिकारी किसी जिले या राज्य के गठन के समय ही पैदा कर देते हैं, जब नये जिले का मुख्यालय या नये राज्य की राजधानी एक कोने में स्थापित किये जाते हैं। जबकि ये लगभग मध्य में स्थापित होने चाहिए। जिससे कि हर व्यक्ति की पहुंच में रहे। शरीर विज्ञान में हमारा सिर हृदय के ऊपर रखा गया है। तब भी हृदय को सिर तक रक्त पहुंचाने में सबसे अधिक शक्ति लगानी पड़ती है। यदि यह हृदय पांवों में होता तो क्या होता? तब शरीर की कल्पना भी नही की जा सकती थी। हमारे नेता और अधिकारी सामान्यत: नये जिलों और प्रदेशों के गठन के समय हृदय को पांवों में ही लगाते हैं। नितांत मूर्खता है ये। अब भी हम आंध्र की नई राजधानी के गठन के समय ऐसी मूर्खता को होते देखेंगे। जब तक ऐसी प्रवृत्ति बनी रहेगी तब तक विकास का समुचित समायोजन कैसे हो सकता है?
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।