सत्संगति पारस-मणि, सभी गुणों की खान

आत्मज्ञानी पुरूषार्थी,
हों नही भाग्य अधीन।
साहस अध्यवसाय से,
खोजें मार्ग नवीन ।। 223।।

ऐश्वर्य को प्राप्त हो,
जो पुरूषार्थी होय।
याचक बन जीवन जिए,
भाग्य भरोसे जो सोय ।। 224।।

अपनी कमी को ढूंढ़कर,
जो जन करै निदान।
चरण चूमती सफलता,
वो नर बनै महान।। 225।।

वन में रण में भंवर में,
विपदा में फंस जाए।
ढाल बनै रक्षा करै,
पुण्य करम कोई आय ।। 226।।

उदित होय कोई पुण्य जब,
शत्रु हों माकूल।
ज्यों रक्षक कांटे बनै,
खिलै गुलाब का फूल ।। 227।।

चेहरा मोहरा रंग रूप,
नाहिं वंश और जात।
फलदायी होती सदा,
पुण्यों की प्रभात ।। 228।।

कारज से पहले करे,
जो नही गहन विचार।
हृदय को सालै सदा,
ज्यों कांटे की धार ।। 229।।

शुभ कर्मों में रत रहै,
तो भोगै सुख के भोग।
निंदित कर्म को जो करै,
घेरें विपदा रोग ।। 230।।
दुष्टों को सज्जन करै,
मूर्खों को विद्वान।
सत्संगति पारस-मणि,
सभी गुणों की खान ।। 231।।

पावस में घन बरसते,
नदियां चलें इठलाय।
भाग्यहीन चातक रहै,
बूंद एक दो पाय ।। 232।।

कीकर पर पत्ते नहीं,
क्या कर सकत बसंत।
दुष्ट न त्यागै दुष्टता,
क्या कर लेवे संत ।। 233।।

सज्जन होय अमीर जो,
संयमी होवै वीर।
सौम्यता से भूषित मिलै,
दुर्लभ संत फकीर ।। 234।।

विद्वान की शोभा विनम्रता,
प्रभुता की क्षमा-भाव।
ज्ञान की शोभा शांति,
श्रेष्ठ है शील स्वभाव ।। 235।।

वृक्ष कटै फिर से बढ़ै,
सहे ठंड और ताप।
धीर पुरूष बुरे वक्त में,
करते नही विलाप ।। 236।।

बनना चाहे विशिष्ट जो,
शिष्टता पहले निभाय।
प्रभुता का पहला कदम,
मंजिल तक पहुंचाय ।। 237।।

अग्नि ठंडी होत है,
देखकै शील स्वभाव।
सलोचना के शील ने,
राम को दियो रूलाय ।। 238।।

विषय विकास से शून्य हो,
और चितवन के तीर।
जीत लेय त्रिलोक को,
ऐसा संयमी धीर ।। 239।।

धीर पुरूष की धीरता,
विपदा में साथ निभाय।
ज्यों अग्नि नीची करो,
लपट तो ऊपर जाए ।। 240।।

निंदा चाहे श्लाघा करें,
धन दौलत भी जाए।
धीर पुरूष कभी न्याय से,
पग पीछे न हटाय ।। 241।।

चिथड़ों से तन ढांप लें,
भूखे धरन पै सोय।
प्राप्त करें आदर्श को,
ऐसे बिरला कोय।। 242।।
विघ्न से ऊंचा होंसला,
जिस नर का हो जाए।
हारकै भी वो जीतता,
मंजिल शीश नवाय ।। 243।।
क्रमश:

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